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राज्यसभा की गरिमा का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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Sudhanshu Ranjanपिछले कई वषरें से राज्यसभा में थैलीशाहों के प्रवेश को लेकर चिंता प्रकट की जा रही है। झारखंड तो एक प्रकार से थैलीशाहों के लिए राज्यसभा पहुंचने को कॉरिडोर बन गया है। परिमल नाथवानी जैसे उद्योगपति पहली बार झारखंड की धरती पर कदम रखते हैं और सीधे उच्च सदन पहुंच जाते हैं। उनके अलावा आरके आनंद, केडी सिंह, निशिकांत दुबे सरीखे भी झारखंड से दिल्ली का सफर पूरा करते हैं। हाल के राज्यसभा चुनाव में प्रवासी भारतीय अंशुमन मिश्र ने भी झारखंड से राज्यसभा पहुंचने का प्रयास किया और उन्हें भारतीय जनता पार्टी का समर्थन भी मिला, लेकिन पार्टी के अंदर विद्रोह के कारण उन्हें चुनाव मैदान से हटना पड़ा। इसके बाद जो चुनाव हुआ उसमें वृहद पैमाने पर पैसे का लेनदेन हुआ और मतदान के दिन तो एक प्रत्याशी के चचेरे भाई की कार से 2.15 करोड़ रुपये बरामद हुए। तुरंत हरकत में आते हुए चुनाव आयोग ने चुनाव स्थगित कर दिया। कांग्रेस प्रत्याशी ने आयोग के इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी, किंतु अदालत ने न केवल याचिका खारिज कर दी, बल्कि निर्देश दिया कि सीबीआइ चुनाव में पैसे की भूमिका की जांच करे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि राज्यसभा चुनाव स्थगित किया गया हो। इससे पहले 1992 में बिहार में भी आयोग ने राज्यसभा चुनाव स्थगित किया था। तब मुख्यमंत्री लालूप्रसाद मतदान केंद्र चले गए थे, जबकि विधान पार्षद होने के कारण वह मतदाता नहीं थे।


राज्यसभा चुनाव में भी भ्रष्टाचार


थैलीशाहों के प्रवेश से राज्यसभा की उच्च सदन के रूप में गरिमा समाप्त होती जा रही है। एक बड़ी दवा कंपनी के मालिक इस बार फिर बिहार से जद (यू) प्रत्याशी के रूप में आए हैं, जो पहली बार नरसिंह राव सरकार द्वारा मनोनीत सांसद बनाए गए थे। उसके बाद लालू प्रसाद ने उन्हें अपनी पार्टी से राज्यसभा भेजा। फिर वह जद (यू) के टिकट पर निर्वाचित हुए। चौथी बार भी वह जद (यू) की तरफ से राज्यसभा आए हैं। यानी उन्हें राज्यसभा पहुंचाने के लिए कोई न कोई पार्टी तत्पर रहती है। वह शायद ही जनता या किसी विधायक तक से चुनाव के बाद मिलते हैं। थैलीशाहों का प्रवेश 2003 के बाद और बढ़ गया जब जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 3 में संशोधन कर राज्यसभा चुनाव लड़ने के लिए उस राज्य का नागरिक होने की शर्त को समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन को वाम दलों को छोड़कर सभी दलों का समर्थन मिला, क्योंकि अधिकतर दल ऐसे नेताओं की गिरफ्त में हैं जिनका कोई जनाधार नहीं है और वे किसी भी राज्य से राज्यसभा पहुंच जाते हैं। विडंबना यह है कि जिस मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका विरोध किया उसने भी संशोधन का लाभ उठाते हुए सीताराम येचुरी एवं वृंदा करात को पश्चिम बंगाल से राज्यसभा भेज दिया। थैलीशाहों के प्रवेश से संसद के उच्च सदन की गरिमा तो गिरी ही है, इसकी भूमिका पर सवाल खड़े हुए है।


फ्रांस में पहले कहा जाता था कि यदि उच्च सदन निचले सदन से असहमत होता है तो यह शरारत है और यदि सहमत होता है तो यह बेकार है। किंतु उच्च सदन की एक अहम भूमिका है और भारत में यह राज्यों की परिषद है। इसलिए संघवाद की रक्षा में इसकी एक निर्णायक भूमिका है। चाहे संसदीय व्यवस्था हो या राष्ट्रपति प्रणाली, दूसरे सदन की भूमिका महत्वपूर्ण है। संसदीय पद्धति में इसकी भूमिका संशोधन करने की है, जबकि राष्ट्रपति प्रणाली में यह निचले सदन के ऊपर नियंत्रण एवं संतुलन रखने का काम करता है। भारत में दो सदन की नींव भारत सरकार अधिनियम 1919 द्वारा रखी गई, किंतु उसमें कोई संघीय तत्व नहीं था। मोतीलाल नेहरू कमेटी की रिपोर्ट (1928) ने संघीय दूसरे सदन की अनुशंसा की, किंतु अमेरिकी मॉडल को खारिज कर दिया। इसमें सुझाव दिया गया कि इसके लिए निर्वाचन प्रांतीय विधान सभाओं द्वारा किया जाए जिसमें छोटे प्रदेशों को बेहतर प्रतिनिधित्व दिया जाए ताकि बड़े एवं छोटे प्रदेशों में असमानता कम हो सके। भारत सरकार अधिनियम 1935 में भी द्वितीय सदन का प्रस्ताव किया गया, किंतु नेहरू कमेटी की तरह सभी प्रांतों को बराबर प्रतिनिधित्व देने की अनुशंसा नहीं की गई। संविधान सभा की बहस से यह स्पष्ट होता है कि संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा को संशोधन करने वाले सदन की बजाय संघीय प्रतिनिधित्व वाले सदन के रूप में देखा था। दुर्भाग्य से आज बहुत कम ऐसे विशिष्ट व्यक्ति उच्च सदन मे आते हैं जो बहस के स्तर को ऊपर उठा सकें।


संदीप शास्त्री ने 1952 से 2002 के बीच राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए 1607 सदस्यों का सर्वेक्षण किया। इसमें पाया गया कि अधिकतर ऐसे सदस्य निर्वाचित हुए हैं जो पूर्व में विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं। आज झारखंड में जो कुछ हुआ वह नया या चौंकाने वाला नहीं है। शुरू से ही राजनीतिक दलों का नेतृत्व सीटें बेचता रहा है। इसीलिए एक प्रसिद्ध होटल व्यापारी भी झारखंड से निर्वाचित होकर आ गए थे। जब विधायकों ने देखा कि उनके नेता रकम लेकर राज्यसभा की सौगात थैलीशाहों को दे रहे हैं तो उन्होंने खुद को ही बेचना बेहतर समझा। इसलिए थैलीशाह सीधे-सीधे विधायकों को ही खरीद लेते हैं। यदि संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करनी है और धनबल से लोकतंत्र को बचाना है तो ऐसा कानून बनाना होगा कि धन के जरिये मत खरीदने की कोशिश करने वाले व्यक्ति एक खास अवधि के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाएं। इसमें राजनीतिक दलों की भूमिका महत्वपूर्ण है।


सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं


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