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बीते दिनों पंजाब के जालंधर में घटी घटना ने पुलिस व्यवस्था को प्रश्नों के कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। नैतिकता के नाम पर उन्होंने एक युवती को इस कदर लज्जित और प्रताडि़त किया कि वह आत्महत्या करने पर विवश हो गई। वह भी सिर्फ इसलिए कि वह अपने पुरुष मित्र के साथ कार से जा रही थी और एक अन्य कार से उनकी टक्कर हो गई। दुर्घटना के बाद मौके पर पहुंची पुलिस को दुर्घटना के कारणों एवं उससे संबंधित नियम-कायदों का पालन करते हुए कार्रवाई करनी चाहिए थी, इसके बजाय उसने छात्रा और उसके दोस्त को अपमानित करने में अपनी दिलचस्पी दिखाई और बेहद पीड़ाजनक तथ्य यह है कि इस पूरे कृत्य में एक महिला पुलिस अधिकारी भी शामिल थी। क्या कानून के पहरेदार जानते हैं कि नैतिकता के मायने क्या हैं या महज अपने पद और अधिकारों की धौंस जमाने के लिए आम लोगों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करना उनकी कार्य व्यवस्था का अहम हिस्सा बन चुका है। क्या इस देश में आज भी किसी लड़के के साथ बैठना अनैतिक है? इस घटना से ऐसा ही प्रतीत होता है। बीते दशकों में सामाजिक ताने-बाने में एक आमूलचूल परिवर्तन हुआ है और स्ति्रयां न केवल शिक्षा के लिए, बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए घर से बाहर निकली हैं। कॉलेज में साथ पढ़ रहे या एक ही ऑफिस में काम कर रहे दो लोगों के बीच दोस्ती स्वाभाविक सी बात है।
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भागती दौड़ती जिंदगी के बीच अपने मन की बातों को बांटने के लिए किसी जगह बैठकर बात करना कैसे अनैतिक हो सकता है? और अगर एक पल को मान लिया जाए कि वह संबंध मित्रता से कहीं अधिक है तो क्या यह अनैतिक है? दरअसल, हमारा समाज दोहरी मानसिकता का शिकार है। प्रेम गीतों में झूमते, माता-पिता के विरुद्ध जाकर विवाह करते हुए फिल्मी पात्रों को देखकर तालियां बजाने वाला समाज स्त्री और पुरुष की मित्रता को अपराध मानता है। नैतिकता का ढोल पीटने वाला समाज स्वयं नैतिकता को परिभाषित करने में अक्षम है। बीते कुछ वर्षो में नैतिकता के प्रश्न ने संवेदनशील वर्ग से लेकर कानूनवेत्ताओं को उलझा कर रख दिया है। शायद ही ऐसा कोई दिन बीतता होगा जब नैतिकता के मापदंड पर किसी के अस्तित्व को खारिज न किया गया हो। यह सच है कि नैतिकता के बगैर समाज बिखर जाएगा पर प्रश्न फिर खड़ा होता है कि नैतिकता के वास्तविक मायने क्या हैं? क्या इसका अर्थ इतना तुच्छ है कि वह किसी के जीवन पर भारी पड़ सकता है या फिर नैतिकता समाज के लिए वह शस्त्र है जिसे अपनी प्रभुत्वशीलता और स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। क्या अनैतिक है और क्या नैतिक इसका निर्धारण कौन करेगा? समाज? अगर ऐसा है तो यह सभी जगह एक रूप में लागू होना चाहिए। पर ऐसा नहीं है क्योंकि नैतिकता की रटी-रटाई परिभाषा नहीं है और न ही हो सकती है। वास्तविकता तो यह है कि नैतिकता व प्रतिष्ठा ऐसे सामाजिक मानदंड हैं जो समयानुसार परिवर्तित होते रहते हैं और अगर ऐसा न हो तो मनुष्य का विकास रुक जाएगा। इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय पुरुष सत्तात्मक समाज में नैतिक होने का संपूर्ण दायित्व स्त्री का है और अगर ऐसा नहीं है तो क्यों एक ही घटना के लिए पुरुष को मुक्ति और स्त्री को कटघरे में खड़ा किया जाता है।
स्कूल और कॉलेज से सीधे घर आने की ताकीद हर सुबह बेटियों को दी जाती है और अगर अपवादस्वरूप कुछ अभिभावक अपनी बेटियों को इस बंधन से मुक्त रखते हुए अपने बेटों के समकक्ष ही स्वतंत्रता देते हैं तो यह न तो समाज के नैतिकता के ठेकेदारों को स्वीकार्य होता है और न ही हमारी पुलिस व्यवस्था को, जो आज भी यह मानती है कि स्त्री और पुरुष में मित्रता नहीं हो सकती। हम यह समझना होगा कि दो वयस्क लोगों के बीच मित्रता और प्रेम किसी भी रूप में अनैतिक नहीं हो सकता। अगर हम आज भी नैतिकता की इन संकीर्ण गलियों में घूमते रहेंगे तो सांस लेना भी दुश्वार हो जाएगा।
लेखिका ऋतु सारस्वत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Tag: Crime against women, crime against women in india, Weaker Section, Police records, molestation, महिला.
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