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ममता बनर्जी के बंगाल की हालत देख कर कई साल पहले वामदलों के शासनकाल में कोलकाता के एक अखबार में पहले पेज पर प्रकाशित एक फोटो का कैप्शन याद आ रहा है। सड़क पर खड़ी अंबेसडर कार से कुचले हुए एक भद्रलोक का शव और आसपास से गुजरते लोगों के पैर। कैप्शन में लिखा था, एई कोलकाता आमरा जानी ना (हम इस कोलकाता को नहीं पहचानते)। अखबार इस बात पर हैरानी जता रहा था कि जिस बंगाल में लोग छोटी-छोटी बात पर जमा हो जाते हैं, वहां एक शव के अगल-अगल से कन्नी काट कर कैसे निकल रहे हैं? कुछ समय बाद एक बंगाली मित्र राज्य की राजधानी के संक्षिप्त प्रवास से लौटे तो हालचाल पूछने पर बड़ी निराशा से बताया कि बंगाल बदल रहा है। लड़कियां फ्रॉक और लाल पाढ़ (किनारी) की साड़ी के बजाय सलवार-समीज और जींस पहनने लगी हैं। बदलाव तब भी वहां के भद्र समाज को डराता था और अब भी डरा रहा है, लेकिन संदर्भ बदल जाने से दोनों बदलावों के मायने बदल गए हैं। तब उम्मीद थी कि वाम शासन से मुक्ति मिलेगी तो नई हवा चलेगी। अब वहां की जनता को पछतावा हो रहा है कि किसके हाथ में कमान दे दी।
जनता ने सोचा था कि ममता के आने से सोनार बांग्ला की प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिलाने वाले वाम शासन से निजात मिली। उन्हें उम्मीद थी कि नई सरकार कुछ ऐसा करेगी, जिससे परिवर्तन की बुनियाद तैयार होगी और धीरे-धीरे उस पर नए बंगाल का आलीशान महल खड़ा होगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक के बाद एक हो रही घटनाएं इसकी गवाह हैं। चाहे राज्य के विभिन्न अस्पतालों में नवजात बच्चों की मौत हो, कोलकाता के पॉश इलाके पार्क स्ट्रीट में एक महिला के साथ हुए दुष्कर्म की घटना हो, ख्यातिलब्ध माइक्रोबायोलॉजिस्ट पार्थसारथी रे को जेल में डालने का मामला हो या फिर इंटरनेट पर एक कार्टून को प्रसारित करने के आरोप में प्रोफेसर को गिरफ्तार करने का, बार-बार ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के संवेदनहीन और दिग्भ्रमित शासन की झलक दिख रही है। हद तो तब हो गई जब ममता बनर्जी के एक मंत्री ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) से हर तरह के सामाजिक संबंध तोड़ देने का फतवा जारी कर दिया।
सूबे के खाद्य आपूर्ति मंत्री ज्योतिर्मय मल्लिक यही नहीं रुके। उन्होंने कार्यकर्ताओं का आ ान किया कि चाय की दुकान पर भी माकपाइयों से बातचीत करने से परहेज करें। उनकी दलील देखिए। कहते हैं कि माकपाइयों से तृणमूल वालों ने मेल-जोल रखा, तो उनसे प्रतिशोध कैसे लेंगे। जिसे गैर-बंगाली चाय की दुकान कहते हैं, उसे बंगाल में अड्डा कहा जाता है और तमाम राजनीतिक विद्वेष और हिंसा के बावजूद आज भी वह वहां की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। क्या एक मंत्री के कहने भर से ऐसा हो जाएगा? कतई नहीं। फिर मंत्री महोदय की मंशा क्या है? क्या यह अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के अल्प शासन से उपजी आम निराशा को दूर करने का राजनीतिक हथकंडा है। एक ऐसी निराशा जो सिर्फ विपक्षी कार्यकर्ताओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हर खास-ओ-आम तक फैल चुकी है। जाहिर है, तीन दशक से भी ज्यादा चले वाम शासन को मां-माटी-मानुष के नारे से उखाड़ फेंकने वाली ममता बनर्जी के पास कोई एजेंडा नहीं है। वह और उनके अनुगामी कुशासन के अलावा कुछ नहीं दे पा रहे हैं। यह उस बंगाल की हालत है, जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि वह जो सोचता है, दूसरे कई साल बाद उस पर अमल करते हैं। यह वही बंगाल है जिसकी माटी ने कथा सम्राट शरतचंद्र, महान विचारक राजा राममोहन राय, विलक्षण शिक्षाविद ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दिव्य संत रामकृष्ण परमहंस, उद्भट भविष्यद्रष्टा स्वामी विवेकानंद, वसुधैव कुटुंबकम का पाठ पढ़ाने वाले रवींद्रनाथ टैगोर, क्रांतिवीर सुभाष चंद्र बोस और न जाने कितने स्वनामधन्य मनीषियों को जन्म दिया। उस बंगाल को ममता बनर्जी क्या बनाना चाहती हैं? उनकी राजनीतिक तिकड़मबाजियां हास्यास्पद होती जा रही हैं।
वाम शासन के खिलाफ जंग में उनका साथ देने वाले बुद्धिजीवियों से लेकर आम जनता का सिर शर्म से झुका जा रहा है। उनकी पार्टी के उन कार्यकर्ताओं और नेताओं को छोड़ दिया जाए जिन्हें सत्ता की मलाई मिल रही है, तो बाकी राज्य में कहीं भी चले जाइए, लोग भविष्य के प्रति शंकालु और गुजरे जमाने से मोहित नजर आएंगे। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या ममता को वाम दलों की तानाशाही को हटा कर राज्य को एक और निरंकुश शासन देने के लिए याद किया जाएगा? वाम दलों के कैडर राज के आतंक से निजात पाने के लिए लोगों ने जिस अग्निकन्या को कमान सौंपी है क्या वह अपनी मनमानी की आग में पूरे राज्य को स्वाहा करके ही दम लेगी? इन आशंकाओं के हकीकत में तब्दील होने की ठोस वजह हैं। कहना न होगा कि सबसे ज्यादा खुश तो माकपा और वाम मोर्चा के घटक दल हो रहे होंगे। उन्हें साफ दिख रहा है कि इंतजार का फल मीठा होने वाला है। उनकी कामना यही होगी कि ममता का कुशासन इसी तरह जारी रहे, ताकि जब भी चुनाव हों, तो बुरी तरह से निराश जनता का उन्हें भरपूर समर्थन मिले और वे सत्ता में लौटें। अगर ऐसा हुआ तो इसमें वाम दलों का कोई योगदान नहीं होगा। ममता शासन की करतूतें उन्हें वापस सत्ता दिलाएंगी, क्योंकि बंगाल अपनी आपाधापी में भले ही सड़क पर पड़े किसी शव की अनदेखी कर दे और कुछ लोग जींस और सलवार को अपना लें, लेकिन बंगाल का मिजाज नहीं बदला है। रवींद्र संगीत, मछली, फुटबाल और अड्डाबाजी आज भी फैशन में हैं और रहेंगे। कुछ बदलेगा तो वह है ममता का शासन।
ब्रज वरिष्ठ पत्रकार हैं
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