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अपराध के दलदल में युवा

जागरण मेहमान कोना
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Anjali sinhaबाइस साल का करतार बीएससी का छात्र है और 23 साल का प्रमोद बीबीए का। बाकी तीन भी इसी उम्र के आसपास के हैं और फरीदाबाद सेक्टर 24 निवासी हैं। इनमें से एक युवक की स्कार्पियो कार में बैठकर पांचों निकलते हैं और रास्ते में अपहरण की योजना को अंजाम देते हैं। गुड़गांव मॉल में काम करने वाली महिलाओं को पहले पटाने की कोशिश करते हैं और बात नहीं बनती है तो मॉल बंद होने पर उनकी कैब का पीछा कर एक का अपहरण करते हैं। कैब चालक अमित की बहादुरी और पुलिस की मुस्तैदी से अपहरण के कांड का पर्दाफाश हो सका है। कुछ अपराधी पकड़े गए हैं और बाकी की गिरफ्तारी के लिए पुलिस दबिश दे रही है। खबर यही है कि इस घटना में कैब चालक अमित की जान तो बच गई, लेकिन उसका साथी संदीप जो घटना का चश्मदीद था, वह तीन दिन बाद मारा गया।


अपराधियों ने चलती वैन से संदीप को वसंतकुंज के पास पुलिस पिकेट के सामने फेंक दिया, जिससे वह गंभीर रूप से घायल हुआ और अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ दिया। कल्पना करें कि इन दोनों घटनाओं को पढ़कर किसी भी महिला कर्मचारी खासतौर से जिनकी रात की डयूटी होती है, उन्हें क्या महसूस होता होगा? सुरक्षा इंतजामों की कैसी धज्जियां उड़ रही हैं। हालांकि इस घटना में पुलिस ने तत्परता दिखाई और अपराधी पकड़े गए, लेकिन किसी को भी यह जानकर दहशत होगी कि यदि अमित ऐसा नहीं कर पाया होता तो क्या होता? आप लाख कहें, मगर समाज में बढ़ता अपराधीकरण एक तरह से स्ति्रयों को निजी दायरे में धकेलने और वहीं तक सीमित रखने की नीति है। एक तो रात में सरकारी वाहन, बस या मेट्रो की सुविधा नहीं होती और न ही कोई मालिक या एम्प्लॉयर महिला कर्मचारियों को सुरक्षित घर छोड़ने की जिम्मेदारी लेना चाहता है।


फिर वे जब अपना इंतजाम खुद करें, तब भी सुरक्षा कहीं नहीं है। आखिर रात की शिफ्ट में काम करना महिलाओं का अधिकार भी तो है। यह काम का अधिकार क्या उनसे औरत होने के गुनाह के लिए छीन लिया जाएगा। इस वातावरण में रोज-रोज घर से काम पर निकलना और सुरक्षित वापस घर पहुंचना जोखिम भरा है और काम पर जाना जरूरी है। कब तक, कहां तक खुद को बचाने का प्रयास किया जाए। सबसे बड़ा विचारणीय मुद्दा यह है कि उक्त पांचों युवकों की तरह अन्य भी ढेरों लड़कें क्यों अपराधों को अंजाम देते जा रहे हैं? कई सारे पुरुष अपहरण और बलात्कार या हत्या को अंजाम नहीं देते हैं, लेकिन सड़क या सार्वजनिक स्थलों का वातावरण अपने व्यवहार से असुरक्षित बनाते हैं, दहशत पैदा करते हैं, दबंगई और गुंडई करते हैं तथा अपने जैसे दूसरों का हौंसला बढ़ाते हैं। यह समझना जरूरी है कि आखिर कहां चूक हुई या पालन-पोषण में कमी रही कि इन्होंने बचपन से दूसरों का सम्मान करना नहीं सीखा। राजधानी की पुलिस द्वारा अपनी सालाना अपराध रिपोर्ट पेश किए जाने के बाद कुछ वक्त गुजर चुका है। प्रस्तुत रिपोर्ट के जरिए पुलिस विभाग ने विभिन्न प्रकृति के अपराधों के बढ़ते ग्राफ को रेखांकित किया था। जैसे कि पुलिस ने माना है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध बढ़े है। मुख्य रूप से तीन अपराधों के बारे में आया है कि 2010 में बलात्कार के केस 489, छेड़छाड़ 585 तथा घरेलू हिंसा के 1926 केस दर्ज हुए है, जो पिछले वर्ष से अधिक है। इसमें दहेज उत्पीड़न तथा दहेज हत्या के केस को नहीं बताया गया है। इस प्रकार रोज 8 महिलाएं किसी न किसी प्रकार के हिंसा की शिकार होती हंै। सभी अपराधों में सबसे ऊपर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध का स्थान प्राप्त है। इस रिपोर्ट में यह मुद्दा भी सामने आया था, जिस पर अलग से विचार करने की जरूरत है। यह मुद्दा है समाज में पनप रही हिंसक प्रवृत्तियों से संबधित, जिसके गहन तहकीकात की आवश्यकता है। पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि विभिन्न अपराधों को अंजाम देने वाले अपराधियों में 94 प्रतिशत ऐसे हैं, जिन्होंने पहली बार अपराध किया है और दूसरा चिंतनीय मुद्दा है कि हत्या के 57 प्रतिशत मुलजिमों की उम्र 25 साल से कम है। स्पष्ट है कि इन सभी अभियुक्तों के जीवन का जो सबसे अधिक ऊर्जावान और उत्पादक समय है, वह जेल में या केस लड़ने में बीतेगा। आम तौर पर धारणा होती है कि अपराध तो अपराधी, गुंडे, बदमाश करते हैं यानी जो पहले भी अपराध करते रहे हों, लेकिन 94 फीसदी यानी बड़ी संख्या है अपराधी बनने की।


आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं या बच्चों को कैसा वातावरण समाज में मिल रहा है, जिसमें वे किशोरावस्था पार करने के बाद इतनी बड़ी संख्या में अपराधी बन रहे हैं। पुलिस प्रशासन की तो जिम्मेदारी है कि सुरक्षा मुहैया कराए और अपराधी को सजा तक दिलवाए, जिसकी व्यवस्था ठीक से प्रशासन और सरकार ने नहीं किए हैं और यह गारंटी तो किसी भी कीमत पर होनी आवश्यक है। इसमें सुस्ती भी अपराध ही माना जाना चाहिए और उसकी भी सजा सुनिश्चित की जानी चाहिए, लेकिन दूसरा मुद्दा दूसरे स्तर पर विचार करने वाला है और वह यह कि कौन-कौन से कारक ऐसे हैं, जो अपराधी बनाते जा रहे हैं। घर वाले लोग और स्कूल-कॉलेज उन्हें क्या दे रहा है? निश्चित ही ये युवा अचानक अपराधों को अंजाम नहीं देते होंगे, उनका व्यवहार किसी न किसी रूप में पहले से भी असभ्यता की श्रेणी में आता होगा। घर के अंदर का वातावरण इंसान के समाजीकरण में अहम भूमिका निभाता है। कुछ समय पहले दिल्ली के मैक्स हेल्थ केयर के मनोरोग विभाग के प्रमुख मनोचिकित्सक डॉ. समीर पारिख ने बच्चों की हिंसात्मक प्रवृत्ति पर कराए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसात्मक फिल्में देखने कारण बच्चों में हथियार रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि 14 से 17 वर्ष के किशोर हिंसात्मक फिल्में देखने के शौकीन हो गए हैं।


यह सर्वेक्षण किशोरों के मानसिक दृष्टिकोण पर आधारित है, न कि उनके व्यवहार के आधार पर, जो दिल्ली, गुडगांव और नोएडा के एक हजार छात्रों पर केंद्रित करके किया गया है। 44 फीसदी छात्रों ने माना कि उन्होंने किसी न किसी को चोट पहुंचाई है और 32 फीसदी छात्राओं ने इसमें हामी भरी है। 35 फीसदी छात्रों के मुताबिक उन्होंने दोस्त बनाने के लिए दादागिरी तथा बल प्रयोग किया। अपने समाज का महिमामंडन करने की प्रवृत्ति हमारे यहां बहुत मौजूद है। अब भी वक्त है इससे उबर कर इस बात को समझने का कि सहिष्णु कहे जाने वाले हमारे समाज में किशोरों-युवाओ में आपराधिक प्रवृत्ति में तेजी क्यों आ रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे पूरे परिवेश तथा सामाजिक वातावरण में गहरे पैठे गैर-बराबरी पूर्ण आपसी रिश्ते तथा परत-दर परत बैठी हिंसा की मनोवृत्ति इसे खाद पानी दे रही है।


लेखिका अंजलि सिन्हा स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं


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