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कांग्रेस व केंद्र सरकार की मनमानी से केंद्र-राज्य संबंधों में तनातनी बढ़ती देख रहे हैं प्रदीप सिंह
केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार की मुश्किलें दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं। उसके नेतृत्व वाली राज्य सरकारों की संख्या घटती जा रही है। ऐसे में केंद्र राज्य संबंधों का मामला धीरे-धीरे केंद्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। केंद्र और राज्यों के संबंध इतने खराब कभी नहीं रहे। उस दौर में भी नहीं जब केंद्र में कांग्रेस संविधान के अनुच्छेद 356 का धड़ल्ले से दुरुपयोग करती थी। क्या राज्य सरकारें संविधान की लक्ष्मण रेखा को लांघ रही हैं? क्या भावी राजनीतिक ध्रुवीकरण की कोशिशें देश के संघीय ढांचे को कमजोर कर रही हैं? क्या राज्यों के मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण ऐसा हो रहा है? या देश में बन रहे कांग्रेस विरोधी माहौल का यह क्षणिक बुलबुला है। क्या यह केंद्र के कमजोर होने का संकेत है? या मौजूदा केंद्र सरकार के शासनकौशल की कमी और खराब राजनीतिक प्रबंधन इसके लिए जिम्मेदार हैं। इन सवालों के जवाब तय करेंगे कि भविष्य में केंद्र-राज्य संबंधों का स्वरूप क्या होगा। मनमोहन सिंह की सरकार को लग रहा है कि गैरकांग्रेसी राज्य सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दे पर भी राजनीति कर रही हैं।
सरकार और कांग्रेस पार्टी दोनों को लग रहा है कि मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी संघीय ढांचे की रक्षा के नाम पर देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना रही है। यह भी कि भाजपा अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का विस्तार करने की कोशिश के साथ ही संप्रग में बिखराव लाने का प्रयास कर रही है। उसे यह भी लग रहा है कि भाजपा राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भी राजनीतिक लाभ उठाने के लक्ष्य से काम कर रही है। भाजपा आर्थिक सुधार के उन मुद्दों पर भी सरकार का विरोध कर रही है, जिन्हें अपने कार्यकाल में वह करना चाहती थी। भाजपा सकारात्मक विपक्ष की भूमिका नहीं निभा रही। वह दूसरे गैरकांग्रेसी दलों को भी भड़का रही है। लब्बोलुआब यह कि देश का मुख्य विपक्षी दल व्यापक राष्ट्रीय हितों की कीमत पर राजनीति कर रहा है। कांग्रेस के इन आरोपों को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह पूरी तरह सच भी नहीं है। इस वास्तविक से कैसे इनकार किया जा सकता कि देश के मतदाताओं ने सरकार चलाने की जिम्मेदारी कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को सौंपी है। संसदीय जनतंत्र का मूल मंत्र है संवाद और सहमति।
कांग्रेस को संवाद में अपनी हेठी नजर आती है। 1947 से 1989 तक (1977 से 1980 को छोड़कर) कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की इच्छा सरकारी फरमान हुआ करता था। कांग्रेस की हालत उस कुंवारे की तरह है जिसने बुढ़ापे में शादी की हो। जीवनसाथी के बिना रहना भी मुश्किल है और किसी के साथ रहने की आदत न होने के कारण साथ रहना भी कठिन। कांग्रेस ने अकेले राज किया है। सत्ता का बंटवारा उसके डीएनए में ही नहीं है। उसके लिए यह मजबूरी का सौदा है। राज्यों के मुख्यमंत्री उसके सिपहसालार हुआ करते थे। अब वही मुख्यमंत्री बराबर का दर्जा चाहते हैं। कांग्रेस चाहती है वे याचक की मुद्रा में केंद्र सरकार के सामने पेश हों। आपको इस बात में कोई शक नजर आता हो तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी के भाषणों को याद कर लीजिए कि केंद्र से पैसा हम भेजते हैं। यह भाषा सत्ता में भागीदार दो बराबर के लोगों की नहीं, दाता और पाता की है। केंद्र से राज्यों को जो पैसा मिलता वह संवैधानिक व्यवस्था के तहत उनका हिस्सा है। वह केंद्र सरकार की कृपा राशि नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया देखकर ऐसा लगता है जैसे दो स्वायत्त और सार्वभौम इकाइयों में टकराव हो रहा हो। केंद्र की सत्ता जब-जब कमजोर होती है क्षत्रपों के तेवर बगावती हो जाते हैं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से पटा पड़ा है।
दरअसल, यह स्थिति संवादहीनता के कारण ही नहीं है। इसमें परस्पर विश्वास की कमी की भी भूमिका है। संप्रग के विरोधी दलों के मुख्यमंत्रियों की बात थोड़ी देर के लिए छोड़ कर और समर्थकों की बात करते हैं। संप्रग के समर्थक दलों में केंद्र से सबसे ज्यादा नाराज ममता बनर्जी हैं। आम धारणा है कि वह पश्चिम बंगाल के लिए विशेष आर्थिक पैकेज चाहती हैं और नहीं मिलने से नाराज हैं। वास्तविकता कुछ और ही है। ममता बनर्जी का कहना है कि उनके राज्य की सभी श्चोतों से आमदनी 21 हजार करोड़ रुपये है। केंद्र सरकार एफआरबीएम (वित्तीय जिम्मेदारी व बजट प्रबंधन) के तहत राज्य से 22 हजार करोड़ रुपये ले रही है। ममता चाहती हैं कि सरकार इस राशि की वसूली कुछ साल तक मुल्तवी कर दे। जैसाकि वाम मोर्चा सरकार के समय हो रहा था। इस बारे में वह वित्तमंत्री से 16 बार और प्रधानमंत्री से छह बार बात कर चुकी हैं। पर अभी तक कुछ नहीं हुआ। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि केंद्र सरकार के इस रवैये के बावजूद बांग्लादेश से तीस्ता नदी जल संधि पर ममता के रवैये को सही नहीं ठहराया जा सकता। एनसीटीसी और लोकायुक्त के मसले पर केंद्र और राज्यों में तलवारें खिंची हुई हैं। भाजपा इसे संप्रग को कमजोर करने और सरकार की किरकिरी करने के अवसर के रूप में देख रही है। पर भाजपा को यह मौका कांग्रेस की अहंकारी शैली ने उपलब्ध कराया। भारतीय संविधान में राज्यों और केंद्र के अधिकारों का बड़ा स्पष्ट बंटवारा है। कानून व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है।
केंद्र सरकार आतंकवाद के खतरे से निपटने के लिए राज्य पुलिस के तलाशी और गिरफ्तारी के अधिकार केंद्रीय एजेंसी को भी देना चाहती है। इतना बड़ा फैसला लेने से पहले केंद्र सरकार ने विरोधी दलों को तो छोडि़ए सहयोगी दलों की राज्य सरकारों से भी मशविरा करना जरूरी नहीं समझा। राज्यों के विरोध के बाद अब मई में बैठक बुलाई गई है। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश, लोकायुक्त विधेयक जैसे तमाम नीतिगत फैसलों का उदाहरण है, जब सरकार फैसला पहले लेती है और सहमति बनाने की कोशिश बाद में करती है। आने वाले दिनों में यह समस्या बढ़ने वाली है क्योंकि कांग्रेस और प्रधानमंत्री इस स्थिति के लिए अपने अलावा सबको जिम्मेदार मानते हैं। कांग्रेस अपने बहुमत राज के दिनों की मानसिकता से निकलने को तैयार नहीं है। वह आज की राजनीतिक हकीकत से आंखें मूंदे हुए है। यह गठबंधन की राजनीति का युग है। अहमन्यतावादी रवैया उसे राजनीतिक हाशिये की ओर धकेलेगा। बराबरी के संवाद से सहयोग भी मिलेगा और सम्मान भी।
लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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