Menu
blogid : 5736 postid : 6302

कृषि के लिए झूठी दलीलें

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Devinder Sharmaरिटेल में एफडीआइ को कृषि की तमाम बीमारियों का रामबाण इलाज बताया जा रहा है। सरकार प्रचारित कर रही है कि इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी, बिचौलिये खत्म होंगे और उपभोक्ताओं को कम कीमत में सामान मिलेगा। साथ ही कृषि उपज की आपूर्ति में होने वाली बर्बादी पर अंकुश लगेगा। यह सब झूठ है। यह दोषपूर्ण नीति लागू करने के बाद उद्योग जगत तथा नीति निर्माताओं द्वारा सुविधाजनक बहाना है। यह जानने-समझने के लिए कि रिटेल में एफडीआइ का भारतीय कृषि पर क्या प्रभाव पड़ेगा, हमें यूरोप और अमेरिका के उदाहरणों पर नजर डालनी होगी।



Read:पानी में बहता सिंचाई योजनाओं का धन


अमेरिका में वालमार्ट की शुरुआत करीब 50 साल पहले हुई थी। इस दौरान बड़ी संख्या में किसान गायब हो चुके हैं, गरीबी बढ़ गई है और इसी साल भुखभरी ने 14 सालों का रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिया है। नि:संदेह कोई भी देश फिर वह चाहे भारत हो, अमेरिका या फिर जापान, अपने किसानों तथा गरीबों को सब्सिडी देना पसंद नहीं करेगा। भारत में राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी घटाने की मांग हो रही है। इसी उद्देश्य से सरकार ने तेल के दामों में कई बार बढ़ोतरी करके सब्सिडी का भार आम आदमी के सिर पर डाल दिया है। यही नहीं सरकार ने यूरिया को छोड़कर अन्य खादों से भी नियंत्रण हटा लिया है। इस प्रकार कृषि को मिलने वाली सब्सिडी में सरकार भारी कटौती कर रही है।


अमेरिका भी कोई अपवाद नहीं है। अगर वालमार्ट इतनी ही किसानों की हितचिंतक है तो फिर अमेरिका कृषि क्षेत्र में साल दर साल भारी सब्सिडी क्यों उडे़ल रहा है? अमेरिका में 2008 में पारित हुए कृषि बिल में पांच वर्षो के लिए 307 अरब डॉलर यानी करीब 15,50,000 करोड़ रुपये की भारी-भरकम रकम का प्रावधान किया गया है। 2002-09 के बीच अमेरिका किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता के रूप में 13 लाख करोड़ रुपये दे चुका है। विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में अमेरिका ने इस सब्सिडी की जोरदार पैरवी की है और इनमें कटौती से साफ इन्कार कर दिया है। 30 धनी देशों के ओइसीडी समूह ने 2008 की तुलना में 2009 में कृषि सब्सिडी में 22 फीसदी की बढ़ोतरी की है, जबकि 2008 में भी इसमें 21 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। 2009 में इन देशों ने 12.60 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी किसानों को दी थी। तथ्य यह है कि दिग्गज रिटेल चेन के होते हुए यूरोप के किसान बिना सरकारी सहायता के जिंदा नहीं रह सकते। क्या इससे पता नहीं चलता कि यूरोप-अमेरिका में उच्च कृषि आय बड़ी रिटेल चेन के बजाय सरकारी सब्सिडी के कारण है? असल में पूरी दुनिया में यूरोप कृषि को सहायता देने में सबसे आगे है।


यूरोप में हर गाय पर करीब दो सौ रुपये की सहायता मिलती है, जबकि भारत में किसान एक गाय से रोजाना 40-50 रुपये ही कमा पाता है। इससे एक सवाल खड़ा होता है कि अगर किसानों की आमदनी में वृद्धि नहीं हो रही है तो बड़ी रिटेल चेन बिचौलियों को कैसे खत्म कर रही हैं? इसका जवाब यह है कि जो कुछ प्रचारित किया जा रहा है उसके विपरीत बड़ी रिटेल चेन बिचौलियों को खत्म नहीं कर रही हैं। उदाहरण के लिए वालमार्ट खुद एक बिचौलिया है-एक बड़ा बिचौलिया जो तमाम छोटे बिचौलियों को हड़प जाता है। असल में बड़ी रिटेल चेन में बिचौलियों की पूरी श्रृंखला होती है। इनमें गुणवत्ता नियंत्रक, मानकीकरण करने वाले, प्रमाणन एजेंसी, प्रसंस्करण कर्ता आदि बिचौलियों के ही नए रूप हैं। केवल अमेरिका में ही नहीं, यूरोप में भी किसानों की संख्या लगातार घटती जा रही हैं। वहां हर मिनट औसतन एक किसान खेती को तिलांजलि दे रहा है। अगर बड़े रिटेलों के कारण किसानों की आमदनी बढ़ती है तो मुझे कोई कारण नजर नहीं आ रहा कि किसान खेती क्यों छोड़ रहे हैं? इस बात के भी कोई साक्ष्य नहीं हैं कि बड़े रिटेलर उपभोक्ता को कम दामों में सामान मुहैया कराते हैं।


लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में बड़े रिटेलर उपभोक्ताओं से खुले बाजार की तुलना में बीस से तीस प्रतिशत अधिक वसूल रहे हैं। अमेरिका और यूरोप में बड़े रिटेल स्टोरों में खाद्य पदार्थ इन स्टोरों के परोपकार के कारण सस्ते नहीं हैं। दरअसल, यहां विशाल सब्सिडी के कारण घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट आ जाती है और अमेरिका व यूरोप, दोनों ही खाद्य पदार्थो तथा अन्य कृषि उत्पादों को भारी सब्सिडी देने के लिए जाने जाते हैं। उदाहरण के लिए 2005 में अमेरिका ने अपने कुल 20,000 कपास उत्पादक किसानों को करीब 25,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी थी, जबकि इस कपास का मूल्य करीब 20,000 करोड़ रुपये ही था। इस सब्सिडी के कारण कॉटन का बाजार मूल्य करीब 48 फीसदी कम हो जाता है। इसी प्रकार खाद्य पदार्थो पर सब्सिडी दी जाती है। अमेरिका में वालमार्ट की तरह ही कारगिल व एडीएम जैसी अन्य व्यावसायिक कंपनियां बड़े स्तर पर कृषि उपजों का भंडारण करती हैं। मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि वालमार्ट, टेस्को और सेंसबरी जैसी कंपनियां उचित रूप से अन्न का भंडारण सुनिश्चित करती हैं।


मनमोहन सिंह कहते हैं कि रिटेलर उचित खाद्य भंडारण सुनिश्चित करते हैं, लेकिन इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं। खाद्यान्न का भंडारण सरकार का काम है, किंतु दुर्भाग्य से भारत में कभी खाद्यान्न भंडारण के काम को प्राथमिकता पर नहीं लिया गया। खुले में गेहूं सड़ रहा है और करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। भारत में हमें अमूल के उदाहरण से सबक लेना चाहिए, जिसने जल्दी खराब हो जाने वाले दुग्ध उत्पादों को लंबी दूरी तक ले जाने की अत्याधुनिक आपूर्ति चेन विकसित की। हमें अमूल से सीखना चाहिए। अब जरा इस दावे पर गौर करें कि बड़ी रिटेल कंपनियों के आने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। मनमोहन सिंह ने कहा है कि बड़ी रिटेल कंपनियां भारत में एक करोड़ रोजगार सृजित करेंगी। न जाने वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गए? अंतरराष्ट्रीय साक्ष्यों से पता चलता है कि बड़े रिटेलर रोजगार बढ़ाने के स्थान पर कम कर देते हैं।


वाल-मार्ट का कुल व्यापार 450 अरब डॉलर है। संयोग से भारत का रिटेल मार्केट भी 420 अरब डॉलर से कुछ अधिक है। जहां वाल-मार्ट ने कुल 21 लाख लोगों को रोजगार दिया है, वहीं भारत में रिटेल क्षेत्र में 1.20 करोड़ दुकानों में 4.4 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वाल-मार्ट अतिरिक्त रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं कराएगी, बल्कि करोड़ों लोगों का रोजगार छीन लेगी। निश्चित तौर पर भारत को अपने रिटेल क्षेत्र का आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि रिटेल बाजार को विदेशी खिलाडि़यों के हवाले कर दिया जाए और वह भी किसानों के नाम पर।


लेखक दविंदर शर्मा कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं


Read:शास्त्री जी की मौत का रहस्य


Tag:FDI, Cultivation, cotten, India, Europe, America, Dollar, Wall mart, Manmohan Singh, एफडीआइ, यूरोप, सब्सिडी, ओइसीडी, रिटेल, वालमार्ट, किसान, कपास, टेस्को, भारत, अरब डॉलर

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh