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पानी में बहता सिंचाई योजनाओं का धन

जागरण मेहमान कोना
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2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदान आवंटन के बाद अब महाराष्ट्र का सिंचाई घोटाला सरकार के गले की हड्डी बन गया है। वैसे तो इस घोटाले का संबंध महाराष्ट्र सरकार से है, लेकिन चूंकि महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की गठबंधन सरकार है और केंद्र में एनसीपी सरकार में शामिल है, इसलिए इसकी तपिश दिल्ली तक महसूस की जा रही है। कई राजनीतिक विश्लेषक इसे केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार और उनके भतीजे व महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार के बीच राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई के रूप में देख रहे हैं। इस राजनीतिक उठापटक के चाहे जो परिणाम निकलें, लेकिन इसने सिंचाई के नाम पर देश भर में बहाए जाने वाले हजारों करोड़ रुपये के भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया।


दिखावटी सुधारों की समस्या


Ramesh Dubey

भले ही अजीत पवार अपने पद से इस्तीफा देकर अपने बचाव में सफाई दे रहे हों, लेकिन इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनके कार्यकाल में सिंचाई परियोजनाओं को ताबड़तोड़ मंजूरी दी गई। गौरतलब है कि 1999 से 2009 के बीच एक दशक तक जल संसाधन मंत्री रहे अजीत पवार ने 2009 के महज तीन महीनों में ही विदर्भ सिंचाई विकास निगम (वीआइडीसी) की संचालन परिषद की मंजूरी के बिना 25,834 करोड़ रुपये की 32 सिंचाई परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। यह मंजूरी परियोजनाओं को नियमों के मुताबिक विचार-विमर्श और स्वीकृति के लिए संचालन परिषद के सामने रखे बिना दी गई। यह भी आरोप है कि निविदाओं को बढ़ी हुई दरों पर मंजूर किया गया।


यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जो सरकारी मशीनरी अपनी सुस्ती और काहिली के लिए कुख्यात है, वह इतनी रफ्तार कैसे पकड़ ली? इन परियोजनाओं को आनन फानन मंजूरी देने की खबर सामने आने के बाद सीएजी ने मामले में ऑडिट करना शुरू कर दिया। कहीं सूखे खेत, कहीं हरी तिजोरी महाराष्ट्र में सिंचाई घोटाले की आहट उसी समय सुनाई देने लगी थी, जब राज्य सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया कि पिछले एक दशक में सिंचाई योजनाओं पर 70,000 करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद सिंचाई क्षमता में महज 0.1 फीसद की ही बढ़ोतरी हुई। इससे पहले जल संसाधन विभाग के मुख्य इंजीनियर विजय पांढरे ने राज्यपाल को खत लिखकर बताया था कि विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं पर अमल के दौरान करीब 60,000 करोड़ रुपये का भ्रष्टाचार हुआ है। इसी को देखते हुए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने सिंचाई का लेखा-जोखा करने के लिए श्वेतपत्र जारी करने का ऐलान किया। चूंकि पिछले बारह साल से सिंचाई विभाग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के पास है, इसलिए कांग्रेस और एनसीपी के बीच श्वेतपत्र की राजनीति शुरू हो गई। सिंचाई मंत्री अजीत पवार ने आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों को झुठलाते हुए कहा कि पिछले दस साल में 12 लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन सिंचाई के अधीन कवर हुई है।


दूसरी ओर एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने श्वेतपत्र का समर्थन किया। यहीं से शरद पवार और अजीत पवार के बीच राजनीतिक जोड़तोड़ की शुरुआत हो गई। इस साल राज्य में पड़े भयानक सूखे ने भी सिंचाई भ्रष्टाचार को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह कहा जाने लगा कि यदि राज्य सरकार अपनी सभी परियोजनाओं को समय से पूरा कर लेती तो आज पूरा राज्य हरा-भरा और खुशहाल होता। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि महाराष्ट्र में सैकड़ों सिंचाई परियोजनाएं पिछले 30 वर्षो से निर्माणाधीन अवस्था में हैं। इसका कारण है कि हर विधायक और सांसद को खुश करने के लिए अधूरी योजनाओं को पूरी करने के बजाय नई योजना के लिए पैसा बांटा जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि बांध तो बन जाते हैं, लेकिन खेतों में पानी पहुंचाने के लिए नहर कहीं नहीं दिखाई देती। यही कारण है कि हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद सिंचित क्षेत्र में विस्तार नहीं हो पाया। फिर पुरानी योजनाओं को पूरा किए बिना नई योजनाएं शुरू करने से पुरानी योजनाओं को पूरा करने का खर्च बढ़ता जाता है। उदाहरण के विदर्भ क्षेत्र में गोसेखुर्द सिंचाई परियोजना करीब 22 साल पहले शुरू की गई थी। तब इस परियोजना की लागत 450 करोड़ रुपये आंकी गई थी, लेकिन आज भी इसे पूरा नहीं किया जा सका है और अब इसकी लागत 17,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हो गई है। इसी तरह कोंकण क्षेत्र में तालंबा बांध परियोजना का काम 1979 में शुरू किया गया था, उस समय इसकी लागत 120 करोड़ रुपये थी। आज भी इसे पूरी तरह से बनाया नहीं जा सका और अब इसे पूरा करने के लिए 4,000 करोड़ रुपये की जरूरत है।


आरटीआइ से मिली जानकारी के अनुसार इस समय महाराष्ट्र में 70 बड़ी, 181 मध्यम तथा 1125 लघु सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने का काम चल रहा है। इसमें से अनेक परियोजनाएं 20 वर्षो से अधिक समय से लटकी पड़ी हैं और इनका बजट हर साल बढ़ता ही जा रहा है। इसके परिणाम स्वरूप जहां ठेकेदार और नेता मालामाल हो रहे हैं, वहीं जनता पर सूखे का प्रकोप बढ़त ही जा रहा है। सरकारी धन की यह लूट कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में प्रति हेक्टेयर 9.81 लाख रुपये सिंचाई मद पर खर्च हो रहे हैं, जो देश में सर्वाधिक है। आओ, इनसे सीखें जहां एक ओर देश के कई राज्यों में सिंचाई परियोजनाएं भ्रष्टाचार का पर्याय बनी हैं, वहीं मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल के सैकड़ों किसान स्थानीय और छोटे स्तर के उपाय करके पानी की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के देवास जिले के किसानों ने सरकारी स्तर पर जलापूर्ति का इंतजार करने के बजाय खुद अपने दम पर अपनी ही जमीनों पर कुएं और तालाब खोदने का काम करने लगे। इनमें आने वाली लागत को वह आपस में बांट लेते हैं। बाद में उन्हें राज्य सरकार और कई गैर सरकारी संगठनों से भी मदद मिलने लगी। इसका नतीजा यह निकला कि देवास जिले में किसानों ने चार साल में ही अपनी ही जमीनों पर 7000 जल स्त्रोत बना डाले। जल संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए कई किसानों ने नलकूपों का बड़े धूम-धाम से अंतिम संस्कार भी किया। बदलते मौसम चक्र, वैश्विक तापवृद्धि, पिघलते ग्लेशियर, सिंचाई और पेयजल के लिए पानी की किल्लत आदि का देखते हुए यह समय की मांग है कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की जगह छोटी-छोटी योजनाओं और जल संरक्षण के परंपरागत साधनों को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए।


बड़ी परियोजनाओं पर लगने वाली हजारों करोड़ की धनराशि जब तालाबों, वाटरशेड विकास, कुओं, जोहड़ों आदि पर खर्च होगी तो उससे सिंचाई का तेजी से विस्तार होगा। इनसे न तो बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है और न ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। फिर ये शीघ्रता से तैयार होती हैं और इनकी रखरखाव लागत भी बहुत कम आती है। सबसे बढ़कर इन पर समाज का नियंत्रण रहता है, जिससे सरकार पर निर्भरता कम होती है। यदि इस प्रकार के प्रयास पूरे देश में हों तो सही मायने में सिंचाई का विस्तार होगा और कृषि उत्पादन में वृद्धि होगी। जल संरक्षण और सिंचाई योजनाओं की लंबी कतार लगी होने के बावजूद महाराष्ट्र में पड़े सूखे के कारण मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण भी मौजूदा योजनाओं के विकल्प के बारे में सोचने लगे हैं। उन्होंने स्वीकार भी किया कि करोड़ों रुपये की लागत से बड़े-बड़े बांध बनाकर नहरें निकालने का मॉडल बंद करने का वक्त आ गया है। उनके मुताबिक गुजरात ने छोटे-छोटे बांध बनाकर सिंचाई योजनाएं शुरू की हैं, जिससे वहां 50 फीसद भूमि की सिंचाई इसी से हो रही है, जबकि महाराष्ट्र में यह अनुपात महज 18 फीसद है।


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लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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