Menu
blogid : 5736 postid : 7036

साइबर दुनिया में जासूसी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) द्वारा संचालित खुफिया निगरानी कार्यक्रम ‘प्रिज्म’ के खुलासे के बाद दुनिया के कई मुल्क साइबर दुनिया में अपनी निजता को लेकर आशंकित और चिंतित हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस मामले पर हैरानी और चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि यदि इस कार्यक्रम के तहत भारतीय निजता कानूनों का उल्लंघन हुआ है तो यह अस्वीकार्य है। यूरोप के कई देश अमेरिका की इस खुफिया बाजीगरी से नाराज हैं। ऐसा नहीं है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी और संघीय जांच एजेंसी ने साइबर दुनिया में जासूसी का काम अभी शुरू किया है, लेकिन अति गोपनीय ‘प्रिज्म’ के बाबत खुलासे ने साफ कर दिया कि साइबर दुनिया की नौ बड़ी कंपनियां बाकायदा जांच एजेंसियों की साङोदार हैं।


Cyber Law साइबर कानून

ब्रिटिश और अमेरिकी समाचार पत्रों ने बीते हफ्ते इस सनसनीखेज खुलासे को सार्वजनिक किया। रिपोर्ट के मुताबिक प्रिज्म पर हर साल 20 लाख डॉलर से ज्यादा खर्च करने में अमेरिकी सरकार को परहेज नहीं है। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रिज्म के तहत एनएसए माइक्रोसॉफ्ट, याहू, गूगल, फेसबुक, पालटॉक, एओएल, स्काइप, यूट्यूब और एपल के सर्वरों से सीधे सूचनाएं हासिल कर रही है। बीते शुक्रवार को यह खुलासा हुआ कि ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी जीसीएचक्यू भी अमेरिकी ऑपरेशन का हिस्सा है।1प्रिज्म की शुरुआत पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के वारंटमुक्त घरेलू निगरानी कार्यक्रम की राख से हुआ, जिसे 2007 में मीडिया ने सार्वजनिक कर दिया था। इसके बाद 2007 के प्रोटेक्ट अमेरिका एक्ट और फीसा (फॉरेन एंटेलिजेंस सर्विलेंस एक्ट) अमेंडमेंट एक्ट 2008 के साए में प्रिज्म का जन्म हुआ।

Cyber Law साइबर कानून

रिपोर्ट के मुताबिक बिल गेट्स की माइक्रोसॉफ्ट सबसे पहले 11 सितंबर 2007 को इस कार्यक्रम का हिस्सा बनी। इसके बाद याहू, गूगल, फेसबुक आदि। सबसे आखिर में यानी अक्टूबर 2012 में एपल इस कार्यक्रम में शामिल हुई। अमेरिकी जासूसी के खुलासे के बाद गूगल, फेसबुक और याहू समेत सभी नौ कंपनियों ने खुफिया कार्यक्रम को लेकर अपनी अज्ञानता जाहिर की है। उन्होंने बयान जारी कर कहा है कि वे अपने उपभोक्ताओं की सूचनाओं को किसी एजेंसी के साथ साझा नहीं करतीं, लेकिन क्या यह माना जा सकता है? अमेरिकी खुफिया एजेंसी संभावित आतंकवादी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए प्रिज्म को आवश्यक मान रही हैं, लिहाजा क्या इस घटनाक्रम के कूटनीतिक, राजनीतिक और तकनीकी निहितार्थ नहीं खोजे जाने चाहिए? पहला सवाल तो संदेह के घेरे में आईं गूगल-फेसबुक जैसी कंपनियों की मंशा का है कि क्या वे उपयोगकर्ताओं की सूचनाओं को लेकर सतर्क हैं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि प्रिज्म के बाबत खुलासे से दो साल पहले ‘विकीलीक्स’ के संस्थापक जूलियन असांजे ने एक साक्षात्कार में कहा था कि फेसबुक अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन जासूसी मशीन है। असांजे ने कहा था, सिर्फ फेसबुक ही नहीं, बल्कि गूगल और याहू जैसी तमाम बड़ी कंपनियों ने अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए ‘बिल्ट-इन इंटरफेस’ निर्मित कर दिए हैं। साल 2011 में अमेरिकी कंज्यूमर वाचडॉग ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा था कि गूगल एनएसए के साथ अनुचित खुफिया रिश्ते निभा रहा है और इसका लाभ उसे मिल रहा है। 1यह छिपी बात नहीं है कि एनएसए इंटरनेट की बड़ी कंपनियों को अपने साथ लेने की कोशिश करती रही है।



Cyber Law साइबर कानून


नेट कंपनियों को ‘फीसा’ के तहत छूट है कि वे इस तरह की मदद करने पर कानूनी झंझटों में नहीं फंसेंगी, लेकिन इस खुलासे ने कठघरे में आई कंपनियों के सामने साख का संकट खड़ा कर दिया है। सामूहिक निगरानी एक लिहाज से वैश्विक नागरिक अधिकार का उल्लंघन है और अब फेसबुक-गूगल जैसी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी साख बचाने के लिए अमेरिकी सरकार से पारदर्शिता की मांग करनी होगी। निश्चित तौर पर अमेरिकी सरकार आतंकवादी गतिविधियों के खतरे की आशंका के मद्देनजर प्रिज्म अथवा इसी तरह के दूसरे कार्यक्रम लगातार जारी रखेगी। फिलहाल, प्रिज्म के बाबत खुलासे के कुछ निहितार्थ अवश्य हैं। पहला, अमेरिका को अब कई मुल्कों को इस बाबत जवाब देना पड़ेगा और अपनी कूटनीतिक चतुराई को स्पष्ट करना होगा। सिलिकॉन घाटी की कई इंटरनेट कंपनियां अब दूसरा ठिकाना खोज सकती हैं, जो इस आशंका से भयभीत हैं कि उनका व्यवसाय इस बात से प्रभावित हो सकता है कि वे सरकार के निकट हैं। प्रिज्म कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए प्रभावित हो सकता है।

Cyber Law साइबर कानून


इसके अलावा फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों के क्षेत्रीय स्तर पर कुछ विकल्प उभर सकते हैं।1फिलहाल एक सवाल भारत समेत दुनिया के कई मुल्कों के इंटरनेट यूजर्स का है, जिनकी महत्वपूर्ण जानकारियों पर अमेरिकी नज़र है। चीन की तरह भारत के पास गूगल से लेकर ट्विटर जैसी साइट्स का कोई शानदार विकल्प नहीं है। भले भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों का बड़ा योगदान इन साइट्स को बनाने में है, लेकिन इंटरनेट की दुनिया में भारतीय कंपनियां पिछड़ी दिखती हैं। सूचना तकनीक के क्षेत्र में झंडे गाड़ रही अधिकांश भारतीय कंपनियां मूलत: सॉफ्टवेयर निर्यातक कंपनियां हैं। ऐसे में अहम प्रश्न है कि क्या भारतीय यूजर्स को अपनी निजता से समझौता करना ही होगा। इंटरनेट पर बहुत हद तक अभी भी अमेरिकी नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं। वे मूलत: वहां के कानूनों से संचालित होती हैं, लिहाजा सवाल भारत व अन्य देशों का है कि वे साइबर दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं। वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का एक सिरा अधिकाधिक सूचनाओं की उपलब्धता से जुड़ता है और अमेरिका इस खेल में सबसे आगे है। अमेरिका चीन पर साइबर हमले का आरोप लगाता है, लेकिन विदेशी मुल्कों की सूचनाएं चुराने वाली वाली अपनी ‘साइबर सेना’ पर खामोश रहता है।


इस आलेख के लेखक पीयूष पांडे हैं

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh