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काबिले तारीफ है भारत का रुख

जागरण मेहमान कोना
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Rajeev Ranjanतिब्बती आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा के विरोध में चीन कई अहम मुद्दों पर बड़े-बड़े कदम उठा लेता है, पर अंतत: उसे हार माननी पड़ती है। इसके एक नहीं, तमाम उदाहरण हैं। फिलहाल ताजा प्रकरण को ही लें तो स्पष्ट हो जाएगा कि तमाम कोशिशों के बावजूद भारत में चीन की एक नहीं चली और उसे दलाई लामा मसले पर चारो खाने चित होना पड़ा। संतोष की बात यह भी है कि अक्सर भारत से पंगा लेने की फिराक में रहने वाले चीन को भारतीय राजनयिक नीति से यह संदेश मिल गया है कि वह चीन की बंदरघुड़की से डरने वाला नहीं है। स्वाभाविक है, दलाई लामा से चीन नाराज है। वह दलाई लामा को पृथकतावादी मानता है और दलाई लामा उसे फूटी आंखों नहीं सुहाते, यह उसका (चीन) मसला है। चीन की इस चिंता से भारत को कोई लेना-देना नहीं है। यह सही भी है। पिछले दिनों दिल्ली में हुए अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन के मद्देनजर चीन ने भारत से कहा था कि वह दिल्ली में इस आयोजन को न होने दे। खासकर चीन उसे कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता, जो दलाई लामा को मंच उपलब्ध कराता है। भारत ने चीन के उस ऐतराज को भी नजरंदाज कर दिया, जिसमें उसने कहा था कि दिल्ली के सम्मेलन में दलाई लामा को शिरकत न करने दिया जाए। फलस्वरूप में आखिरी वक्त में भारत-चीन के बीच होने वाली सीमा वार्ता टल गई थी।


चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग ली ने कहा था कि दलाई लामा शुद्ध रूप से धार्मिक नेता नहीं हैं, बल्कि वह धर्म की आड़ लेकर लंबे समय से अलगाववादी गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं। हांग ली ने बीजिग में कहा कि कोई भी देश जो चीन विरोधी गतिविधियों के लिए किसी भी रूप में मंच उपलब्ध कराता है, हम उसका विरोध करते हैं। हांग का यह बयान उस समय आया, जब बौद्ध सम्मेलन में दलाई लामा के शरीक होने को लेकर चीन ने 28 और 29 नवंबर को होने वाली अपनी 15वें दौर की सीमा वार्ता स्थगित कर दी। वहीं, नई दिल्ली में दलाई लामा के मुख्य प्रतिनिधि तेम्पा जेरिंग ने कहा कि सम्मेलन का उद्देश्य बौद्ध दर्शन पर चर्चा करने के लिए बौद्ध विद्वानों को एकजुट करने के सिवाय और कुछ नहीं है। चीन की आपत्ति पर उन्होंने कहा कि भारत एक मुक्त लोकतांत्रिक समाज है, जबकि चीन एक अवरुद्ध समाज है। यही कारण है कि वह पीडि़त मनोदशा से युक्त होकर प्रतिक्रिया दे रहा है। बहरहाल, दलाई लामा ने बौद्ध सम्मेलन में शिरकत की, लेकिन कोई राजनीतिक बयान नहीं दिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि दलाई लामा के किसी भी समारोह में शामिल होने को लेकर चीन ने आपत्ति जताई हो, लेकिन भारत ने अपना पक्ष हमेशा से स्पष्ट रखा है कि दलाई लामा किसी भी प्रकार के धार्मिक समारोह में शामिल होने को लेकर स्वतंत्र हैं।


चीन दलाई लामा को एक खतरनाक पृथकतावादी मानता है, जो तिब्बत को चीन से अलग करना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने बार-बार कहा है कि उनका मकसद तिब्बत को ज्यादा स्वायत्तता दिलवाना है, आजादी नहीं। इसके अलावा चीन की बात अनसुनी करते हुए कई भारतीय नेताओं ने 1 दिसंबर को कोलकाता में हुए मदर टेरेसा जयंती समारोह में दलाई लामा के साथ हिस्सा लिया। इस समारोह में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एमके नारायणन, तृणमूल कांग्रेस के विधायक डेरेक ओ ब्रायन भी शामिल हुए। इससे पूर्व कोलकाता में चीनी वाणिज्य दूतावास के अधिकारियों ने राज्य सचिव को एक पत्र सौंपा था। इस पत्र में उन्होंने पश्चिम बंगाल सरकार के नेताओं और अधिकारियों से इस कार्यक्रम में शामिल न होने का आग्रह किया था। बता दें कि वर्ष 1949 में चीन द्वारा तिब्बत पर हुए हमले के बाद 1959 में पं. जवाहर लाल नेहरू की सहायता से दलाई लामा और लाखों शरणार्थियों ने भारत आकर तिब्बत की निर्वासित सरकार का गठन किया। तब से यह सरकार धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में ही स्थापित है। यह दलाई लामा का नेतृत्व ही है, जिसने तिब्बत में चीनी दमन के खिलाफ चल रहे आंदोलन को हिंसक नहीं होने दिया है। लेकिन चीन उनकी गतिविधियों को हमेशा संदिग्ध मानता है और जो भी दलाई लामा की मदद करता है, वह उसे भी अपना दुश्मन मानने लगता है। बहरहाल, भारत ने चीन की चिंताओं और चेतावनियों को दरकिनार कर यह स्पष्ट कर दिया है कि हम किसी भी कीमत पर चीन के दबाव में नहीं आने वाले।


इस आलेख के लेखक राजीव रंजन तिवारी हैं


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