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फेसबुक पर मेरी फ्रेंड लिस्ट में शामिल डॉ: कविता वाचकनवी की एक पोस्ट सीधे दिल को बींध रही थी-सब अभागी माओं और अभागी बेटियों की ओर से विदा, मेरी बच्ची! जैसे-जैसे वक्त खिसक रहा था, संवेदनाओ का सैलाब ऊफन रहा था।
मेरे लिए यह सिर्फ पोस्ट नहीं थी, बल्कि पूरे देश को बिलबिलाने पर मजबूर करने वाले दर्द की बानगी थी। दर्द उस युवती के साथ हुई दरिंदगी और उसकी मौत को लेकर था, जिसे सरकार ने दिल्ली से सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में शिफ्ट कर दिया था। मैंने न तो विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया और ना ही कैंडल मार्च निकाला।
हां, इसको लेकर एक खामोश और अनदिखी बेचैनी झेलता रहा हूं। क्योंकि वह मेरे लिए सबसे पहले गृह जनपद बलिया की बेटी थी। लोग पूछते थे क्या आपके जिले की है और मैं खामोश रह जाता। मन ही मन में दुष्कर्मियों के लिए तालिबान जैसी सजा तजवीज करता रहता ।
खुद को सांत्वना भी देता रहा कि वह इस पूरे देश की बेटी थी। इसलिए तो उसके साथ हुई हैवानियत ने देश को पहली बार इस अंदाज में झकझोरा है जिसकी कयादत कोई नहीं कर रहा है। फिर भी एतिहासिक है। इस हादसे का दुखद पहलू यह भी रहा है कि जनाक्रोश से भय तो दुष्कर्मियों और उनकी जैसी मानसिकता वालों में होनी चाहिए थी। लेकिन डरी रही सरकार।
यही वजह रही है कि किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में सरकार ने कई कदम उठाए जो अब सवालों के घेरे में है। युवती को बेहतर इलाज के लिए विदेश भेजने के संकेत दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने करीब एक हफ्ते पहले ही दिए थे। लेकिन अमल काफी बाद में हुआ। इस विलंब के पीछे वजह क्या रही है, एक अहम सवाल है। दिल का दौरा पड़ने के बाद करीब पांच घंटे के हवाई सफर की दुश्वारियां झेलते हुए सिंगापुर भेजने को नामचीन डॉक्टर भी बेतुका बता रहे हैं। सर गंगाराम अस्पताल में सर्जिकल गेस्ट्रोइंटेरोलॉजी एवं अंग प्रत्यारोपण संकाय के चेयरमैन समीरन नंदी के मुताबिक दिल का दौरा पड़ने के बाद युवती को सिंगापुर भेजने के पीछे सरकार की लॉजिक क्या रही है, यह समझ से परे है। पहले उसकी स्थिति सामान्य होने देनी चाहिए थी। उसके बाद आंत के प्रत्यारोपण के बारे में सोचा जाता। सरकार का यह फैसला उस हायतौबा वाली स्थित के लिए भी जिम्मेदार है, जब सिंगापुर ले जाने के दौरान 30 हजार फिट की ऊंचाई पर युवती की नब्ज डूबने लगी थी। आशंका तभी सिर उठाने लगी थी कि अब बचना मुश्किल है। आम तौर पर ऐसे हादसों के बाद पीडि़ता जीने की उम्मीद छोड़ देती हैं। लेकिन वह जीना चाहती थी-हादसे के बाद जब उसके भाई और मां पहली बार 19 दिसंबर को मिले थे तो उसने कहा था-मैं जीना चाहती हूं। उसकी यह ख्वाहिश कम से कम मुझे तो पूरी दिखाई दे रही है। यह दीगर बात है कि अब हमारे बीच सदेह नहीं है। लेकिन उसकी मौजूदगी हमारी संवेदनाओं में हमेशा के लिए जीवित रहेगी। नराधमों के खिलाफ आवाज बनकर। कुंभकर्ण जैसी नींद में सोती सरकार को सपने में आकर जगाती रहेगी।
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