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उच्च शिक्षा में उल्लेखनीय पहल

जागरण मेहमान कोना
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Niranjan Kumarदिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा स्नातकीय पाठ्यक्रम में किए गए बदलावों का स्वागत कर रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार


बारहवीं की परीक्षा के विभिन्न बोर्ड के परिणाम आने शुरू हो गए हैं। दूसरी तरफ विश्वविद्यालयों ने स्नातक में प्रवेश-प्रक्रिया की तैयारी शुरू कर दी है। औपनिवेशिक विरासत की देन भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली, दुर्भाग्यवश आज भी ब्रिटिश पद्धति पर आधारित है। स्नातक स्तर की शिक्षा, उच्च शिक्षा का आरंभिक सोपान है और इसलिए बहुत ही अहम भी है। आज इस त्रिवर्षीय स्नातकीय शिक्षा व्यवस्था में एक आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। इस दिशा में सुधार का बिगुल बजाते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) ने 2013-14 से नवोन्मेषी स्नातकीय पाठ्यक्रम शुरू करने की घोषणा की है, जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। भारत में स्नातक अर्थात बीए, बीएससी, और बीकॉम या अन्य समतुल्य डिग्री ही वह न्यूनतम अर्हता है जिसके आधार पर कोई आइएएस से लेकर बैंक ऑफिसर अथवा असिस्टेंट तक के रोजगार के लिए योग्य हो जाता है। यह समझा जाता है कि स्नातक उत्तीर्ण व्यक्ति विभिन्न जिम्मेदारियों का वहन करने में सक्षम और समर्थ है। जबकि सच्चाई कुछ और है। एक उदाहरण से समझा जाए कि अगर किसी विद्यार्थी के बीए में संस्कृत, दर्शनशास्त्र और मनोविज्ञान विषय हों या फिर वह बीएससी पास हो, तो वह किस तरह से एक सफल बैंक ऑफिसर या पुलिस सब-इंस्पेक्टर या प्रशासनिक ऑफिसर बनने के काबिल हो जाएगा? यह ठीक है कि वह प्रवेश परीक्षा से चयनित होकर आ रहा है, लेकिन सवाल उठता है कि संस्कृत और दर्शनशास्त्र या भौतिकी या जीव विज्ञान जैसे ऐच्छिक विषयों में बहुत अच्छे अंक लाकर अगर कोई इन परीक्षाओं में सफल हो जाए, तो क्या उसे उस सेवा का भी श्रेष्ठ उम्मीदवार समझा जाए? फिर, ऐसे व्यक्ति सामान्य जीवन में भी एक संतुलित और जिम्मेदार व्यक्तित्व के रूप में उभर नहीं पाते हैं। स्नातक स्तर पर विज्ञान, कला या कॉमर्स आदि के अध्ययन से सिर्फ एक ही वर्ग में अच्छा ज्ञान मिल सकता है।


शिक्षा का अधूरा अधिकार


एक सामान्य व्यक्ति को दैनिक जीवन में कुछ और चीजों की भी आवश्यकता होती है। उसे पर्यावरण, स्वास्थ्य, राजनीतिक जीवन, पुलिस-कानून, आर्थिक परिस्थितियों, सांस्कृतिक समन्वय, इतिहास जैसे चीजों से रूबरू होना पड़ता है। इनके बारे में एक स्नातक व्यक्ति को सम्यक ज्ञान नहीं होता, चाहे वह किसी भी वर्ग का हो। इसको एक अन्य उदाहरण से यूं समझें कि उपरोक्त विषयों में से किसी भी एक से स्नातक व्यक्ति को अगर पुलिस किसी बात के लिए परेशान करे तो उसे पता ही नहीं कि उसके क्या अधिकार हैं। यहां तक कि हिंदी या अर्थशास्त्र या गणित के एक प्राध्यापक को भी संभवत: पता नहीं होगा कि उसके कानूनी अधिकार क्या हैं, या एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते पर्यावरण रक्षा के लिए क्या करना या क्या नहीं करना जरूरी है। शायद उपरोक्त बिंदुओं के मद्देनजर ही डीयू ने स्नातक संबंधी प्रणाली को तीन वर्षीय कार्यक्रम की जगह चार वर्षीय किया है, जहां आरंभिक वर्ष में सभी विद्यार्थीयों को कुछ अनिवार्य विषय पढ़ने होंगे, जैसाकि अमेरिका, कनाडा आदि देशों में भी है।


अमेरिका में इसे कोर करिकुलम कहते हैं। उदाहारण के लिए विश्व के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों में से एक यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में पंद्रह कोर कोर्सेस हैं। इसी तरह हार्वर्ड या कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने-अपने कोर कोर्सेस हैं। यहां बता देना उचित होगा कि साइंस वालों को यहां सिर्फ साइंस के विषय ही नहीं, बल्कि अन्य विषयों का भी अध्ययन करना होता है। मिसाल के तौर पर अमेरिका की ही सेंट लुईस यूनिवर्सिटी में साइंस के छात्रों को भी इतिहास, साहित्य, कला, सामाजिक विज्ञान, संस्कृति के कोर्स पास करने पड़ते हैं। यही नहीं, इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करने के लिए भी कला, मानविकी या सामाजिक विज्ञान के कुछ कोर्स उत्तीर्ण करने पड़ते हैं। उसी तरह कला या साहित्य से ऑनर्स करने वालों को गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के कोर्स भी पास करने होते हैं। इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी चाहे जिस विषय से ऑनर्स करे, समाज और जीवन के बारे में उसे एक अच्छी और संतुलित जानकारी हो जाती है, जिससे वह एक जिम्मेदार सामाजिक व्यक्ति बनकर उभरता है।


डीयू द्वारा 2012-13 से मानविकी में बीटेक के नवोन्मेषी चार वर्षीय मेटा कॉलेज पाठ्यक्रम के प्रस्ताव को इसी आलोक में समझा जाना चाहिए। जिसमें छात्रों को न केवल विभिन्न वगरें से विषय चुनने का अवसर होगा, बल्कि उन्हें डीयू के विभिन्न कॉलेजों में जाकर पढ़ने की भी अनुमति होगी। प्रस्तावित सुधारों में एक अन्य अभिनव योजना है कि ऑनर्स के विषय का आवंटन शुरू में ही न होकर, जैसा कि हमारे अधिकांश विश्वविद्यालयों में हो जाता है, एक साल बाद होगा। इस कदम का महत्व इस अर्थ में है कि स्नातक में प्रवेश लेते समय अधिकांश को पता नहीं होता कि किस विषय में उसे ज्यादा दिलचस्पी है या किस में वह अच्छा कर सकता है। लेकिन एक वर्ष तक विभिन्न विषयों को पढ़ने के बाद उसे यह समझ आ सकती है।


स्नातकीय कार्यक्रम के दौरान दो बार निर्गमन, अर्थात दूसरे साल के अंत में एसोसिएट डिग्री और तीन वर्ष पश्चात बैचलर डिग्री के विकल्प का प्रस्ताव भी अत्यंत क्रांतिकारी है। चार वर्ष की शिक्षा के बाद ऑनर्स डिग्री मिलेगी, जिसमें चौथा वर्ष शोध-अनुसंधान उन्मुख होगा। यह भी प्रस्ताव है कि एसोसिएट और बैचलर डिग्री छोड़ने वाले छात्र दस साल के अंदर अपनी शेष शिक्षा पूरी कर सकते हैं। इस अवधि को पांच से सात साल रखना चाहिए क्योंकि अपनी मानसिक ऊर्जा को बनाए रखने और नई वास्तविकताओं का सामना के साथ-साथ पूर्व हासिल ज्ञान को बरकरार रखने के लिहाज से 10 साल का वक्त कुछ लंबा है। नियमित पाठ्यक्रम से एक साल की छूट लेकर ओपन स्कूल के द्वारा इसे पूरा करने देने का विकल्प कोर्स की एक अन्य विशेषता है। हार्वर्ड, एमआइटी, येल जैसे दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों ने भी कुछ ओपन कोर्स चला रखे हैं और जो काफी लोकप्रिय भी हैं। लेकिन डीयू के प्रस्तावों का विरोध भी शुरू हो गया है। एक तो इसलिए कि यह अमेरिकी मॉडल पर आधारित है। लेकिन श्रेष्ठ विचार चाहे कहीं का भी हो, जरूर अपनाना चाहिए। यह अनायास नहीं कि चीन ने अपने पूरी उच्च शिक्षा को अमेरिकी पैटर्न पर ढाला है और एक शैक्षणिक महाशक्ति बन चला है। फिर, हमने अपने संविधान के अनेक तत्व क्या अमेरिकी संविधान से ग्रहण नहीं किए हैं? जरूरी है कि अन्य विश्वविद्यालय भी डीयू के नक्शेकदम पर चलते हुए स्नातकीय शिक्षा की ओवरहालिंग शुरू कर दें। यही समय की मांग है ।


लेखक डॉ. निरंजन कुमार दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं


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