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1920 के दशक में बिहार के आरा जिले के टाउन स्कूल में पीने के पानी के लिए दो मटके रखे हुए थे। जैसा कि उस समय का चलन था, एक मटका हिंदुओं के लिए था और दूसरा मुसलमानों के लिए। स्कूल में आए एक नए छात्र ने हिंदुओं वाले मटके से पानी पिया ही था कि स्कूल प्रबंधन और सवर्ण छात्रों की भृकुटियां तन गईं। इसके बाद प्रधानाचार्य ने स्कूल में एक तीसरा मटका रखवा दिया और उस पर लिख दिया-अछूत। स्कूल के फैसले से क्रोधित उस छात्र ने वह मटका फोड़ डाला और साथ ही एक झटके में हिंदू सामाजिक विभाजन के पूर्वाग्रह, असमानता और दमन-उत्पीड़न के सदियों पुराने बोझ को उतार फेंका। युवा जगजीवन राम को मटका फोड़ने में बड़ी हिम्मत की जरूरत पड़ी। उनके मानस पर अछूतों के साथ होने वाले अपमान के गहरे जख्म थे। यह एक व्यक्तिगत प्रतिकार ही नहीं था। उन्होंने लाखो-करोड़ों दमितों की आवाज उठाई थी, जिन्हें सवर्ण जातियों के साथ चलने की मनाही थी, जिनके खाने के बर्तन अलग थे, जिन्हें छूना पाप समझा जाता था और जो हमेशा दूसरों की दया के सहारे रहते थे। इस फैसले का कारण सवर्ण समाज द्वारा हमेशा नीची दृष्टि से देखने के कारण उनके आत्मसम्मान को ठेस लगना हो सकता है। यह भी संभव है कि उन्हें एहसास हो गया हो कि जन्म की दुर्घटना उनके भाग्य की नियंता न बने। इसके बाद उन्होंने वापस नहीं देखा। वह अध्ययन के लिए कोलकाता गए जहां वह सुभाष चंद्र बोस के संपर्क में आए। उन्होंने बिहार में आए विनाशकारी भूकंप के शिकार लोगों के राहत कार्य में भाग लिया। इसी समय उनका सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ और उन्होंने वंचित वर्गो के लिए संगठन का गठन किया।
जगजीवन राम का वैधानिक जीवन तब शुरू हुआ जब वह 1936 में बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में नामित हुए। अगले साल वह बिहार विधानसभा के लिए चुन लिए गए और जल्द ही उन्हें संसदीय सचिव बना दिया गया। सत्याग्रह और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के परिणामस्वरूप उन्हें जेल में डाल दिया गया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जेल से रिहाई मिली और प्रांतीय व केंद्रीय एसेंबली के लिए चुनावों की घोषणा कर दी गई। जगजीवन राम का केंद्रीय सभा के लिए चुनाव हो गया। तब तक अंग्रेज इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि अब भारत से बिस्तर-बोरिया समेटने का समय आ गया है। 2 सितंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक कामचलाऊ सरकार का गठन हुआ। नेहरू के मंत्रिमंडल में जगजीवन राम को अनुसूचित जातियों के अकेले नेता के रूप में शामिल किया गया। उस समय वह केंद्र में सबसे कम उम्र के कैबिनेट मंत्री थे और श्रमिक वर्ग के प्रति उनकी सद्भावना को देखते हुए उन्हें श्रम मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया। यहीं से बाबू जगजीवन राम का संघीय सरकार में केंद्रीय मंत्री के रूप में सफर शुरू हुआ। वह सबसे लंबे समय तक केंद्रीय मंत्री रहे। पहले नेहरू के मंत्रिमंडल में, फिर इंदिरा गांधी के कार्यकाल में और अंत में जनता सरकार में उप प्रधानमंत्री के रूप में। केंद्र सरकार में अपने लंबे कैरियर के दौरान उन्होंने रेलवे, रक्षा, कृषि जैसे अनेक चुनौतीपूर्ण मंत्रालयों का जिम्मा संभाला।
बाबू जगजीवन राम सर्वश्रेष्ठ सांसदों में से एक रहे हैं-कुशल, विपक्षी की आलोचना पर संयम न खोने वाले और उनका तार्किक जवाब देने में माहिर। वे कभी नियमों को नहीं तोड़ते थे और हास्य-विनोद से माहौल को हल्का बनाए रखते थे। उनके शब्दों पर हमेशा ध्यान दिया गया। वह हमेशा तथ्यों से लैस रहते थे। नौकरशाही उनकी कुशाग्रता और सूझबूझ की कायल थी और उन्हें दिग्भ्रमित करने की हिम्मत नहीं करती थी। वह बिना पढ़े किसी भी कागज पर हस्ताक्षर नहीं करते थे और अकसर दस्तावेजों में अंकित किसी मुद्दे पर स्पष्टीकरण मांग लेते थे। वह अलग युग था, अलग लोग थे, जिन्होंने इतिहास का निर्माण किया।
लेखक एचके दुआ वरिष्ठ पत्रकार व सांसद हैं
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