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विकास से जन्मी असमानता

जागरण मेहमान कोना
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देश की जनसंख्या में प्रतिवर्ष लगभग 165 लाख की वृद्धि हो रही है। अनुमानत: इनमें 40 प्रतिशत श्रम बाजार में प्रवेश कर रहे हैं। तदानुसार प्रत्येक वर्ष लगभग 65 लाख श्रमिक श्रम बाजार में प्रवेश कर रहे हैं। इस विशाल जनसंख्या के सामने रोजगार नगण्य संख्या में उत्पन्न हो रहे हैं। वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 1991 से 2008 के बीच औसतन एक वर्ष में 1 लाख 27 हजार श्रमिकों को संगठित क्षेत्रों में रोजगार मिले हैं। शेष 64 लाख श्रमिक असंगठित क्षेत्र में रिक्शा चालक, खेत मजदूर अथवा कंस्ट्रक्शन वर्कर के रूप में जीवनयापन करने को मजबूर हैं। यह परिस्थिति उस हालत में है जब हमारी आर्थिक विकास दर 7 प्रतिशत पर सम्मानजनक रही है। साथ-साथ अरबपतियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। अकेले वर्ष 2009 में भारत में एक अरब डॉलर से अधिक संपत्ति के मालिकों की संख्या 27 से बढ़कर 52 हो गई है। भारत में अरबपतियों की संख्या जर्मनी, इंगलैंड एवं जापान से अधिक है। स्पष्ट है कि तीव्र आर्थिक विकास का लाभ चंद अमीरों को ही मिल रहा है। मुट्ठी भर संगठित श्रमिकों को भी कुछ लाभ हासिल हो रहा है, किंतु देश की विशाल जनसंख्या इस ग्रोथ स्टोरी से वंचित है।


आर्थिक विकास का तार्किक परिणाम असमानता में वृद्धि है। आर्थिक विकास से उत्पादन बढ़ता है, परंतु श्रम की मांग में वृद्धि होना जरूरी नहीं है। कारण यह कि उद्यमी ऑटोमैटिक मशीनों का प्रयोग कर सकते हैं। ऑटोमैटिक मशीनों का उपयोग ज्यादा लाभप्रद होता जाता है। आर्थिक विकास के कारण अर्थव्यवस्था में पूंजी की उपलब्धता बढ़ती है। इससे ब्याज दरों में गिरावट आती है। इससे उद्यमी के लिए महंगी ऑटोमैटिक मशीन लगाना सुलभ हो जाता है। दूसरी तरफ आर्थिक विकास से आम आदमी के जीवन स्तर में मामूली सुधार होता है। श्रम का वेतन बढ़ता है। ब्याज दर घटने एवं श्रम के मूल्य के बढ़ने से उद्यमी के लिए अधिक मात्रा में पूंजी एवं न्यून संख्या में श्रमिकों का उपयोग करना लाभप्रद हो जाता है। इसलिए उत्पादन बढ़ता जाता है, जबकि रोजगार नहीं बढ़ते हैं। श्रमिक की मांग में कुछ वृद्धि हो तो भी श्रम के मूल्य में वृद्धि होना अनिवार्य नहीं है। कारण यह कि श्रम की सप्लाई में वृद्धि ज्यादा हो जाती है। कुशल श्रमिकों की आय में भी दीर्घकालीन वृद्धि होना जरूरी नहीं है। जैसे आइटी प्रोफेशनल के वेतन अब गिरने लगे हैं।


पांच साल पहले इनकी मांग में भारी वृद्धि हुई थी। इनके वेतन भी बढ़े थे, परंतु शीघ्र ही हर छोटे शहर में आइटी कालेजों की स्थापना होने लगी। आइटी प्रोफेशनल की सप्लाई इतनी बढ़ गई कि आज ये भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि आर्थिक विकास दर में वृद्धि के कारण सरकार के राजस्व में वृद्धि होगी। इस राजस्व का उपयोग सरकार द्वारा कल्याणकारी योजनाओं को चलाने में किया जा सकता है। मध्यान्ह भोजन एवं इंदिरा आवास के अंतर्गत मकान उपलब्ध कराकर गरीबी को दूर किया जा सकता है। बात सही है। मनरेगा जैसी योजनाओं से ग्रामीण क्षेत्रों में वेतन में वृद्धि हुई है और गरीबी में कमी आई है, परंतु यह गरीबी की बात है। गरीबी में गिरावट के साथ असमानता में वृद्धि हो सकती है। जैसे गरीब का वेतन 100 से बढ़कर 150 रुपये हो जाए, परंतु अमीर की आय एक करोड़ से बढ़कर पांच करोड़ हो जाए तो गरीबी में गिरावट और असमानता में वृद्धि साथ-साथ हो सकती है।


वास्तव में मनमोहन सिंह का फार्मूला बढ़ती असमानता पर आधारित है। समस्या का हल वर्तमान पश्चिमी अर्थशास्त्र के चौखटे में नहीं निकल सकता है। अमीरों द्वारा सादा जीवन और धर्मादे को अपना कर संभवत: हल निकल सकता है। सरकारी एवं व्यक्तिगत पुनर्वितरण में मौलिक अंतर है। सरकारी पुनर्वितरण अमीर की अमीरियत के प्रदर्शन एवं सार्वजनिक होने पर निर्भर है, जबकि व्यक्तिगत पुनर्वितरण में अमीर की अमीरी पर्दे के पीछे रहती है। इस समस्या का हल नहीं खोजा गया तो केवल भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में सामाजिक वैमनस्य का विस्तार होगा।


डॉ भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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