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किसी भूभाग की आर्थिक संपन्नता चार स्तंभों पर टिकी होती है-मानव पूंजी की गुणवत्ता, निजी निवेश की उपलब्धता, ढांचागत सुविधाओं की गुणवत्ता व विस्तार और सामाजिक व्यवस्था। यूरोप, अमेरिका, जापान और चीन में ढांचागत सुविधाओं ने अन्य तीन स्तंभों पर श्रेष्ठता स्थापित की है और यह संपन्नता के महल के नींव का पत्थर बन गया है। आधारभूत संरचना के दो घटक हैं-भौतिक और सामाजिक। भौतिक ढांचे में सड़कें, बंदरगाह, रेलवे, हवाईअड्डे, सूचना प्रौद्योगिकी के साथ-साथ ऊर्जा, पानी, सीवर जैसी नागरिक आधारभूत सुविधाएं और निर्माण क्षेत्र आते हैं, जबकि सामाजिक संरचना में शिक्षा, स्वास्थ्य और कल्याणकारी संस्थान शामिल हैं। आधारभूत संरचना का अभाव किसी भूभाग की आर्थिक प्रगति को पटरी से उतार सकता है। उत्तर प्रदेश के आधुनिक इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि किसी समय इसका भौतिक और सामाजिक ढांचा भारत के अधिकांश राज्यों से कहीं अधिक विकसित था। वास्तव में, उत्तर प्रदेश में अनेक विख्यात शैक्षणिक और मेडिकल संस्थान होने के साथ ही नहरी सिंचाई व्यवस्था का इंजीनियरिंग चमत्कार देखने को मिलता था। दुर्भाग्य से, यहां लंबे समय से ढांचागत सुविधाओं के विस्तार और विकास के काम को उपेक्षित छोड़ दिया गया है। असलियत में, यहां विद्यमान आधारभूत संरचना का विकास होने के बजाय ह्रास हुआ है।
उत्तर प्रदेश के लोग ऊर्जा, जल, स्कूल और अस्पतालों की जबरदस्त किल्लत झेल रहे हैं। पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में हर साल मानसून में हजारों बच्चे मच्छरों के काटने से इंसेफेलाइटिस से मर जाते हैं। हालिया अध्ययन से पता चलता है कि पिछले दो वर्षो में पचास हजार से अधिक बच्चों की इस रोग से मौत हो चुकी है। अधिकांश शहरी क्षेत्रों में भी सीवर की दयनीय अवस्था के कारण लोग नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। रेल, सड़क और हवाई नेटवर्क की अपर्याप्तता सुस्पष्ट है। अधिकांश नहरों या सहायक नहरों में कभी-कभार ही पानी देखने को मिलता है। नहरों के जल के दायरे में आने वाले खेत बंजर भूमि में तब्दील होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य केंद्रों के अभाव और अशिक्षा के कारण जनसंख्या विस्फोट ने उपलब्ध संसाधनों पर दबाव बढ़ा दिया है। दुर्भाग्य से, आज भी उत्तर प्रदेश में आधारभूत संरचना का विकास सत्ता प्रतिष्ठान की वरीयता सूची में नहीं है।
संरचना निर्माण में भारी पूंजी निवेश की आवश्यकता पड़ती है। अधिकांश देशों में यह जिम्मेदारी सरकार निभाती है। हालांकि सरकारों की वित्तीय क्षमता लगातार संकुचित होते जाने के कारण अब एक नई अवधारणा-सार्वजनिक-निजी साझेदारी उभरी है। अनेक देशों में सरकार की योजनाओं और क्षमताओं के बीच चौड़ी खाई को पाटने के लिए इस मॉडल को सफलतापूर्वक आजमाया गया है। पीपीपी मॉडल में सरकार भौतिक संसाधन और कभी-कभी वित्तीय अंशदान भी मुहैया कराती है। वित्तीय संसाधनों के प्रमुख भाग की पूर्ति निजी उद्यमियों द्वारा की जाती है। इसमें भी सार्वजनिक संस्थानों, खासतौर पर सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों जैसे इंश्योरेंस कंपनियों, पेंशन फंडों और बैंकों द्वारा योगदान दिया जाता है। हालांकि पीपीपी मॉडल में निजी क्षेत्र की भूमिका योजना के क्रियान्वयन में ही अधिक देखी जाती है। निजी क्षेत्र समयबद्ध और गुणवत्ता के साथ कार्य संपादन और शुल्क के संग्रह की जिम्मेदारी अधिक निभाता है। पीपीपी मॉडल में ढांचागत निर्माण की प्रक्रिया बाजार चालित व्यावसायिक गतिविधि में तब्दील हो जाती है। दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश में यमुना और गंगा एक्सप्रेस वे जैसी बड़ी पीपीपी परियोजनाएं विवादों में घिर गई हैं।
ढांचागत सुविधाओं के निर्माण में पहली और प्रमुख आवश्यकता समग्र योजना की रूपरेखा बनाने की होती है। इसमें शामिल हैं आवश्यकता का सही आकलन, परियोजना का चरणबद्ध कार्यक्रम, भौतिक, वित्तीय और मानव संसाधनों की पूर्ति, प्रक्रियाओं का विस्तृत विवरण, क्रियान्वयन नीति और जवाबदेही व जिम्मेदारी निर्धारण। राज्य एजेंसी और निजी क्षेत्र के अधिकार और दायित्व संबंधी पूरी प्रक्रिया की सुस्पष्ट रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए और इन परियोजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिए आवश्यक कानूनी प्रावधान तैयार किए जाने चाहिए। इसके लिए उपयुक्त कानून के निर्माण या संशोधन की भी जरूरत पड़ती है। उपयुक्त कानूनों के माध्यम से ही प्रभावी नियामक तंत्र विकसित किया जा सकता है। जिम्मेदारी और जवाबदेही व्यवस्था में पारितोषिक व प्रोत्साहन तथा जुर्माने व दंड का भी प्रावधान होना चाहिए। सिविल और आपराधिक जुर्माना सुस्पष्ट होना चाहिए। प्रक्रिया में आने वाली कठिनाइयों को प्रोत्साहन व पारितोषिक तथा दंडात्मक कार्रवाइयों के माध्यम से निपटाना जरूरी है।
यह समझा जाना बेहद जरूरी है कि भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में उपरोक्त वर्णित प्रक्रियाओं का सकारात्मक परिणाम हमेशा सुनिश्चित नहीं माना जा सकता। हालांकि लोकतंत्र की चुनौतियों से पार पाया जा सकता है, बशर्ते निर्वाचित प्रतिनिधि उन महान स्वतंत्रता सेनानियों के पदचिह्नों पर चलने के लिए? प्रतिबद्ध हों जिनका एकमात्र उद्देश्य देश को ब्रिटिश राज की गुलामी से मुक्त कराना था। वित्तीय या राजनीतिक निजी स्वार्थो को विकास और खुशहाली का मकसद पूरा करने के लिए दफन करना होगा। धर्मयोद्धा सरीखे रवैये के बूते ही उत्तर प्रदेश में आधारभूत संरचनाओं का निर्माण हो सकता है। राजनीति को जनसेवा में रत होना ही होगा। ढांचा गत निर्माण के लिए एक ऐसा पारिस्थितिक तंत्र विकसित किया जाना चाहिए जो लोगों के आर्थिक उत्कर्ष की अहम प्रक्रिया को न केवल प्रोत्साहित और सुगम करे, बल्कि इसका संयोजन भी करे। नागरिकों को जिस खुशी से वंचित रखा गया उसकी वापसी सही प्रतिनिधियों के चुनाव से ही हो सकती है। अगले कुछ माह में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को उम्मीदवारों में से ऐसे लोगों को चिह्नित करना और चुनना है जो ईमानदार और साखदार होने के साथ-साथ राज्य के लिए कुछ कर गुजरने का भी जज्बा रखते हों। ऐसे ही लोगों को उत्तर प्रदेश की विधानसभा में भेज कर जनता संरचनात्मक निर्माण के साथ-साथ समग्र विकास की राह पर आगे बढ़ सकती है।
लेखक जीएन वाजपेयी सेबी व एलआइसी के पूर्व अध्यक्ष हैं
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