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कश्मीर पर वार्ता का औचित्य

जागरण मेहमान कोना
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अमेरिकी समाचार पत्र वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए इंटरव्यू में भारत के विदेश सचिव रंजन मथाई ने कहा कि भारत पाक के साथ शांति वार्ता के तहत कश्मीर मुद्दे पर भी बातचीत करना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान आतंकी संगठनों पर कार्रवाई नहीं करके माहौल को खराब कर रहा है। भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हम बार-बार पाकिस्तान से कश्मीर पर बातचीत करने को तैयार हो जाते हैं। एक तरफ तो भारतीय संसद पाक अधिकृत कश्मीर को वापस पाने का संकल्प प्रस्ताव पारित करती है और हुर्रियत कांफ्रेंस को छोड़कर सभी भारतीय दलों के नेता इसे भारत का अभिन्न अंग बताते हैं तो दूसरी ओर भारत सरकार बार-बार कश्मीर पर पाक से सुलह करने की इच्छा जताती है। इसके अलावा भारत के लगभग सभी प्रधानमंत्री जब भी अवसर मिलता है तो यह कहना नहीं भूलते कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। अभिन्न अंग के लिए भिन्न या विशेष नहीं, अपितु सामान्य अधिकार चाहिए।


जियारत से निकलीं सियासी दुआएं


जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार प्रदान करने वाली धारा 370 ए को समाप्त हो जाने की बात कर्णधारों ने कही थी, लेकिन वह दिन-प्रतिदिन मजबूत होती जा रही है। दिखावे के लिए भारत यह भी शर्त रखता है कि पहले पाकिस्तान अपनी सरजमीं का प्रयोग भारत विरोधी आतंकी गतिविधियों के लिए न होने देने की गारंटी दे, परंतु शर्त पूरी हुए बगैर भारत पाकिस्तान की इस बात में आ जाता है कि बातचीत नहीं होने का लाभ आतंकियों को मिलेगा। आतंक और आतंकी पाकिस्तान की विदेश नीति के अभिन्न अंग हैं। आजादी के बाद देश की 561 रियासतों का सरदार पटेल ने भारत में विलय कराया। पटेल के दबाव से जूनागढ़ का शासक पाकिस्तान चला गया। ब्रिटिश संसद ने भारत को भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत आजादी दी थी।


अधिनियम में रियासत के राजाओं को भारत या पाकिस्तान में विलय करने की आजादी दी गई थी जिसमें समय सीमा का कोई उल्लेख नहीं था। परंतु कई राजाओं ने जनता की राय के विपरीत जाकर विलय करने का निर्णय लिया था, लेकिन यदि विलय करने में जनता की राय नहीं रही होती तो यह देश आज इस तरह खड़ा नहीं रहता। स्पष्ट है कि यही अधिकार सभी प्रांतों की रियासतों के पास था। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों, गोरखाओं, नागाओं आदि को अपनी संस्कृति-सभ्यता बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अलग होने का अधिकार है। संसद के दोनों सदनों में 1994 में पारित एक सर्वसम्मत प्रस्ताव में कहा गया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और आगे भी रहेगा। इसे देश से अलग करने के किसी भी प्रयास का हरसंभव प्रतिकार किया जाएगा। प्रस्ताव में इस बात पर जोर दिया गया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के उस इलाके को पाकिस्तान खाली करे जिस पर उसने आक्रमण करके अवैध रूप से कब्जा कर रखा है। कश्मीर को विवादित मानने वाले लोगों को सुप्रीम कोर्ट में इस प्रस्ताव को या कश्मीर के विलय को या दोनों को जनहित याचिका के माध्यम से चुनौती देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर का जो अलग संविधान है, उसकी धारा 3 में लिखा है कि जम्मू कश्मीर राज्य भारतीय संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा। इसके बाद जम्मू-कश्मीर पर बार-बार सयुक्त राष्ट्र संघ में नेहरू द्वारा मामला ले जाने को विवादित होने का आधार बनाना गलत है। कश्मीर पर पाकिस्तान से बात करना भारत की बौद्धिक दरिद्रता का द्योतक है। यह कैसा अभिन्न अंग है जिस पर दुश्मन से बातचीत की जाती है। अभिन्न अंग गुजरात, पंजाब, उत्तराखंड, यूपी, बिहार हैं। क्या उन पर भी भारत सरकार पाकिस्तान से बात करेगी? कश्मीर पर पाक से बात करने के कारण ही कश्मीर संबंधी हमारी विदेश नीति पूरी तरह से विफल है।


संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका इसे विवादित मसला नहीं मानते। प्रामाणिक विश्व के नक्शों में भी पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। यूपी-बिहार के बहुत से लोग देशभर में रोजगार के लिए आते-जाते रहते हैं। क्या उनसे भी जनमत संग्रह करके पूछा जाएगा कि वे कहा रहना चाहते हैं? ब्रिटिश संसद के भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में जम्मू-कश्मीर के निवासियों को शेष भारत के नागरिकों से अलग जनमत संग्रह का अलग अधिकार नहीं दिया गया था। जवाहर लाल नेहरू को इस अधिनियम के तहत ऐसा कोई अधिकार नहीं मिला था कि वह किसी रियासत विशेष से विशेषाधिकार के आधार पर विलय करते। क्या मनमोहन सिंह संविधान के नियमों के विपरीत आज किसी प्रांत के साथ विशेषाधिकार का रिश्ता तय कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि विलय कराने वाला भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 अभी भी जीवित है, जिसे रद्द नहीं किया जा सकता है। भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की किसी भी धारा में यह उल्लेख नहीं है कि किसी रियासत विशेष से जनमत संग्रह के निर्णय के आधार पर विलय किया जाएगा। जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को भारतीय गणतंत्र में विलय पर हस्ताक्षर किए और 27 अक्टूबर को भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने इसे मंजूर कर लिया। यदि विलय गलत था तो माउंटबेटन ने इसे मंजूर ही क्यों किया था? आप माउंटबेटन की योग्यता पर सवाल नहीं खड़ा कर सकते।


सवाल, जो जरदारी छोड़ गए


ब्रिटिश आकाओं के कहने पर माउंटबेटन ने विलय के बाद विवाद पैदा करने के लिए मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने के लिए नेहरू को तैयार किया। पर नेहरू ने ऐसा करके एक बड़ी भूल की थी। क्या यह तर्क सही है कि मेरे क्षेत्र में उद्योग, रोजगार नहीं है। मेरे क्षेत्र की भाषा-संस्कृति का विकास नहीं हुआ है, इसलिए संबंधित क्षेत्र या रियासत के राजाओं द्वारा किया गया विलय संधि न मानकर नए सिरे से जनमत संग्रह कराने की मांग जायज है और क्या यह हास्यास्पद नहीं है? भोजपुरी को तो 8वीं अनुसूची में शामिल करने पर ही पता नहीं क्या दिक्कत है। मनसे के राज ठाकरे कहते हैं कि यूपी-बिहार के लोग मराठी संस्कृति के लिए खतरा हैं तो क्या वहां भी जनमत संग्रह कराया जाए? जब सबको किसी न किसी बात से खतरा है तो जनमत संग्रह का अधिकार केवल कश्मीर को ही क्यों होना चाहिए? आखिर कश्मीर में कोई गैर-कश्मीरी क्यों नहीं बस सकता? हैदराबाद रियासत का विलय वल्लभ भाई पटेल ने बलपूर्वक पुलिस कार्रवाई से 1948 में कराया था। वहां के लोगों को तुरंत जनमन संग्रह का अधिकार मिलना चाहिए, क्योंकि वहां के नागरिकों को जबरन भारत में मिलाया गया था। पर आज तो यह सब असंभव है और इसका कोई अर्थ भी नहीं। इसके उलट कश्मीर के राजा ने पाकिस्तान के आक्रमण के बाद अपनी इच्छा से भारत में विलय किया था। सेना या पुलिस नहीं गई थी वहां विलय कराने। नेहरू मूलत: कश्मीरी पंडित थे इसलिए उनका कश्मीर से लगाव होना स्वाभाविक था। इसी नाते सरदार पटेल के पास रियासती मंत्रालय होते हुए भी नेहरू ने कश्मीर का विषय खुद संभाला। अब यहां अलग जनमत संग्रह करने के लिए सवाल उठाने का मुद्दा कहां से आ जाता है। जम्मू-कश्मीर के लोगों को भारत के सामान्य नागरिकों को मिले सारे अधिकार प्राप्त हैं। ऐसे में यह मांग समझ से परे है।


लेखक कुंदन पांडेय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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