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भारत में सोशल मीडिया क्रांति क्या गांवों की दहलीज पर दस्तक देने लगी है? क्या फेसबुक, एसएमएस और ट्विटर की दुनिया ग्रामीण भारत के लोगों को भी उपयोगिता के नए आयामों से परिचित कराने लगी है? कंप्यूटर की सीमित उपलब्धता और ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट के जर्जर बुनियादी ढांचे जैसे किंतु-परंतु के बावजूद लगातार इस तरह के उदाहरण सामने आ रहे हैं जो उम्मीद की नई रोशनी जगाते हैं। एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जनवरी में महाराष्ट्र के सांगली जिले में हल्दी की कीमतों में भारी कमी से परेशान किसानों ने रणनीति बनाने के लिए फेसबुक की मदद ली। अतुल सालुंके नामक किसान ने सबसे पहले फेसबुक पर खाता खोला और आंध्र प्रदेश के अपने किसान मित्रों से हालात से निपटने के लिए मदद मांगी। सुझाव मिला कि बाजार में हल्दी की आपूर्ति कुछ दिन के लिए रोक दी जाए। सालुंके ने फेसबुक के जरिए ही सांगली जिले के 25 बड़े किसानों को इस रणनीति से अवगत कराया। चंद दिनों के भीतर जि़ले के 25 हजार किसान लोकल बाजार में हल्दी की नीलामी के खेल से अलग हट गए।
परिणामस्वरूप एक पखवाड़े के भीतर ही किसानों को हल्दी का दाम 4 रुपये प्रति किलो से बढ़कर आठ रुपये किलो मिलने लगा। वैसे किसानों को आपस में जोड़ने के अलावा विशेषज्ञों से सलाह लेने और मुख्य बाजार में फसल की कीमतों के बारे में पता करने जैसे काम अब सोशल मीडिया के जरिये होने लगा है। गांवों में संचालित तमाम एसएमएस सेवाएं अब टीवी, रेडियो, अखबार और दलालों का विकल्प बन रही हैं जिनसे किसानों को अहम सूचनाएं प्राप्त होती थीं। मसलन 2007 और फिर 2008 में राइटर्स मार्केट लाइट और इफको किसान संचार सेवा लांच की गई। इन सेवाओं के जरिये किसानों को दिन में कई बार एसएमएस और वॉयसमेल भेजे जाते हैं। वह भी क्षेत्रीय भाषा में। इस कड़ी में डिजिटल ग्रीन, स्पोकन वेब और गप्पगोष्ठी जैसी कई दूसरी सेवाओं के नाम भी लिए जा सकते हैं। आइआइटी कानपुर एग्रोपीडिया नाम की साइट शुरू की है, जिसके जरिये कृषि विशेषज्ञ आपस में जुड़ सकते हैं। यूं इन चंद उदाहरणों से बहुत उत्साहित नहीं हुआ जा सकता, लेकिन ग्रामीण भारत से जुड़े मुद्दों के सोशल मीडिया पर उभरने की दिशा में इस तरह की पहल अहम साबित हो सकती है। सोशल मीडिया की उपयोगिता के अलग अलग आयाम लगातार सामने आ रहे हैं, लेकिन आज सबसे बड़ी चुनौती ग्रामीण भारत के इन मंचों पर दिखाई देने की है। ईमार्केटर के मुताबिक 2014 तक करीब 13 करोड़ लोग भारत में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने लगेंगे, लेकिन इसमें ग्रामीण लोगों की हिस्सेदारी कितनी होगी? साल 2009-10 के खर्च पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक इंटरनेट क्रांति से ग्रामीण दुनिया पूरी तरह अछूती है।
ग्रामीण अंचलों के महज 0.4 फीसद घरों में ही इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है, जबकि शहरों के छह फीसद घरों में यह सुविधा है। इंटरनेट व मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के साल 2010 में किए एक अध्ययन में भी यह बात सामने आई थी कि 84 फीसद ग्रामीण दुनिया को इंटरनेट के बारे में पता नहीं है। डिजिटल एमपॉवर फाउंडेशन के संस्थापक ओसामा मंजर बताते हैं कि पंचायती राज मंत्रालय के मुताबिक भारत में अभी 2,45,525 पंचायती दफ्तर हैं। इनमें 582 जिला पंचायत, 6299 ब्लॉक पंचायत और 238644 ग्राम पंचायत शामिल हैं, लेकिन इनमें इंटरनेट की बात तो दूर कंप्यूटर भी सिर्फ 58,291 पंचायतों में है। दरअसल ग्रामीण भारत को इंटरनेट क्रांति से जोड़ने के लिए अभी सार्थक कोशिशें हुई ही नहीं हैं। हां इस बीच मोबाइल फोन क्रांति ने तस्वीर को बदलना शुरू कर दिया है। एक अनुमान के मुताबिक गांवों में दस में से तीन फोन स्मार्टफोन हैं। यह ट्रेंड जोर पकड़ा तो ग्रामीण इलाकों से कुछ नई तरह की आवाज सोशल मीडिया के मंचों पर उठेंगी जिन्हें सुना जाना जरूरी है।
पीयूष पांडे हैं
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