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आपको याद है फिल्म दीवार का वह दृश्य, जिसमें एक दिहाड़ी मजदूर की दर्दनाक मौत हो जाती है। वह मजदूर हफ्ता नहीं देना चाहता, लेकिन उससे जबर्दस्ती रुपये छीन लिए जाते हैं। वह भागता है और एक ट्रक के नीचे आ जाता है। इस बेबस मजदूर की भूमिका सत्यदेव दुबे ने इतनी जीवंतता के साथ निभाई कि अमिताभ बच्चन को गुस्सा आ जाता है और वह भी पीटर के गुंडों से भिड़ने के लिए तैयार हो जाते हंै। यहीं से अभ्युदय होता है एक एंग्री यंगमैन का। जी हां, यह सच है कि अमिताभ के एंग्री यंगमैन बनने के पीछे सत्यदेव दुबे का महत्वपूर्ण योगदान है। आज पंडित सत्यदेव दुबे हमारे बीच नहीं हैं। सच तो यह भी है कि मंडी में नसीर जी ने जिस टुगरुस की भूमिका निभाई, वह पात्र आज से बरसों पहले बिलासपुर की गलियों में घूमा करता था। उनकी नजर से वह पात्र चूक नहीं पाया। मुंबई जाने के बाद बरसों तक वह पात्र उनके मस्तिष्क में कहीं दबा हुआ था। वह ऐसा पात्र था, जिसे केवल चवन्नी देकर कोई भी काम करवा जा सकता था। भोला इतना कि वह जानता भी नहीं था कि उसका शोषण हो रहा है। उसे तो काम करने की लगन थी। काम कैसा भी हो, पर कर जाता था। बदले में चाय मिल गई या चवन्नी, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। बिलासपुर के बड़े-बुजुर्गो को आज भी याद है, वह टुगरुस।
सत्यदेव दुबे का जाना एक ऐसे रंगकर्मी का जाना है, जिसे मात्र का एक थिएटर का बंद होना ही सदमे में डाल सकता है। पृथ्वी थिएटर बंद क्या हुआ, उनकी सांसें ही बंद हो गई। पृथ्वी थिएटर उनकी सांसों में ऐसा बसा था। उनकी हर शाम वहीं गुजरा करती थी। जाने-अनजाने लोगों से मिलकर बतियाना उनका शगल था। हर किसी से कुछ न कुछ सीखना चाहते थे वे। रंगकर्म ही उनका कर्म था। यहां तक की जब उनकी तबीयत बिगड़ी, तब भी वे पृथ्वी थियेटर में ही थे। वे इसी के लिए जिए और इसी के लिए उनकी सांसें भी समाप्त हो गई। उनसे जो एक बार मिला, बस उन्हीं का होकर रह गया। उनकी ही प्रेरणा से अमोल पालेकर ने शांतता कोर्ट चालू आहे से अभिनय के क्षेत्र में प्रवेश किया। सत्यदेव चर्चित नाटककार और निर्देशक थे। आधे अधूरेऔर एवम इंद्रजीत जैसे नाटकों के लिए प्रसिद्ध थे, लेकिन उन्हें प्रसिद्ध किया अंधा युग ने। उन्होंने नाटकों के सौ से ज्यादा शो किए। हाल में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, रंगयात्रा विधिपूर्वक वर्ष 1959 में आरंभ हुई। पूरे आत्मविश्वास के साथ। उसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ तो मैंने हिंदी के अलावा गुजराती, मराठी, अंग्रेजी समेत बहुत-सी दूसरी भाषाओं में भी सौ से ज्यादा नाटकों के कई-कई शो किए। डॉ. धर्मवीर भारती का सुप्रसिद्ध काव्य नाटक अंधायुग मैंने पहली बार वर्ष 1952 में मुंबई में किया था। इसके सौ से अधिक शो मैंने विभिन्न शहरों में किए।
वर्ष 1971 में मुझे संगीत नाटक अकादमी ने सम्मानित किया था, निर्देशन के लिए। सच तो यह है कि मैंने अपनी रंगयात्रा में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और न मुझे कभी पूर्ण संतोष ही हुआ। आज इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी लगता है कि अभी बहुत कुछ छूटा हुआ है, जिसे मैं कर सकता हूं और मुझे करना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि तमाम टीवी चैनलों और मनोरंजन के दूसरे साधन आसानी से उपलब्ध होने के कारण नाटक देखने वाले दर्शकों की संख्या में कमी आई है, लेकिन हमने भी तो इन हालात को रंगमंच की स्थिति मानकर चुप्पी साध रखी है। इलेक्ट्रॉनिक क्रांति से आतंकित होकर हम खुद ही नाटक को गुजरे जमाने की चीज मान बैठे हैं। क्या यह एक बड़ी भूल नहीं है? क्या हमने कभी सोचा कि विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तन के साथ-साथ रंगकर्म के आंतरिक संकट भी यदि गहरे हुए हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? हमारी प्रतिबद्धता और नाटक के प्रति वास्तविक निष्ठा में भी तो गिरावट आई है। काम से ज्यादा हम आज धर्म और यश को क्या अंतिम उपलब्धि नहीं मान बैठे हैं? रंगमंच से जुड़ी नई तकनीक के प्रति हमारी कोई रुचि, कोई रुझान, कोई जिज्ञासा क्या कहीं दिखाई देती है? लकीर के फकीर बने रहकर हम रंगमंच के विकास की दिशा में कभी कुछ नहीं कर सकते। मैं कभी यह नही मानता कि दर्शकों को अगर अच्छी चीज दिखाई जाए तो वे उसे नहीं देखेंगे।
दर्शकों के अभाव का संकट उन रंगकर्मियों के सामने ज्यादा गहरा है, जो अभी तक अपनी प्रस्तुतियों के प्रति अपने दर्शकों का विश्वास नहीं जीत पाए हैं। सत्यदेव ने यह भी कहा था, हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि इसमें अभी तक पेशेवराना अंदाज नहीं बन सका है। पेशेवर अभिनेता को यहां दोयम दर्जे का अभिनेता माना जाता है। रंगकर्मियों में रंगकर्म को एक काम-चलाऊ अंदाज में देखने और करने की एक गंदी प्रवृत्ति यहां है। चल जाएगा, निकल जाएगा जैसा मुहावरा हिंदी रंगमंच पर ही सुनने को मिलता है, जबकि रंगकर्मियों का विश्वास होना चाहिए कि यही सही है। मराठी या बांग्ला रंगमंच पर प्रस्तुति, अभिनय और अभिनेता पूरी तरह प्रोफेशनल हो चुका है। दर्शक पूरे आत्मविश्वास के साथ इन भाषाओं के नाटकों को देखता है। सिर्फ मुंबई में ही डेढ़ सौ से लेकर दो सौ तक नए-पुराने नाटक हर साल होते हैं और हर नाटक के कई-कई शो किए जाते हैं। अनुदानों ने भी नाटकों का बड़ा अहित किया है। आज रंगकर्मी अपने दर्शकों के अनुराग पर कम, सरकार के अनुदान पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। सांस्कृतिक केंद्रों, नाट्य-अकादमियों और बहुत-सी दूसरी रंग-संस्थाओं ने कोई अनुरागधर्मी रंगकर्मी पैदा होने ही नहीं दिया। यही सही भी है।
रंगकर्म की जरा भी तमीज रखने वाले अधिकतर अधिकारियों ने अनुदान का लालच देकर रंगकर्मियों को कठपुतलियों में बदल दिया है। सारा कुछ अनुदानों, लेनदेन और पहुंच पर जाकर ऐसा सिमट गया है कि दर्शक आज बेशऊर उपभोक्ता दिखाई देने लगा है। अनुदान के लाखों रुपये खर्च करके जब कोई संस्था नाटक अलीबाबा चालीस चोर करती है, तब उसके सामाजिक सरोकार स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। हिंदी रंगमंच आज भी दरबारी रंगकर्म की सीमाओं में बंधा हुआ है। यहां सृजनात्मकता की लगभग हत्या हो चुकी है। हिंदी रंगमंच के पास कोई सामाजिक समर्थन भी नहीं है। अनुदानों के भरोसे रंगकर्म जिंदा नहीं रह सकता। यह काम जनचेतना से जुड़ा है और जनता ही इसे जीवित रखती है। रंगकर्म एक उत्सव है, जो हमारे जीवन से जुड़कर सांस लेता है।
लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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