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तेलंगाना पर बढ़ती तकरार

जागरण मेहमान कोना
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Mahesh Parimalपृथक तेलंगाना के मुद्दे पर केंद्र सरकार की बेरुखी समस्या को और अधिक विकराल बना रही है। सरकार का रवैया ऐसा ही रहा तो संभव है कि राज्य में खूनी क्रांति शुरू हो जाए। तब शायद सरकार इस धारणा से मुक्त हो पाएगी कि समस्याओं को इतना अधिक लटकाओ या टालो जिससे उसका समाधान खुद हो जाए। इसके पहले नरसिम्हा राव सरकार में भी ऐसा ही होता था। यह सरकार उससे दो कदम आगे बढ़कर समस्याओं को लटकाने में ही अपनी भलाई समझती है। पृथक तेलंगाना का मामला सरकार की इसी बेरुखी का नतीजा है। इसके पीछे हैदराबाद ही है जो इस समय आइटी का प्रमुख केंद्र है।


कई बार ऐसा होता है कि जिसे हम साधारण बीमारी समझते हैं वह बाद में विकराल रूप धारण कर लेती है। ठीक यही स्थिति पृथक तेलंगाना राज्य को लेकर है। सरकार इसे अभी तक गंभीरता से नहीं ले रही है। इस मामले पर सरकार की नीति टालमटोल वाली ही रही है। इस नीति के कारण ही पृथक तेलंगाना राज्य के लिए दबाव बढ़ा है। तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के. चंद्रशेखर पृथक तेलंगाना राज्य के लिए वर्षो से आंदोलन चला रहे हैं। उन्होंने जब आमरण अनशन शुरू किया तो सरकार की हालत खराब हो गई थी। तब बड़ी मुश्किल से सरकार ने उनका उपवास तुड़वाया था। इसके लिए सरकार ने उन्हें वचन दिया कि इस बारे में शीघ्र ही सर्वसम्मति से फैसला किया जाएगा। पर सरकार अपना वचन भूल गई। जब आंध्र प्रदेश जलने लगा तब सरकार को अपनी भूल का अहसास हुआ। इस दौरान सरकार द्वारा श्रीकृष्ण आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कई सुझाव दिए पर सरकार ने छह माह तक कोई ध्यान नहीं दिया। वास्तव में आयोग की रिपोर्ट से सरकार उलझन में पड़ गई जिस कारण पृथक तेलंगाना की समस्या और उलझ गई।


श्रीकृष्ण आयोग ने अपने सुझाव में सरदार वल्लभ भाई पटेल का उल्लेख करते हुए कहा कि वास्तविकता की उपेक्षा करना मूर्खता होगी। यदि सच्चाई का सामना न किया जाए तो उससे कटुता बढ़ती है। आयोग की इस चेतावनी की अवहेलना करते हुए सरकार ने कुछ करने की बजाय कुछ होने की प्रतीक्षा करने लगी। अपनी रिपोर्ट में जस्टिस श्रीकृष्ण ने यह भी कहा कि आंध्र प्रदेश को अखंडित रखने हेतु सभी राजनीतिक दलों की सर्वसम्मति से तेलंगाना के विकास के लिए एक स्वायत्त काउंसिल का गठन किया जाए। इस सुझाव पर सरकार यदि गंभीर होती तो सर्वदलीय बैठक का आयोजन करती, पर उसने ऐसा नहीं किया। पृथक तेलंगाना राज्य के मामले पर सरकार ने अपनी जवाबदेही से हाथ खड़े कर दिए। कुछ आरोप न लगे इसलिए प्रदेश कांग्रेस समिति को तेलंगाना राष्ट्र समिति को बातचीत की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी। अब प्रदेश कांग्रेस भी क्या करती जब पृथक तेलंगाना की मांग को जनता का इतना अधिक समर्थन प्राप्त है कि वह चाहकर भी कुछ अलग नहीं कर सकती। यहां तक कि वह विवश है कि पृथक तेलंगाना के मामले पर अपने ही विधायकों को इस्तीफे से रोक नहीं सकती।


आंध्र प्रदेश की सारी जनता पृथक तेलंगाना राज्य की मांग कर रही है यह बात भी नहीं है। हकीकत में यह हैदराबाद को लेकर लड़ी जाने वाली लड़ाई है। यह शहर आज देश की आइटी राजधानी बन गई है। अधिकांश हैदराबादी चाहते हैं कि अखंड आंध्र प्रदेश की स्थापना होनी चाहिए। पृथक तेलंगाना राज्य के समर्थकों की नजर हैदराबाद की आइटी इंडस्ट्रीज और उससे होने वाली आय पर है। इस कमाई का उपयोग वे तेलंगाना के पिछड़े क्षेत्रों को समृद्ध करने में करना चाहते हैं। दूसरे आइटी उद्योगों को इससे कोई मतलब नहीं है और वह तटस्थ रहना चाहते हैं। यह इस बात से ही स्पष्ट हो जाता है कि जब पृथक तेलंगाना के मुद्दे पर दो दिन के बंद का आह्वान किया गया तब 90 प्रतिशत आइटी कंपनियां इसमें शामिल ही नही हुर्ई। दो दिनों के बंद के दौरान इंफोसिस, जीई, महिंद्रा, सत्यम्, एडीपी और इन्फोटेक जैसी कंपनियों का काम जारी था। उनके 99 प्रतिशत कर्मचारी काम पर उपस्थित थे। हैदराबाद की आइटी कंपनियों के कर्मचारियों ने इनफार्मेशन टेक्नालॉजी का इस्तेमाल करते हुए बंद से बचने के रास्ते खोज लिए थे। बड़ी आइटी कंपनियों द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था कर दी गई थी यानी पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद रहने के बाद भी उनके कर्मचारी काम पर हाजिर रहे। इसके पहले भी जब इस मामले पर बंद का आह्वान किया गया था तब जो कुछ हुआ उससे सबक लेकर पुलिस ने आइटी उद्योग के लिए अलग से व्यवस्था की। जब भी कंपनियों के किसी वाहन को भीड़ रोकती तुरंत ही इसकी सूचना पुलिस को आधुनिक माध्यमों से मिल जाती और पुलिस के वहां समय पर पहुंचने से किसी तरह का व्यवधान टल जाता था।


आइटी कंपनियां राज्य में राजनैतिक स्थिरता चाहती हैं। यदि उन्हें स्थिरता नहीं मिलती है तो अन्य राज्यों में जाने की कोशिश कर सकती हैं। इससे राज्य को जो झटका लगेगा उससे शायद सरकार पूरी तरह वाकिफ नहीं है। याद करें जब संयुक्त मुंबई राज्य में से गुजरात और महाराष्ट्र अलग राज्य बनाए गए तब मुंबई शहर को लेकर काफी तनातनी हुई थी। महाराष्ट्र के लोगों ने आमची मुंबई के नारे को लेकर एक तरह से युद्ध ही छेड़ दिया था। इस युद्ध में 105 लोगों का अपनी जान गंवानी पड़ी थी। उसके बाद मुंबई महाराष्ट्र की हो गई। तत्कालीन मुंबई राज्य के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने तब मुंबई को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की सिफारिश कर उसे दोनों राज्यों की राजधानी बनाने का सुझाव दिया था। यह अलग बात है कि इस सुझाव को नहीं माना गया। इधर केंद्र सरकार भी कुछ इस तरह से सोच रही है कि हैदराबाद को दो राज्यों की राजधानी बना दिया जाए। केंद्र के इस विचार को पृथक तेलंगाना राज्य की मांग करने वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति शायद ही स्वीकार करे। चाहे कुछ भी हो, तेलंगाना राज्य का मामला निपटाने के पहले हैदराबाद के बारे में सोचना होगा तभी इस समस्या का समाधान हो सकता है। अलग तेलंगाना राज्य के समर्थन में कांग्रेस के 45 विधायकों और 10 सांसदों ने अपने इस्तीफे देकर सरकार पर दबाव तो बना ही दिया है।


हालांकि हैदराबाद के कांग्रेसी सांसदों ने अभी तक इस्तीफे नहीं दिए हैं। इससे उनके विचारों की कुछ तो भनक मिल ही जाती है। जाहिर है कि वे नहीं चाहते कि अलग राज्य बनने पर हैदराबाद को किसी तरह का नुकसान हो। यदि हैदराबाद को दस वर्ष के लिए दोनों राज्यों की राजधानी बना दिया जाता है तो संभवत: समस्या का समाधान कुछ हद तक हो सकता है। इस दौरान हैदराबाद की जनता को दोनों ही राज्यों में समान रूप से बांटा जा सकता है। इस समयावधि के दौरान आंध्र प्रदेश की नई राजधानी को तैयार किया जा सकता है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को एक प्लेटफॉर्म पर आना होगा। इसके बिना यह कार्य संभव नहीं है। यहां नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह से पृथक तेलंगाना राज्य के समर्थन में इस्तीफे दिए गए हैं, उसी तरह इसके विरोध में भी इस्तीफे दिए जा सकते हैं। ऐसे में आंध्र प्रदेश विधानसभा भंग कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। यदि आंध्र प्रदेश में किसी और का शासन होता तो कब का वहां राष्ट्रपति शासन लग गया होता। यहां तो पूरी जद्दोजहद कांग्रेस सरकार को बचाने की है। इसलिए इस काम में लगातार विलंब हो रहा है। सरकार की इसी विलंबकारी नीति के चलते भविष्य में पृथक तेलंगाना राज्य की मांग पूरे देश के लिए समस्या बन सकती है।


लेखक डॉ. महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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