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विश्व प्रकृति निधि और वन अभ्यारण्यों के अधिकारियों की देखरेख में गंगा से लेकर चंबल तक की सहायक नदियों में डॉल्फिन की गिनती शुरू हो गई है। इस तरह की गिनतियों से कभी यह तय नहीं हो पाया कि किस क्षेत्र में कितनी डॉल्फिनें हंै, बल्कि एक निश्चित स्थल पर डॉल्फिनों की संख्या सार्वजनिक हो जाने से इन पर खतरा और गहरा जाता है, क्योंकि शिकारी फिर उसी तय क्षेत्र में जाल डालते हैं। यही कारण है कि तमाम नदियों में डॉल्फिनों की संख्या लगातार कम हो रही है। इसलिए जलचर, थलचर और नभचर जीवों के संरक्षण के लिए सिर्फ इनकी गिनती ही काफी नहींहै, बल्कि गिनती के रिकॉर्ड और उपलब्धता के स्थलों को गोपनीय रखे जाने की जरूरत है।
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यदि विश्व प्रकृति निधि इस तरह का कोई निर्णय लेती है तो कई दुर्लभ जीवों की प्रजातियां बचाई जा सकती हैं। गंगा की गाय कही जाने वाली डॉल्फिन चंबल में ही नहींब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों में भी खतरे में हैं। ये कमोबेश संवेदनश्ील और नाजुक प्राणी होने के कारण मानव-मित्र भी हैं और अपने इसी प्राकृतिक स्वभाव के चलते जहां वह मनुष्य को जल में खतरों की जानकारी हैरतअंगेज छलांगे मारकर देती रहती है, वहीं डूबते बच्चों को बचाने में भी आश्चर्यजनक रूप से मददगार साबित होती है। इसके बावजूद मनुष्य है कि चर्बी के लालच में इसका बेतहाशा शिकार कर रहा है। लिहाजा, संरक्षण के तमाम प्रयासों के बावजूद चंबल ही नहीं गंगा और ब्रह्मपुत्र में भी डॉल्फिनों की संख्या, घटती चली जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में अभ्यारण्यों के विकास की अवधारणा इस दृष्टि से गढ़ी गई कि वहां पर्यटकों का वाहन समेत आवागमन सुविधाजनक हो और सैलानी कम से कम दूरी से वन्यजीवों का दर्शनलाभ ले सकें।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की धज्जियां उड़ाते हुए हरे-भरे पेड़ काटकर सैलानियों के लिए रास्ते बनाए जा रहे हैं और भोग-विलासियों को ठहरने के लिए होटल-रिसोर्ट बनाए जा रहे हैं। जबकि इन जंगलों में सदियों से रह रहे मूल निवासियों को न केवल बेघर किया जा रहा है, बल्कि उन्हें भूखों मरने के लिए छोड़ा जा रहा है। यही हाल चंबल, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों का है। इनमें रेत का जायज-नाजायज कारोबार इस हद तक बढ़ गया है कि डॉल्फिन समेत नदियों के जलचरों के प्राकृतिक आवास निरंतर सिमटते जा रहे हैं। इस कारण यौनवर्धक दवा-निर्माताओं के लिए भी इनका शिकार करना भी आसान होता जा रहा है।
इस जीव के संरक्षण के उपाय पुख्ता हों, इस मकसद से भारत सरकार ने 2009 में डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलचर का दर्जा भी दे दिया, लेकिन राष्ट्रीय प्राणी का दर्जा बाघ को प्राप्त होने के बावजूद जिस तरह से उसके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, कमोबेश वैसी ही दुर्दशा डॉल्फिन की है। हालांकि असम सरकार ने तो इसे 2008 में ही राजकीय जलजीव की श्रेणी में रख दिया था, लेकिन क्या किसी जीव को राष्ट्रीय प्राणी घोषित कर देने भर से ही उसके प्रति कर्तव्य की इतिश्री कर लेनी चाहिए? डॉल्फिन के शिकार पर तो वैसे भी 1972 से ही रोक लगी हुई है, इसके बावजूद क्या इनके कुनबे में वृद्धि हो पाई? 435 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य में बमुश्किल 108 डॉल्फिनों की मौजूदगी बताई जा रही है। इनमें 69 मुरैना जिले की सीमा में हैं और 39 भिंड जिले की सीमा में बची हैं। इधर, आगरा के कुछ मशहूर होटलों में डॉल्फिन का मांस परोसे जाने की घटनाएं भी सामने आई हैं।
डॉल्फिन विदेशी सैलानियों के मुंह का स्वाद बढ़ा रही हैं। इस लिहाज से भी पुलिस वन विभाग को चेता चुकी है, लेकिन वनाधिकारी संख्याबल कम होने का रोना रोते हुए शिकार पर अंकुश लगाने की इच्छाशक्ति ही पैदा नहीं कर पा रहे हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार में स्थानीय लोग इसे सोंस कहकर पुकारते हैं, जबकि असम में इसे जिहू नाम से जाना जाता है। अब से दो दशक पहले तक डॉल्फिन के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं था, लेकिन जब से कुछ देशों ने इसका उपयोग यौनवर्धक दवाओं में करना शुरू किया है तब से ही इस पर संकट ज्यादा गहराया है। ऐसे देशों में चीन, जापान और कोरिया सबसे आगे हैं। इसकी चर्बी और त्वचा को उबालकर तेल भी निकाला जाता है, जो मानव अंगों को कोमल व चिकना बनाने के काम तो आता ही है, हड्डियों की पथरा गई गठानें भी इसकी मालिश से खुल जाती हैं। इस तरह के दावे प्राकृतिक इलाज करने वाले डॉक्टर अक्सर किया करते हैं।
इस तरह के उपचार चीन और जापान की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में भी शामिल हैं। इन कारणों से भी चीन और जापान में डॉल्फिन की मांग हमेशा बनी रहती है। डॉल्फिन के शिकारियों को एक डॉल्फिन से 3-5 किलो चर्बी आसानी से मिल जाती है, जिसकी कीमत भारत में ढाई हजार रुपये प्रतिकिलो तक आसानी से मिल जाती है। जब यही चर्बी तस्करी का हिस्सा बनती हुई बरास्ता नेपाल, चीन की धरती पर पहुंचती है तो इतनी ही चर्बी की कीमत 30-35 हजार रुपये प्रतिकिलो हो जाती है। तिब्बत की सीमा को पारकर भी डॉल्फिन चीन पहुंचाई जाती है। परंपरगात शिकारी आज भी डॉल्फिन को जाल बिछाकर ही गिरफ्त में लेते हैं। जाल में फंसने के साथ ही ये फड़फड़ाते हुए दम तोड़ देती हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों में भी डॉल्फिन इसी तरह पकड़कर मार दी जाती हैं। चंबल सफारी अभ्यारण्य में पर्यटकों को लुभाने के लिए जब से वन विभाग ने इसका प्रचार शुरू किया है, तब से डॉल्फिन को मारे जाने का आंकड़ा भी बढ़ा है।
चंबल सफारी में जहां-जहां डॉल्फिन आसानी से दिखाई देती हैं, वहां-वहांइनकी सूचना देने वाले सचित्र बोर्ड लगाकर इसका प्रदर्शन किया गया है। इन विशेष स्थनों पर डॉल्फिन की सुरक्षा के लिए न तो वनरक्षक तैनात किए गए हैं और न ही सुरक्षा के कोई दूसरे पुख्ता इंतजाम हैं। लिहाजा, सफारी में सैलानियों का आमंत्रण इनकी मौत का सुगम कारण भी बन रहा है। ऐसे स्थलों पर आसान पहंुच मार्ग बनाकर भी वन अमले ने शिकार का रास्ता साफ किया हुआ है। राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य में बड़ी संख्या में मगरमच्छ, घडि़याल और विभिन्न प्रजातियों के कछुए भी पाए जाते हैं। शीत ऋतु में चंबल नदी की सतह पर बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी भी डेरा डालते हैं। इसलिए चंबल सफारी शिकारियों के लिए एक ऐसा अनूठा स्थल है, जिसकी सतह पर शिकारी को कोई न कोई मनचाहा जीव आसानी से सुलभ हो जाता है।
ऐसे में वनाधिकारियों की लापरवाही और लालच इन शिकारियों के लिए सोने पर सुहागा का काम करती है। यदि इंसान अपने स्वार्थ के लिए ही अपने सबसे अच्छे जलचर मित्र का दोहन इसी तरह करता रहेगा तो पारिस्थितिकी संतुलन के बिगड़ने से इसका खामियाजा उसे ही भुगतना पड़ेगा। इसके दूरगामी परिणाम खतरनाक साबित होंगे।
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार है
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