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जिस डाउ केमिकल्स कंपनी को लंदन ओलंपिक 2012 का प्रायोजक बनाया गया है, दुर्भाग्य से उसी ने हजारों भारतीयों को तबाह करने वाली यूनियन कार्बाइड कंपनी को अपने में मिला लिया था। कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि ऐसे में अगर भारत ओलंपिक खेल का बहिष्कार करता है तो यह उन गैस पीडि़तों के लिए एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी। लेकिन क्या इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा? यह प्रश्न यहां इसलिए उठाया जाना जरूरी है, क्योंकि गत गुरुवार को को भारतीय ओलंपिक संघ के प्रतिनिधियों और मंत्रियों के साथ इस विषय पर वार्ता हुई कि हमें ओलंपिक खेलों का बहिष्कार करना चाहिए या उसमें शामिल होना चाहिए। यह बात और है कि इस वार्ता में किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका। हालांकि यह सिद्ध हो चुका है कि यूनियन कार्बाइड कंपनी उस भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार है, जिसमें हजारों मासूमों की जान चली गई थी। तब यह डाउ केमिकल्स की कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह पीडि़तों को निर्धारित मुआवजा दे। जब यूनियन कार्बाइड का अधिग्रहण डाउ केमिकल्स द्वारा किया गया तो जाहिर है कि उसके सारे आर्थिक और सामाजिक लाभों का उसने भरपूर इस्तेमाल किया होगा, लेकिन न्यायिक तौर पर यदि देखें तो क्या वह उन नकारात्मक प्रभाव के लिए भी उतना ही जिम्मेदार नहीं है, जितना यूनियन कार्बाइड उस समय थी। वर्ष 1977 में स्थापित यूनियन कार्बाइड कंपनी का भोपाल में जबरदस्त स्वागत किया गया था। इसका कारण यह था कि कंपनी देश में रोजगार सृजन, विदेशी मुद्रा में बचत की सौगात लेकर प्रकट हुई थी। हरित क्रांति के कारण देश में कीटनाशकों की जबरदस्त मांग बढ़ी थी और यह कंपनी इस मांग की पूर्ति में सक्षम थी।
कंपनी की लापरवाही से वर्ष 1984 का विनाशक गैस कांड पहली त्रासदी नहीं थी, इसके पहले भी वहां प्लांट से गैस का रिसाव हो चुका था, जिसमें एक ऑपरेटर की मौत भी हो चुकी थी। लेकिन इस हादसे को नजरअंदाज कर दिया गया था। दूसरी ओर भोपाल के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन द्वारा कंपनी को भोपाल से बाहर निकलने का नोटिस भी दिया गया था, लेकिन नोटिस देने वाले अधिकारी का स्थानांतरण हो गया और कंपनी ने कॉरपोरेशन को 25 हजार रुपये की राशि प्रदान कर दी। वर्ष 1982 में यूनियन कार्बाइड को मिली चेतावनियों के मद्देनजर अमेरिका के तीन विशेषज्ञों ने भोपाल स्थित प्लांट पहुंचकर सुरक्षा व्यवस्था का जायजा भी लिया। उन्हें वहां कई खामियां भी मिलीं, लेकिन मसले को दबा दिया गया। यूनियन कार्बाइड और कुछ नेताओं के खेल ने हजारों जिंदगियां बर्बाद कर दी। इसका हिसाब किसी के पास नहीं है। आज जब राजनीतिक हिसाब होने लगे हैं तो मुआवजे पर राजनीति होने लगी है। यह प्रत्येक भारतीय और मानवीय दृष्टिकोण रखने वाले वैश्विक नागरिकों का कर्तव्य बनता है कि वे डाउ केमिकल्स के अपनी जिम्मेदारियों से बचने के प्रयासों का विरोध करें।
साथ ही क्या यह प्रश्न नहीं उठता है कि विरोध का यह समय माकूल है, जब डाउ लंदन ओलंपिक-2012 को प्रायोजित कर रहा है? अब जबकि सैकड़ों भारतीय युवा पिछले चार वर्षो से निरंतर ओलंपिक में जीत के सपनों को साकार करने के लिए अपनी खेल प्रतिभा को परिष्कृत करने में लगे हैं, ऐसे में ओलंपिक का बहिष्कार उचित तरीका नहीं होगा। इससे खिलाडि़यों का मनोबल गिर सकता है। तो हमें क्या करना चाहिए? दरअसल, हमारे पास एक बेहतर और अपनी सभ्यता व संस्कृति के अनूकुल तरीका है, जिसके जरिये हम डाउ केमिकल्स को उसकी जिम्मेदारियों का अहसास कराते हुए वैश्विक दबाव बना सकते हैं। इसके लिए हमें और हमारे प्रतिभावान खिलाडि़यों को कुछ त्याग करना होगा। और वह होगा पदक मोह का त्याग। हमें दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेना चाहिए और प्रत्येक विजेता खिलाड़ी को पदक वितरण समारोह में अपनी भारतीय अस्मिता का परिचय देते हुए यह घोषणा करनी होगी कि भोपाल त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों के प्रायोजन से आयोजित खेलों का पदक हमें स्वीकार नहीं है। क्या हम ऐसा कर पाएंगे? अगर हां, तो हम एक वैश्विक मंच पर अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं और वह भी जोरदार ढंग से, जिसका प्रभावशाली असर होगा। इससे एक तरफ डाउ पर वैश्विक दबाव बनेगा और दूसरी तरफ हम भोपाल गैस पीडि़तों के लिए एक सच्ची और आत्मीय श्रद्धांजलि प्रदान कर सकेंगे।
लेखक गौरव कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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