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बांग्लादेश का उदय

जागरण मेहमान कोना
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63 रिसाले के नाम से मशहूर 63 कैवेलरी की स्थापना अलवर में 2 जनवरी 1957 को लेफ्टिनेंट कर्नल हरमंदर सिंह द्वारा की गई थी। इसमें सभी बख्तरबंद रेजीमेंटों से राजपूतों, डोगरों, जाटों और सिखों को शामिल किया गया था। बाद में, 1958 में राजपूतों और डोगरों की मिली-जुली स्क्वेड्रन को पूरी तरह से राजपूत स्क्वेड्रन में बदल दिया गया। 1961 में जब रेजीमेंट से शांतिरक्षक सेना में एक स्क्वेड्रन को कांगो भेजने को कहा गया, तब पांच (स्वतंत्र) बख्तरबंद स्क्वेड्रन एक अतिरिक्त स्क्वेड्रन अस्तित्व में आई। रेजीमेंट को मार्च 1970 में पूर्व की ओर कूच करने के आदेश दिए गए। पूर्व पाकिस्तान में पाकिस्तानी प्रशासन के कुप्रबंध के चलते हालात बेकाबू हो गए थे और पाकिस्तानी सेना की कड़ी सैन्य कार्रवाई के कारण बड़ी संख्या में शरणार्थियों ने भारत की ओर रुख किया था।


अगस्त 1971 तक पूर्वी बंगाल के करीब एक करोड़ शरणार्थी भारत में शरण लेने आ चुके थे। उन उथल-पुथल भरे दिनों के हालात में रेजीमेंट को हल्की बख्तरबंद रेजीमेंट से मझौली बख्तरबंद रेजीमेंट में परिवर्तित होने के लिए कहा गया, जिसे अप्रैल 1971 में टी-55 टैंकों से लैस किया गया। बदलाव का यह दौर बड़ा ही नाज़ुक था। टी-55 टैंक तत्कालीन सोवियत रूस से आयात किए जा रहे थे। रेजीमेंट को नए टैंक हासिल करने और टैंकों को चलाने की ट्रेनिंग के लिए एक बार में एक ही स्क्वैड्रन को अहमदनगर भेजना था। इस रेजीमेंट को कई समूहों में बांट दिया गया। पूर्व पाकिस्तान की मुक्ति के लिए पांच फार्मेशनों को बख्तरबंद ताकत से लैस किया गया। 20 माउंटेन डिवीजन से संबद्ध ए और सी स्क्वैड्रनों ने पूर्व पाकिस्तान के 20 एनडब्ल्यू सेक्टर में युद्ध में भाग लिया। 9 माउंटेन डिवीजन के अधीन बी स्क्वैड्रन ने जेस्सोर सेक्टर तक आगे बढ़ कर लड़ाई लड़ी, जबकि पूर्व पाकिस्तान के एनई और ईस्टर्न सेक्टर में 57 और 8 माउंटेन डिवीजन के अधीन 5(1) बख्तरबंद स्क्वैड्रन ने युद्ध किया। ए स्क्वैड्रन ने नौ लड़ाइयों में हिस्सा लिया और हिल्ली तथा बोगरा कस्बों पर कब्जे के लिए चलाए गए ऑपरेशनों में अहम भूमिका निभाई, जबकि पलासबाड़ी और देवीगंज पर बिना इन्फैंटरी की मदद से कब्जा किया गया। सी स्क्वैड्रन ने ऑपरेशनों में 202 माउंटेन ब्रिगेड की मदद की और भदूरिया, महेशपुर हाट और घोराघाट की लड़ाइयों में 165 माउंटेन ब्रिगेड के साथ प्रमुख भूमिका निबाही।


पूर्व पाकिस्तान के सुदूर पश्चिमी हिस्से से जेस्सोर की ओर भारतीय सेनाओं के दबाव में भी बी स्क्वैड्रन ने शानदार रोल अदा किया। युद्ध के अंत में ढाका पहुंचने वाली 5(1) बख्तरबंद स्क्वैड्रन पहली बख्तरबंद स्क्वैड्रन थी और पांच विभिन्न फार्मेशनों में 63 कैवेलरी सबसे आगे थी। रेजीमेंट के कई जगहों पर पड़ने वाले दबाव ने दुश्मन को चकरा दिया था, जिसने इस रेजीमेंट को घोस्ट रेजीमेंट का ही नाम दे दिया। ढाका पहंुचने वाला एकमात्र बख्तरबंद दस्ता होने के कारण 5(1) बख्तरबंद स्क्वैड्रन को ढाका इंटरकांटिनेंटल होटल को (घोषित तटस्थ क्षेत्र) की सुरक्षा की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी, जहां ढाका पर कब्जे के बाद सभी अंतरराष्ट्रीय राजनयिकों, पत्रकारों और उच्च पाकिस्तानी अधिकारियों के परिवारों को रखा गया था। 5(1) बख्तरबंद स्क्वैड्रन ने ऐतिहासिक सिख गुरुद्वारा गुरु नानक शाही के पुनरुद्धार का नेक काम भी अपने जिम्मे ले लिया और गुरुद्वारे को पुन: खोलने के समारोह में बांग्लादेश के प्रथम राष्ट्रपति सईद नजरुल इस्लाम को आमंत्रित किया। रेजीमेंट के महत्वपूर्ण योगदान के चलते इसे थिएटर ऑनर पूर्व पाकिस्तान और बैटल ऑनर बोगरा सम्मान से नवाजा गया। राष्ट्र ने 63 रिसाले को रेजीमेंट की रजत जयंती के दौरान 1982 में राष्ट्रपति का गाइडोन प्रदान किया गया। आज 1971 के भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश के उदय के 40 साल बाद इस घोस्ट रेजीमेंट की बहादुरी के कारनामे जवान खून को प्रेरित करते हैं। अब यह देश की सबसे बढि़या बख्तरबंद रेजीमेंटों में शामिल है।


लेखक बिकास स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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