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वर्तमान वैश्विक आर्थिक परिदृश्य बड़ी तेजी से बदल रहा है और इस बदलाव के साथ-साथ पूरी दुनिया के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। अब यह तो समय बताएगा कि इन चुनौतियों से निपट पाने के प्रयास कितने सफल होंगे, लेकिन उभरती शक्ति होने के कारण भारत को नई विश्व व्यवस्था में नए दायित्वों को निभाना है। ऐसे में भारत के लिए जरूरी होगा कि वह अपनी रणनीतियों को और धार दे, जिससे भावी विश्व व्यवस्था में अपने नेतृत्व की क्षमता का प्रदर्शन कर सके। यह तो तभी संभव होगा, जब भारत अपनी अर्थव्यवस्था को घरेलू और वैश्विक दोनों ही मोर्चो पर मजबूत एवं पारदर्शी बनाए। इधर हमारी सरकार और उसके प्रवक्ता जिस तरह के विरोधाभासी आंकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे एक भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। घरेलू और वैश्विक संस्थाएं भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को लेकर जिस तरह के निष्कर्ष पेश कर रही हैं, उनकी बहुत-सी पेचीदगियां हैं। कहीं तो भारत को चीन को पछाड़ने की स्थिति में दिख रहा है तो कहीं चीन से बहुत पीछे। कहीं अर्थव्यवस्था की मजबूती के कसीदे कढ़े जाते हैं तो कहीं उसके विनिर्माण और उद्योग क्षेत्र के साथ-साथ एफडीआइ पर चिंता व्यक्त की जा रही है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर सच क्या है? पहला विरोधाभास तो चीन और भारत के मुकाबले को लेकर है।
अभी हाल ही में जानी-मानी अंतरराष्ट्रीय कंसल्टेंसी फर्म अर्नेस्ट एंड यंग ने अपनी एक रिपोर्ट में एक अनुमान व्यक्त करते हुए बताया कि चीन को आर्थिक विकास में भारत से मात खानी होगी और 2013 से इसकी शुरुआत भी हो जाएगी। वर्ष 2013 में भारत की आर्थिक विकास दर 9.5 प्रतिशत होगी, जबकि चीन की विकास दर इसके मुकाबले 9 प्रतिशत ही रहेगी। इसके अगले वर्ष भारत की आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत रहेगी, जबकि चीन 8.6 प्रतिशत तक ही सीमित रह जाएगा। रिपोर्ट बताती है कि भारत में लगातार जारी औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण आर्थिक विकास दर चीन को पछाड़ देगी। लेकिन द इकोनॉमिस्ट द्वारा कराए गए अध्ययन पर नजर डालें तो स्थिति इसके विपरीत दिखती है। एशिया की दोनों (भारत और चीन) प्रमुख शक्तियों के विकास संबंधी विभिन्न पहलुओं का तुलनात्मक अध्ययन कर इस पत्रिका ने निष्कर्ष निकाला है कि भारत के लिए चीन को पीछे छोड़ना आसान नहीं होगा। गौर करें तो पता चलेगा कि अर्नेस्ट एंड यंग ने जहां विकास के एक रेखीय मानक यानी ग्रोथ को लेकर निष्कर्ष निकाला है, वहीं द इकोनॉमिस्ट ने विकास के बहुआयामी या वास्तविक विकास (न कि ग्रोथ) के मानकों यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, तकनीकी विकास, जीवन प्रत्याशा आदि पहलुओं का तुलनात्मक अध्ययन किया है। द इकोनॉमिस्ट द्वारा कराए गए इस अध्ययन में बताया गया है कि विकास के विभिन्न मानकों पर भले ही चीन की तर्ज पर भारत भी मील के पत्थर स्थापित कर रहा हो, लेकिन मौजूदा स्थिति में चीन अब भी भारत से काफी आगे है। भारत जिस स्तर पर आज है, उसे चीन काफी पहले ही हासिल कर चुका है। उदाहरण के लिए भारत की प्रतिव्यक्ति आय 2009 में 3200 डॉलर थी और इस दौरान चीन में यह 7,400 डॉलर थी।
भारत इस दौरान जिस स्तर पर रहा है, उस स्तर को चीन नौ साल पहले ही हासिल कर चुका था। हालांकि यह जरूरी नहीं कि आने वाले नौ साल बाद ही भारत चीन के मौजूदा स्तर को हासिल कर लेगा। अब आखिर किस निष्कर्ष को सही मानें, यह गहन अध्ययन का विषय है? दूसरे अध्ययन में तार्किकता के साथ-साथ मानवीय पहलुओं पर जोर दिया गया है, जबकि अर्नेस्ट एंड यंग के अध्ययन में सिर्फ आंकड़ों का विज्ञान है। हां, एक बात जरूर है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के मुकाबले अधिक संतुलित है और यह चीन के मुकाबले कहीं ज्यादा अपनी घरेलू मांग द्वारा संचालित हो रही है। भारत में निवेश दर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 35 प्रतिशत है और खपत दर जीडीपी के 60 प्रतिशत के आसपास, जबकि चीन की खपत दर घटी है और यह इस समय जीडीपी के लगभग 40 प्रतिशत के आसपास है। लेकिन ऐसा नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था एकदम सुलझे और रपटीले मार्ग पर चल रही है। इसमें असंतुलन की बहुत-सी आशंकाएं मौजूद हैं, क्योंकि भारत में सेवा क्षेत्र अस्वाभाविक रूप से बढ़ता जा रहा है, जबकि जरूरत है कि विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ाया जाए। महंगाई के पहलू को सभी जानते भी हैं और अब आधिकारिक संस्थाएं भी इस पर बेहद चिंतित नजर आने लगी हैं। दूसरा विरोधाभास भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर को लेकर है, क्योंकि प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और मुख्य आर्थिक सलाहकार के विकास अनुमानों में काफी अंतर है। क्या ये सभी महानुभाव आर्थिक गतिविधियों से जुड़े आंकड़ों की अहमियत से वाकिफ नहीं हैं? अगर होते तो शायद इतनी भिन्नता नहीं आती, क्योंकि तीनों के स्त्रोत कमोबेश एक ही होंगे।
शायद इसका यह मतलब निकालना गलत नहीं होगा कि देश की आर्थिक गतिविधियों के आंकड़ों के संग्रह व विश्लेषण में कहीं कोई खामी जरूर है। बता दें कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों यह विश्वास जताया था कि पूरी दुनिया में आर्थिक सुस्ती की जो हवा बह रही है, भारत उसका सामना करके भी 8 से 8.5 प्रतिशत विकास दर हासिल कर लेगा। जबकि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी अपनी ही बात पर अडिग नहीं दिखे। वित्तमंत्री ने एशियाई विकास बैंक के एक कार्यक्रम में मध्यम और दीर्घावधि में 8.5 से 9 प्रतिशत विकास दर रहने का अनुमान जताया था, लेकिन इसके दो दिन बाद ही आर्थिक संपादकों के सम्मेलन में वे इस अनुमान को 8 प्रतिशत पर ले आए। आखिर दो दिन में वित्तमंत्री ने ऐसा कौन-सा अध्ययन करवा लिया कि विकास दर में इतना अंतर करना पड़ गया? प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने तो इस वर्ष विकास दर के 7.5 से 8 प्रतिशत के बीच रहने का अनुमान व्यक्त कर दिया। अगर इंडिया-लिंक द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को देखा जाए तो उसने इसी वर्ष अप्रैल में कहा था कि इस वर्ष जीडीपी विकास दर 7.8 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। बाद में इसमें संशोधन किया गया और बताया गया कि पॉलिसी दरों में यदि एक और बढ़ोतरी हुई तो जीडीपी की दर घटकर 7.5 प्रतिशत भी रह सकती है। खास बात यह है कि तब से दो बार पॉलिसी दरों में वृद्धि हो चुकी है।
अप्रैल 2011 में विकास दर में कमी की यह आशंका सिर्फ घरेलू अर्थव्यवस्था के दबाव के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय हालात में आए बदलाव की वजह से जताई गई थी। अप्रैल के बाद कई अहम घटनाक्रम सामने आ चुके हैं और अभी आगे अमेरिका तथा यूरोप में बहुत कुछ हो सकता है, जिसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर पर पड़ना तय है। फिलहाल देश की आर्थिक विकास दर को लेकर सरकार के स्तर से आ रहे विरोधाभासी बयान भ्रामक हैं। यदि उनके साथ कुछ अन्य अध्ययनों के बाद व्यक्त बयानों को भी साझा कर दें तो स्थिति और भी जटिल व अनिश्चित लगने लगेगी। यदि सरकार गैर सरकारी संस्थाओं को दरकिनार कर दे, उससे यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि आखिर देश की अपनी संस्थाएं जो समान धरातल पर कार्य करती हैं, वे अपने निष्कर्ष में इतना अंतर कैसे पैदा कर सकती हैं? अब सरकार भले ही इसे स्वीकार न करे, लेकिन सच यह है कि आर्थिक गतिविधियों के आंकड़ों के संग्रह और उनके विश्लेषण में पर्याप्त खामी है। बहरहाल, बाहरी और घरेलू दोनों ही मोर्चो पर अर्थव्यवस्था में जो एक बड़ा विरोधाभास दिखता है, वह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत नहीं माने जा सकते। पहली स्थिति हममें वरिष्ठ शक्ति होने की छद्म धारणा का जन्म दे रही है और दूसरी स्थिति यह बताती है कि सरकार और उसकी संस्थाएं देश के लोगों से कुछ झूठ अवश्य बोल रही हैं। हमें इन विद्रूपताओं से बचने की जरूरत है, ताकि दुनिया जिन चुनौतियों का सामना कर रही है, हम उससे बचे रहें।
लेखक रहीस सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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