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देश में एक बार फिर मंदी की आहट है। औद्योगिक उत्पादन की रफ्तार में गिरावट आई है और निर्यात कम हो रहा है। रुपया डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार कमजोर हो रहा है। खुद वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि औद्योगिक वृद्धि दर के आंकड़ें निराशाजनक हैं। पश्चिमी देशों में मंदी और घरेलू अर्थव्यवस्था में नरमी इसके लिए जिम्मेदार है। लेकिन घरेलू अर्थव्यवस्था में नरमी को दूर करने के लिए सरकार ने समय रहते हुए कदम क्यों नहीं उठाए? यूरोपीय देश जब मंदी की गिरफ्त में आ रहे हैं तो हमें पहले ही घरेलू मोर्चे पर मुस्तैदी दिखानी चाहिए थी, लेकिन हम नींद से जागते ही तब हैं जब संकट हमारे सिर पर आ जाता है। बीते वित्त वर्ष में यह दूसरा मौका है, जब औद्योगिक उत्पादन में तेज गिरावट आई है। इससे पहले अक्टूबर, 2011 में इस क्षेत्र का उत्पादन 5.1 प्रतिशत लुढ़का था। उसके बाद उत्पादन में सुधार तो हुआ, लेकिन रफ्तार में सुस्ती बनी रही। महंगाई और ऊंची ब्याज दरों ने बीते वित्त वर्ष की सालाना औद्योगिक विकास दर को भी प्रभावित किया। इसके चलते यह वर्ष 2010-11 के 8.2 प्रतिशत के मुकाबले 2.8 फीसदी सिमट गया। निर्यात के मोर्चे पर भी तस्वीर निराशाजनक है।
सरकार मान चुकी है कि वर्ष 2012-13 निर्यात के लिए खराब रहने वाला है। रुपया भी रिजर्व बैंक की कोशिशों के बावजूद संभाले नहीं संभल रहा है। तेजी से बढ़ रहा आयात रुपये पर और दबाव बनाएगा। वित्त वर्ष 2012-13 की शुरुआत से ही विदेश व्यापार के मोर्चे पर घाटा डराने लगा है। निर्यात के मुकाबले अधिक आयात के चलते वित्त वर्ष के पहले ही महीने में व्यापार घाटा 13 अरब डॉलर को पार कर गया है। आयात में बढ़ोतरी रुपये की कीमत पर भी दबाव बना रही है। अप्रैल, 2012 में निर्यात की वृद्धि दर मात्र 3.2 प्रतिशत पर सिमट गई। बीते माह 24.5 अरब डॉलर का निर्यात हुआ। इसके मुकाबले आयात बढ़कर करीब 38 अरब डॉलर पर पहंुच गया। आयात के भुगतान के लिए डॉलर की मांग बढ़ेगी। आयात वृद्धि से व्यापार घाटा भी बढ़ेगा। अप्रैल में व्यापार घाटा 13.4 अरब डॉलर रहा।
आयात में तेज वृद्धि रुपये की कीमत को और कमजोर कर सकती है। अमेरिका के बाद अब यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था का मंदी की चपेट में आना भारत और चीन के लिए खतरे की घंटी है। 37 सालों में पहली बार ब्रिटेन के विकास में लगातार गिरावट देखी गई है। स्पेन, यूरोजोन का नया संकट है। यूरोप की विकास दर नीचे जा रही है। अमेरिका में भी विकास की गति ठप है। दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी मंदी की आहट सुनाई दे रही है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड के बाद अब स्पेन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है। पिछले 150 साल में करीब 18 बड़े आर्थिक संकट (इनमें सबसे ज्यादा बैकिंग संकट) देखने वाला स्पेन आर्थिक मुसीबतों का अजायबघर बन गया है। स्पेन सरकार पर बोझ बने इन शहरों के पास खर्चा चलाने तक का पैसा नहीं है। नए हवाई अड्डे व शापिंग कांपलेक्स और बीस लाख से ज्यादा मकान खाली पड़े हैं।
यूरोपीय केंद्रीय बैंक से स्पेन बैंकों को जो मदद मिली थी, वह भी गले में फंस गई है। भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट के कई कारण हैं। सिर्फ व्यापार घाटा ही नहीं, बल्कि विदेशी कर्ज भी तेजी से बढ़ा है। मार्च, 2011 में विदेशी कर्ज और विदेशी मुद्रा भंडार का संतुलन ठीक था। लेकिन दिसंबर में 88 फीसदी कर्ज चुकाने लायक विदेशी मुद्रा ही हमारे पास बची। विदेशी कर्ज में छोटी अवधि का कर्ज 2008 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर है। सबसे बड़ा खतरा यह है कि 43 फीसदी विदेशी कर्ज अगले एक साल में देनदारी के लिए आने वाला है। विदेशी मुद्रा भंडार इस समय दो माह के निचले स्तर (293 अरब डॉलर) पर है, जो एक साल के आयात की लागत से कम है। यानी अगर विदेशी पूंजी का प्रवाह नहीं बढ़ा, तो देश का विदेशी मुद्रा भंडार अगले एक साल में चुक जाएगा।
लेखक निरंकार सिंह स्वतंत्र स्तंभकार हैं
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