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मंदी से निपटने की वैश्विक कवायद

जागरण मेहमान कोना
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Ashwani mahajanलगभग एक सप्ताह तक भारत सहित दुनिया के शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई। कारण है अमेरिका का अर्थ संकट। अमेरिकी सरकार पहले से ही भारी कर्ज में डूब चुकी है और राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश की संसद से कर्ज की सीमा और अधिक बढ़ाने की गुहार लगाई है। वर्ष 2007 से प्रारंभ मंदी के चलते अमेरिकी सरकार ने लगभग 1.6 खरब डॉलर की आर्थिक सहायता के पैकेज देकर अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर उबारने की कोशिश की। इस कोशिश में पहले से ही अत्यधिक कर्ज में डूबी अमेरिकी सरकार को और अधिक कर्ज उठाने पड़े। ऐसे में अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व को 2.3 खरब डॉलर यानी 104 खरब रुपये की अतिरिक्त मुद्रा छापनी पड़ी ताकि वह सरकार को कर्ज दे सके। इस दौरान सरकार द्वारा लिए गए कर्ज पर ब्याज की अदायगी न्यूनतम हो, इसके लिए उसने ब्याज दरों को लगभग शून्य पर ला खड़ा किया।


अमेरिकी सरकार फेडरल रिजर्व से तो ऋण लेती ही है, दुनिया भर की सरकारें अमेरिका को ऋण देती हैं। सामान्य तौर पर माना जाता रहा है कि अमेरिका एक धनी देश है और वह दुनिया भर के विकासशील देशों के विकास कार्यक्रमों के लिए भारी ऋण और सहायताएं देता है, लेकिन वास्तविकता इससे बिल्कुल भिन्न है। वास्तव में भारत और चीन के विदेशी मुद्रा भंडारों का एक बहुत बड़ा हिस्सा अमेरिका के फेडरल रिजर्व के पास ही जमा है। ध्यान देने वाली बात है कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 300 अरब डॉलर और चीन का लगभग 3,000 अरब डॉलर है यानी अमेरिका विकासशील देशों सहित दुनिया के लगभग सभी बड़े देशों का ऋणी है। शायद पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति ने यह कह दिया कि अमेरिका अपने ऋण की अदायगी में सक्षम नहीं होगा। किसी भी संप्रभु सरकार के लिए ऋण की अदायगी न कर पाना सबसे बड़ा धक्का होता है। ऐसे में स्टैंडर्ड एंड पुअर्स नामक रेटिंग एजेंसी ने अमेरिका की साख की रेटिंग तिहरे ए से घटाकर दोहरे ए प्लस तक कर दी। इससे पहले भी कुछ माह पूर्व इस एजेंसी ने अमेरिकी साख रेटिंग को घटाया था। पहले से ही संकट झेल रहे अमेरिका के लिए यह और बड़ा धक्का था। ऐसे में दुनिया भर के देशों में घबराहट होना स्वाभाविक ही है, लेकिन हमें समझना होगा कि अमेरिका हो या पश्चिमी यूरोपीय देश, वहां आए आर्थिक संकट का कारण वे खुद ही हैं।


पश्चिमी यूरोप के कई देश भी अपने कर्जो को न चुका पाने की क्षमता की स्थिति में आज संकट में हैं। विश्व बैंक हो या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, कोई भी उनकी मदद कर पाने की स्थिति में नहीं है। अत्यंत अनमने ढंग से यूरोप के दूसरे देशों ने ग्रीस आदि देशों की मदद तो की है, लेकिन उन पर सरकारी खर्च घटाने की भारी शर्ते भी लादी हैं। हालांकि राष्ट्रपति ओबामा अमेरिकी कांग्रेस से सरकारी कर्ज की सीमा बढ़ाने में सफल तो हो गए है, लेकिन उन पर सरकारी खर्च घटाने का एक भारी दायित्व भी आन पड़ा है। मांग के आधार पर चलने वाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था सरकारी मांग में भारी कमी को कैसे सहन कर पाएगी, यह देखना अभी बाकी है। 9 प्रतिशत बेरोजगारी और मुद्रा स्फीति के दर्द को झेलती हुई अमेरिकी अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा, यह आने वाला समय ही बता पाएगा। जब अमेरिका की प्रमुख वित्तीय कंपनी लेहमन ब्रदर्स से लेकर कार बनाने की सबसे बड़ी कंपनी जनरल मोटर्स और अन्य तमाम कंपनियों ने खुद को दीवालिया घोषित करने का निर्णय कर लिया तो ऐसा लगा था कि अमेरिका की वित्तीय प्रणाली धराशायी भी हो सकती है। अमेरिका और यूरोप की सरकारों के आर्थिक पैकेजों के चलते शुरुआत में ये अर्थव्यवस्थाएं मंदी से कुछ उबरती दिखाई दीं और वहां बेरोजगारी में थोड़ी बहुत कमी भी दिखाई दी।


वित्तीय संस्थानों में भी कुछ सुधार दिखाई दिया। लेकिन पिछले कुछ माह से मंदी का दानव फिर से सिर उठाने लगा है। दुनिया के जाने-माने आर्थिक मामलों के जानकार अमेरिका में इस मंदी के गहराने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। उनका मानना है कि यह मंदी पिछली मंदी से भी अधिक भयंकर हो सकती है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नोरियल रोबिनी और रोबर्ट शिलर ने भविष्यवाणी की है कि अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आ सकती है। उधर, रोजर्स होल्डिंग्स के संस्थापक जिम रोजर्स का मानना है कि अमेरिका की आर्थिक रेटिंग में भारी कमी हो सकती है। अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि वर्ष 2011-12 या 2013 में संभावित यह मंदी पहले से कही ज्यादा भयंकर होगी, क्योंकि तीन वर्ष पहले आई मंदी से निपटने के लिए अमेरिका ने अपने तरकश के सभी तीर इस्तेमाल कर लिए हैं। आने वाले समय में मुद्रा स्फीति को थामने की मजबूरी के चलते फेडरल रिजर्व के पास बहुत अधिक विकल्प नहीं हैं। हाल फिलहाल वह बैंकों द्वारा फेडरल रिजर्व के पास रखे अतिरिक्त जमा पर ब्याज दर 0.25 से घटाकर शून्य कर सकता है, ताकि बैंक लोगों को ज्यादा उधार दे सके। लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चल सकता, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था और अधिक मुद्रा स्फीति सह पाने की स्थिति में शायद नहीं है। 600 अरब के और अधिक सरकारी बांड खरीदना, ब्याज दर को घटाना आदि कुछ परंपरागत उपायों के अतिरिक्त अमेरिकी फेडरल रिजर्व के सामने बहुत अधिक विकल्प नहीं बचे हैं। ऐसे में स्पष्ट नीतिगत विकल्पों के अभाव में आने वाले समय में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में भारी मंदी के पूरे-पूरे आसार स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। हालांकि वर्तमान में विश्व के लगभग सभी शेयर बाजारों में अमेरिकी मंदी का प्रभाव देखने को मिल रहा है, लेकिन इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ बाकी अर्थव्यवस्थाएं भी चौपट हो जाएंगी।


भारत का अगर उदाहरण देखते हैं तो पाते हैं कि 2007 से प्रारंभ अमेरिकी मंदी के बावजूद भारत पर कोई विशेष असर देखने को नहीं मिला। हमारे आयात और निर्यात दोनों ही घटे, जिसके फलस्वरूप हमारे व्यापार और भुगतान शेष पर कोई भारी असर नहीं पड़ा। मंदी की शुरुआत में तो विदेशी संस्थागत निवेशकों ने अपना पैसा बाहर ले जाना शुरू कर दिया था, लेकिन अंततोगत्वा वे अन्य देशों में घटते अवसरों और भारत में बेहतर परिस्थितियों के चलते पुन: भारत की ओर आकृष्ट होने लगे, जबकि दुनिया की कुल आमदनी एक प्रतिशत की दर से कम हो रही थी, भारत में वर्ष 2009-10 में सात प्रतिशत और 2010-11 में लगभग 8 प्रतिशत की संवृद्धि दर दर्ज की गई। वर्तमान अमेरिकी मंदी के बावजूद इस बार भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई विशेष असर पड़ने वाला नही है, बल्कि अमेरिकी मांग में कमी के मद्देनजर कच्चे तेल की कीमतों में कमी जरूर आने लगी है। ध्यान देने वाली बात है कि पिछले कुछ समय से कच्चे तेल की ऊंची कीमतों के चलते देश में पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में भारी वृद्धि हो रही थी। दिनांक 9 अगस्त 2011 को तेल की कीमत 76 डॉलर तक रिकॉर्ड की गई। उम्मीद की जाती है कि पेट्रोल की कीमत में आने वाले दिनों में 5 से 10 रुपये की कमी हो सकती है और आम जन को मुद्रास्फीति से कुछ राहत मिल सकती है। जहां तक निर्यातों में कमी का सवाल है तो कुछ निर्यात जरूर कम हो सकते है, लेकिन हमें उससे बहुत अधिक घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यूरो अमेरिकी मंदी के चलते धातुओं की कीमत कम होने के कारण आयात भी कम होंगे। विशेष तौर पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी हमारे आयातों पर अच्छा असर डाल सकती है। मंदी के चलते दबाव में आई कंपनियां भारत से और अधिक आउट सोर्सिग करेंगी, इसकी भी उम्मीद की जा सकती है।


लेखक अश्विनी महाजन आर्थिक मामलों के जानकार हैं


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