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देश की साक्षरता दर प्रत्येक दस वर्ष में मात्र दस प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। 1951 में सकल साक्षरता दर जहां लगभग 18.3 प्रतिशत थी, वहीं 2011 में यह करीब 74 फीसद है। यानी शिक्षा के क्षेत्र में हम एक साल में मात्र एक प्रतिशत की दर से ही आगे बढ़ रहे हैं। साफ है 2015 तक हम शिक्षा के क्षेत्र में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) हासिल नहीं कर सकते। यह स्थिति क्यों बनी? इसलिए बनी, क्योंकि समाज में शिक्षा की उपयोगिता को लेकर आज भी हम वह माहौल नहीं बना पा रहे हैं, जिसकी आवश्यकता है। गांवों में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी तक में बड़े बुजुगरें को यह कहते सुना जा सकता है कि बेटा कुछ काम-धंधा सीख ले। पढ़-लिखकर साहब नहीं बनेगा। यह सच्चाई है 21वीं सदी के बुजुर्र्गो की धारणा की। यह धारणा क्यों बनी? दिल्ली के किसी भी सरकारी स्कूल में जाकर देख लीजिए, खुद पता चल जाएगा हालात क्या हैं और उन बच्चों का भविष्य क्या है जो इनमें शिक्षा हासिल करने के नाम पर आ रहे हैं। इस माहौल को जानने के लिए किसी सरकारी या गैर सरकारी सर्वेक्षण की जरूरत नहीं है। गनीमत यह रही कि ऐसी धारणा रखने वाले इस समाज ने नारायणमूर्ति का यह बयान नहीं देखा-सुना या पढ़ा कि हमारे संस्थान हमें योग्य उम्मीदवार नहीं दे पा रहे हैं। वरना यह इसी बयान को अपने पक्ष में तर्क के रूप में भी गढ़ लेता। आज सरकारी स्कूलों का अव्यवस्थित माहौल और व्यवस्थित दिखने वाले निजी स्कूल दोनों अपने-अपने बच्चों को क्या दे रहे हैं? एक बच्चों को साक्षर भर बना रहे हैं तो दूसरे विवेकरिहत अधकचरा ज्ञान ही बांटने का काम कर रहे हैं। सरकार की मंशा भी कागजी कार्यवाही को यथार्थ के धरातल पर उतारने की नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है हर सत्र के साथ स्कूलों में छात्रों का बढ़ता पास प्रतिशत और घटती गुणवत्ता। 12वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र में योजना आयोग ने गिरती गुणवत्ता को खुद स्वीकार किया है।
आयोग ने तमाम सर्वेक्षणों की यह बात मानी है कि पांचवीं कक्षा के बच्चे को दूसरी कक्षा तक का ज्ञान नहीं है। यह हमारे समाज और तंत्र की असफलता है कि हम शिक्षा को राष्ट्रीय महत्व के केंद्र में कभी नहीं ला पाए। इसका प्रमाण एक साल में मात्र एक प्रतिशत की दर से बढ़ती साक्षरता दर खुद दे रही है। लिहाजा, गुणवत्ता की तो बात करना ही हास्यास्पद है। नीतिगत दिवालियेपन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1986 में नई शिक्षा नीति घोषित की गई। फिर इसकी समीक्षा हुई 1991 में। पांच साल बीत चुके थे और हमारी शिक्षा अभी तक समीक्षा-सिफारिशों के फेर में ही उलझी थी। एक साल बाद एक और महत्वपूर्ण पहल हुई। संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार चार्टर पर भारत ने हस्ताक्षर किए। फिर 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में व्याख्यायित किया। सुप्रीम कोर्ट का पैगाम संसद तक पहुंचने में लगे पूरे नौ साल और 2002 में हमारी सरकार संविधान के 86वें संशोधन के जरिये शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे पाई। उसके भी आठ साल बाद 2010 में शिक्षा वाकई हर बच्चे का अधिकार बन पाई, जिसे वह हर बच्चा अगले दस साल में शायद हासिल कर ही ले। आज हम 21वीं सदी के भी 13वें साल में हैं और हमारी शिक्षा नीति उसी 20वीं सदी के प्रेत को ढो रही है। इतना सब कुछ हो पाने के बाद भी करीब छह करोड़ बच्चे स्कूल की दहलीज पर कदम नहीं रख पा रहे हैं। उनका अधिकार उसी दहलीज पर दम तोड़ रहा है। एक तरफ सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन लगातार गिर रहा है तो दूसरी तरफ नामांकित बच्चों की उपस्थिति कम हो रही है। जो उपस्थित होते भी हैं उन्हें स्कूल के निर्धारित समय तक रोकने की समस्या और चुनौती दोनों बनी हुई हैं। मध्याह्न अवकाश के बाद बच्चों के वापस न आने की जिस समस्या के समाधान के लिए मिड-डे मील जैसी योजना शुरू की गई थी, वह भी नाकाफी साबित हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में उपस्थिति और नामांकन में गिरावट का एक कारण शिक्षकों पर गैर शैक्षिक कायरें का बढ़ता बोझ तो है ही, एक स्कूल में मात्र एक से दो शिक्षकों का होना भी एक और कारक है। सोचने वाली बात है कि यदि एक सरकारी स्कूल की किसी कक्षा में न्यूनतम 10 छात्र भी माने जाएं तो पहली से पांचवीं तक के सभी 50 बच्चों को सभी विषय एक या दो अध्यापक मिलकर कैसे पढ़ा पाएंगे। ऐसी स्थिति में शिक्षा की गुणवत्ता की तो उम्मीद करना ही बेमानी हो जाता है। यहां दो बुनियाद एक साथ जुड़ी हैं। एक भावी पीढ़ी की और दूसरी, शिक्षा की। इन दोनों बुनियादों को कमजोर करने के लिए कौन जिम्मेदार है? निश्चित रूप से हम और हमारा तंत्र, जिसे हमने ही गढ़ा है।
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क्यों हम आज तक एक भी विश्वस्तरीय संस्थान खड़ा नहीं कर पाए? क्यों हमें बुनियादी शिक्षा के लिए निजी स्कूलों की तरफ और उच्च शिक्षा के लिए विदेशों की ओर ताकना पड़ता है? विदेशों की ओर देखते ही हैं तो उनसे कुछ सीखना भी चाहिए। परमाणु बम और सुनामी जैसे विध्वंस झेलने वाला देश जापान इसके लिए मुफीद है। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में गरीब और अविकसित जापान ने 1872 में फंडामेंटल कोड ऑफ एजुकेशन के प्रकाशन के साथ शिक्षा विस्तार का निर्णय लिया। 1910 तक जापान में सभी बच्चे स्कूली शिक्षा हासिल करने लगे। 1906-11 तक शहरों और गांवों के लिए स्वीकृत बजट का 43 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया। इसी निवेश का परिणाम है कि आज संपन्न और समृद्ध विराट जापान दुनिया के नक्शे पर एक महाशक्ति बनकर उभरा है। यह छोटा-सा देश बड़ी से बड़ी और नवीनतम तकनीकी के क्षेत्र में आज दुनिया को नेतृत्व दे रहा है। यह क्या सिखाता है? यही कि शिक्षा में साधारण से दिखाई देने वाले परिवर्तन दीर्घकालीन असाधारण परिणामों के जनक हो सकते हैं। हम जापान, चीन या अन्य किसी भी देश से मानवीय क्षमताओं के स्तर पर कमतर नहीं हैं। कमतर हैं तो सुचारू तंत्र, इच्छाशक्ति और जागरूकता के स्तर पर, पर यह ऐसा कुछ नहीं जिसे अर्जित न किया जा सके। वास्तव में शिक्षा एक सामाजिक कार्य है, लेकिन हमने उसे व्यक्तिकेंद्रित बना दिया है। शिक्षा का अपना एक बाजार बन चुका है और बाजारवाद के इस दौर में शिक्षा का लक्ष्य भी सिर्फ अच्छी नौकरी दिलाना भर माना जाने लगा है। ऐसी शिक्षा ने मनुष्य को मशीन बनाने का ही काम किया है। इस मशीनीकरण से अछूती सरकार भी नहीं रही। सरकारी स्तर पर तो लगता है कि शिक्षा नीति का काम शिक्षा से जुड़ी भविष्यवाणियां करना मात्र रह गया है, न कि उचित माहौल का निर्माण। होना तो यह चाहिए था कि हमारी शिक्षा नीति का लक्ष्य भविष्य का निर्माण करना होता न कि भविष्यवाणी करना।
लेखक अनुज राज पाठक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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