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आजकल टीवी पर एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है, जिसमें एक गरीब बच्ची डरते हुए बड़े नामचीन स्कूल में पढ़ने जाती है। इधर घर पर उसकी मां भी डरी हुई है कि उस स्कूल में पढ़ने वाले अमीर बच्चे उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे। जब वह बच्ची अपना टिफिन खोलती है तब सारे बच्चे उसे घेर लेते है और उसके टिफिन का आलू-गोभी बड़े चाव से खाते हैं। इस तरह वह बच्ची अपने सहपाठियों के बीच जगह बना लेती है। यहां इस विज्ञापन का जिक्र इसलिए किया क्योंकि शिक्षा के अधिकार कानून के तहत जो 25 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट और पब्लिक स्कूलो में दाखिला लेंगे उनकी और उनके अभिभावको की मनोदशा विज्ञापन वाली लड़की और उसकी मां की तरह ही होगी। शिक्षा का अधिकार कानून तो बन गया। अमल में लाने की कवायद भी शुरू हो गई, लेकिन किसी ने भी वास्तविकता की परिकल्पना नहीं की। कानून में उन 25 प्रतिशत बच्चों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव ना किया जाए, इसकी जिम्मेदारी प्रधानाचार्य और शिक्षकों को सौंपी गई है। अब सोचने वाली बात यह है कि जो प्रिंसिपल इसके खिलाफ है क्या वह सहजता से इन बच्चो को अपने स्कूल में स्वीकार कर लेंगे? पिछले साल दिल्ली के कुछ पब्लिक स्कूलों ने दाखिले के खिलाफ स्कूल बंद कर दिए थे।
राष्ट्र निर्माण का दूरगामी कदम
देश भर के निजी स्कूल कोई ना कोई जुगाड़ कर रहे है शिक्षा के कानूनी अधिकार के तहत दाखिले करने से बचने का। क्या यह जुगाड़ू स्कूल खुले दिल से स्वागत करेंगे उन नन्हे नौनिहालों का, जिनकी आंखों में बड़े स्कूलों में पढ़ने का ख्वाब बस पूरा ही होने वाला है। जब गरीब तबके के 25 प्रतिशत बच्चे अमीरों के 75 प्रतिशत बच्चों के साथ पढ़ाई लिखाई करेंगे तब क्या यह संभव है कि वे अपने और उनके बीच की असमानता से अछूते रह पाएं। मसलन उन बच्चों का रहन-सहन स्वाभाविक है इन बच्चो से अलग होगा। उनकी भाषा, शैली, सोशल एटिकेट्स और स्टाइल सब कुछ भिन्न होगा। इसे देखने का एक नजरिया यह भी है कि जब दोनों वर्ग एकदूसरे के साथ होंगे तो उनके बीच सामाजिक-सांस्कृतिक सहयोग भी बढ़ेगा। इसमे कोई शक नही कि दोनों वर्ग एकदूसरे से सीखेगें भी बशर्ते उनमें ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी की भावना न पनपने दी जाए।
बुनियादी शिक्षा का समाजवादी सपना
अब सवाल यह उठता है कि यह प्रयास करेगा कौन? क्या इसके लिए कानून में अलग से प्रावधान है? क्या सरकार ने दिशानिर्देश जारी किए हैं? यह कानून बनाते समय सबसे ज्यादा विचार-विमर्श इस ओर किया जाना चाहिए था। इसमें शिक्षकों, अभिभावकों के कर्तव्यों और कार्यो की सूची जारी करनी चाहिए थी। उसमे यह सुझाव होना चाहिए था कि 25 और 75 का तालमेल कैसे करवाना है। कैसे दोनों वगरें को बिना भेदभाव के एकदूसरे की परिस्थितयों, संभावनाओं और शैली से परिचित करवाना है। अनेक बुद्धिजीवियों ने इस ओर सुझाव दिए कि टीचर इस बात का ख्याल रखें कि क्लासरूम में अमीरी-गरीबी का भेद ना हो। हर बच्चे के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए। बच्चे अपना जन्मदिन स्कूल में ना मनाए और मनाना ही है तो सादगी से मनाए। स्कूल में बच्चो के टिफिन पर ध्यान दिया जाए। अगर हो सके तो स्कूल प्रशासन स्वयं खाने का प्रबंध करे।
भोपाल का एक स्कूल ऐसा ही करता है। ये सभी सुझाव एकपक्षीय हैं। सारे समझौते अमीर वर्ग के मातहत ही आ रहे है। यह भी एक समस्या है? 75 प्रतिशत बच्चों के अभिभावकों का यह तर्क हो सकता है कि इन बच्चो की शिक्षा का जिम्मा सरकार ने उठाया है तो हम और हमारे बच्चे इसका खामीयाजा क्यों भुगते? कुछ मुट्ठी भर बच्चों के लिए पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करने का क्या मतलब? अभिभावकों को यह चिंता है कि कहीं गरीब बच्चों के साथ पढ़ने से उनके बच्चे बिगड़ ना जाएं। इन बच्चों की निशुल्क शिक्षा का आर्थिक बोझ स्कूल प्रशासन उन पर ना डाल दे। ये सारे सवाल जायज और लाजमी है।
लेखिका शिखा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं
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