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शिक्षा का अधूरा अधिकार

जागरण मेहमान कोना
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हाल ही में निर्धन परिवारों से संबंध रखने वाले बच्चों को निजी स्कूलों में आरक्षण देने के मसले पर बने कानून की बाल की खाल निकाली जाने लगी है। मामला शिक्षा के अधिकार कानून से जुड़ा है। शंकाओं, आशंकाओं का दौर शुरू हो गया है। पर कुल मिलाकर गरीब परिवारों के बच्चों के लिए सभी निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के कदम को क्रांतिकारी माना जा रहा है। चंडीगढ़ के सेंट स्टीफंस स्कूल में सीनियर टीचर मीरा कहती हैं, आरटीआइ कानून में कमियां निकालने वाले बीमार मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे बदलाव विरोधी हैं। पर सरकार और समाज को यह सुनिश्चित करना होगा जिससे कि गरीब बच्चों को आठवीं कक्षा के आगे भी पढ़ने का मौका मिलता रहे। दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल एमआइ हुसैन कहते हैं कि आरटीआइ कानून के चलते सभी स्कूलों में 25 फीसदी आरक्षण गरीब परिवारों के बच्चों को मिलने में कोई दिक्कत नहीं है। हां, चिंता की बात यह है कि आठवीं तक पढ़ाई करने के बाद इनका क्या होगा। क्या सरकार नहीं चाहती कि ये बच्चे आगे भी पढ़ते रहें? गुरु-शिष्य के रिश्तों में खटास बढ़ी है। गुरु अपने धर्म का निर्वाह नहीं कर पा रहा है या फिर शिष्य भटकाव का शिकार हैं, यह बड़ा सवाल है। हमारी शिक्षा नीति की सबसे बड़ी विफलता यही है कि अगर कुछ खासमखास स्कूलों की बात न करें तो बच्चों और उन्हें पढ़ाने वालों के बीच आमतौर पर किसी तरह का तारतम्य स्थापित ही नहीं हो पाता। सरकार का कमोबेश यही लक्ष्य रहता है कि किसी तरह से स्कूलों में पढ़ने वालों की तादाद बढ़ती रहे।


निश्चित रूप से इससे साक्षरता तो भले ही देश में बढ़ी हो पर तमाम नौनिहालों को तो समझ ही नहीं आता कि वे क्लास में क्या पढ़ रहे हैं। बेचारा टीचर भी क्या करे। उसे एक क्लास में 60 बच्चे मिलते हैं। वह कैसे सुनिश्चित करे कि सारे बच्चे उसकी बात समझ पा रहे हैं। अगर वह एक-एक बच्चे पर नजर रखता है तो अपना कोर्स पूरा नहीं कर पाता। उसके पास क्या विकल्प हैं? वह कोर्स पूरा करवाए या फिर हर बच्चों को हर बात समझाते हुए आगे बढ़े। क्या अब अध्यापक अपने छात्र-छात्राओं के साथ इंसाफ नहीं कर पा रहे कि उन्हें ट्यूशन की शरण में जाना पड़ रहा है? कुछ शिक्षाविद मानते हैं कि कायदे से उन्हीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ने की आवश्यकता रहती है, जो खेल, डांस, ड्रामा और दूसरी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण अपनी क्लास मिस करते हैं। वे मानते हैं कि एक क्लास में सारे बच्चे एक तरीके से अपने टीचर को फॉलो नहीं कर पाते।


दरअसल, कोचिंग क्लास को भी आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसकी वजह यह है कि हमारे स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला सिलेबस और एंट्रेस एग्जाम में आने वाले सवाल, एक-दूजे से कोसों दूर खड़े रहते हैं। इन हालात के लिए कौन जिम्मेदार हैं? सवालिया निशान एक बार फिर शिक्षा व्यवस्था पर लगा है। कोचिंग क्लास ने बच्चों को उन विषय में आगे बढ़ने में काफी मदद दी, जो उन्हें काफी डराते थे या मुश्किलों में डालते थे। जानकारों की राय है कि सीबीएसई अपने को बदलने के लिए तैयार ही नहीं है। वह एनसीईआरटी से आगे बढ़ने के लिए राजी नहीं है। अगर एनसीईआरटी अपने पाठ्यक्रम को बदलते जमाने के साथ बदलता तो स्कूल के स्तर पर भी बच्चों को आगामी चुनौतियों के लिए तैयार करने में सुविधा हो जाती। हाल ही में मशहूर शिक्षाविद प्रो. यशपाल ने कहा है कि आपका बच्चा स्कूल में बढि़या ढंग से पढ़े-लिखे इसकी सारी जिम्मेदारी सिर्फ अध्यापक की नहीं हो सकती। इसके लिए सरकार, पेरेंट्स, अध्यापक, स्कूल प्रबंधन और छात्र सबको मिलकर अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा। पेरेंट्स स्कूल और टीचर से ही सब अपेक्षा करने लगे हैं। वे खुद बच्चों की प्रगति को कितना देखते हैं, इस पर उन्हें ध्यान देना होगा।


लेखिका गीता शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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