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चुनाव आयोग ने पांच राज्यों पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, उत्तर प्रदेश और मणिपुर की नई विधानसभाओं को गठित करने के लिए मतदान तिथियां तय कर दी हैं। इन राज्यों में मतदान 30 जनवरी से शुरू होगा और 28 फरवरी को खत्म होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि 2012 की शुरुआत जबरदस्त राजनीतिक गहमा-गहमी से होगी और इन चुनावों में कई ऐसी बातें हैं, जो पहली बार सामने आएंगी। मसलन, सभी प्रत्याशियों को अपने नए बैंक खाते खुलवाने होंगे और इन्हीं से चुनाव खर्च करना होगा। जाहिर है, इसका उद्देश्य यह है कि काले धन के इस्तेमाल पर रोक लगाई जाए और चुनाव खर्च को नियंत्रित किया जाए। साथ ही प्रत्याशियों को एक संशोधित सारांश शीट भी शपथ पत्र के साथ प्रस्तुत करनी होगी, जिसमें उनकी अपराधिक पृष्ठभूमि, संपत्ति, कर्ज और शैक्षिक योग्यता का उल्लेख होगा।
चौबीस घंटे एक टोल फ्री नंबर 1950 खुला रहेगा, ताकि चुनाव संबंधी शिकायतें दर्ज की जा सकें। गौरतलब है कि 1950 में ही चुनाव आयोग का गठन हुआ था। इन चुनावों में उम्मीद है कि जहां राज्य सरकारों के काम मुद्दा रहेंगे, वहीं केंद्र की संप्रग सरकार पर भी मतदाता अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह रहेगी कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को जनता ने किस रूप में स्वीकार किया है। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि यह चुनाव संप्रग और अन्ना हजारे के लिए परीक्षा की घड़ी साबित होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश है, क्योंकि वह न केवल सबसे बड़ा प्रदेश है, बल्कि वही आने वाले वर्षो के लिए राष्ट्रीय राजनीति की दिशा निर्धारित करेगा। शायद यही वजह है कि मुख्यमंत्री मायावती से लेकर कांगे्रस महासचिव राहुल गांधी तक ने इन चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। इसी तरह मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी अपने आपको मजबूत करने का प्रयास किया है और भाजपा ने झाड़-पोंछकर अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों को फिर से जारी किया है ताकि प्रदेश में डूब चुकी उसकी नैया को फिर से उभरने का अवसर मिल सके। प्रदेश के चुनावों को मद्देनजर रखते हुए मायावती ने सबसे पहले तो विभिन्न वर्गो के लिए आरक्षण की मांग करते हुए प्रधनमंत्री मनमोहन सिंह को अनेक पत्र लिखे और फिर राज्य का विभाजन चार टुकड़ों में कराने के लिए विधानसभा में बिना बहस के ही प्रस्ताव पारित कराया और उसे केंद्र के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया।
बहरहाल, मायावती की एक और राजनीतिक चाल को भी केंद्र ने ध्वस्त किया है। मायावती चाहती थीं कि राज्य में चुनाव अपै्रल-मई में हो ताकि उन्हें अपनी योजनाएं जनता तक पहुंचाने के लिए समय मिल जाए। इसलिए उन्होंने हाईस्कूल और इंटर की परीक्षाओं को पहले यानी 1 मार्च से कराने का निर्णय लिया, लेकिन कांगे्रस व भाजपा को लगता है कि उनके लिए देर की बजाए जल्द चुनाव कराना फायदेमंद होगा। कांगे्रस ने जहां मायावती की राजनीतिक चालों को बेकार करने का प्रयास किया है, वहीं राहुल गांधी के जरिये अपनी पूरी ताकत उत्तर प्रदेश में झोंक दी है। जाट मतों को अपनी तरफ करने के लिए अजित सिंह को केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया है। इसी प्रकार मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए ओबीसी कोटे में इस समुदाय के पिछड़ों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा देने के इंतजाम भी किए गए हैं। इसके अलावा राहुल गांधी निरंतर प्रदेश का दौरा कर रहे हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव न सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति को दिशा देंगे, बल्कि राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य को भी निर्धारित करेंगे। जहां उत्तर प्रदेश में मायावती, मुलायम सिंह यादव और राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य दांव पर है, वहीं अन्ना हजारे के दमखम को भी इन चुनावों में मापा जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे ने लोकपाल के लिए जो मुहिम चला रखी है, उसकी वजह से भ्रष्टाचार देश में एक बहुत बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। इसलिए देखना यह है कि अन्ना हजारे किस किस्म की सरकार बनाने के लिए उत्तर प्रदेश में प्रयास करते हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर अनेक अटकलें लगाई जा सकती हैं, लेकिन इतना तय है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बसपा और मुलायम सिंह यादव की सपा के बीच ही होगा। बाकी पार्टियां सिर्फ किंगमेकर का ही काम कर सकती हैं। क्योंकि जो अनुमान हैं, उनसे यही लगता है कि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सकेगा।
लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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