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नए साल में राजनीतिक दलों की चुनौतियां

जागरण मेहमान कोना
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चुनाव आयोग ने पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान कर दिया है। अधिसूचना के मुताबिक 30 जनवरी से लेकर 3 मार्च के बीच मतदान की प्रक्रिया संपन्न होगी और 4 मार्च से वोटों की गिनती शुरू होगी। पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में जहां चुनाव एक-एक दिन में संपन्न हो जाएंगे, वहीं उत्तर प्रदेश में मतदान सात चरणों में होगा। देखा जाए तो राजनीतिक दलों के पास अपनी नीतियों के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कम समय होगा। चूंकि चुनाव एक साथ सभी पांच राज्यों में होना तय है, इस नाते राजनीतिक दलों को काफी जोर मशक्कत दिखानी होगी। मुख्य रूप से उन स्टार प्रचारकों को तो और, जिनकी मांग सर्वाधिक है। ऐसे में चुनावी रणनीतिकारों का कुशल चुनाव प्रबंधन तो कसौटी पर होगा ही, साथ ही चुनाव आयोग को भी कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा। इन सबके बीच राज्यवार राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो तस्वीर बेहद ही धुंधली और उलझी नजर आ रही है। छोटे राज्यों में बड़ी चुनौतियां जिन छोटे राज्यों में चुनाव होना है, उनमें अगर सबसे पहले गोवा की बात करें तो यहां विधानसभा की कुल 40 सीटें हैं और कांग्रेस की सरकार है।


भारतीय जनता पार्टी मुख्य विपक्षी दल है। गोवा सरकार पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे हैं। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में सरकार को घेरने का अच्छा मौका हाथ लग सकता है, लेकिन मुख्य मुकाबला एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होगा। उत्तराखंड में विधानसभा की कुल 69 सीटें हैं और यहां भाजपा की सरकार है। कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है और भ्रष्टाचार को लेकर वह मुखर है, लेकिन पिछले दिनों भाजपा ने रमेश चंद्र पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री पद से हटाकर और भुवनचंद्र खंडूड़ी के हाथ सत्ता की लगाम थमाकर चुनौतियों से निपटने में तत्परता दिखाई है। मुख्यमंत्री खंडूड़ी ने लोकपाल बिल पारित कर भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस की कर्कश आवाज को कुंद कर दिया है। इसका फायदा भाजपा को मिल सकता है, लेकिन चुनाव में कांग्रेस से उसे कड़ी टक्कर मिलनी भी तय है।


मणिपुर विधानसभा की कुल 60 सीटों में आधी सीटें जीतकर सरकार बनाने वाली कांग्रेस के सामने इस बार मुख्य विपक्षी दल सीपीआइ से चुनौती मिलनी तय है। भले ही भाजपा को पिछले चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं हुई हो, लेकिन आगामी चुनाव में वह लड़ाई को त्रिकोणात्मक बनाने की हरसंभव कोशिश कर सकती है। 116 विधानसभा सीटों वाले पंजाब में भाजपा और शिरोमणि अकाली दल की मिली-जुली सरकार है। कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है। अन्य राज्य सरकारों की तरह पंजाब सरकार पर भी भ्रष्टाचर के गंभीर आरोप हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए भ्रष्टाचार का मुद्दा हथियार का काम कर सकता है। देखने वाली बात यह होगी कि भाजपा और उसके दल अपना अस्तित्व कैसे सुरक्षित रख पाते हैं। उत्तर प्रदेश का गुणा-भाग राजनीतिक दलों के बीच सियासी महाभारत का सबसे बड़ा कुरुक्षेत्र उत्तर प्रदेश बनने जा रहा है, जो स्वाभाविक भी है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है और इसके चुनाव परिणाम देश की दिशा और दशा दोनों को हमेशा से प्रभावित करते आए हैं।


आगामी विधानसभा चुनाव के नतीजे भी दूरगामी साबित हो सकते हैं। केंद्र में कांग्रेस की नेतृत्ववाली संप्रग सरकार काबिज है और उसे उत्तर प्रदेश के दो सबसे बड़े दल जिनमें एक बसपा जो सत्ता पर काबिज है और दूसरी सपा जो मुख्य विपक्षी दल है, द्वारा समर्थन दिया जा रहा है। मजे वाली बात तो यह है कि सियासी मैदान में ये एक-दूसरे के आमने-सामने भी हैं। अब चुनाव बाद जो परिस्थितियां बनेंगी, वे केंद्र सरकार के लिए कितनी अनुकूल होगी, यह देखने वाली बात होगी। अगर राज्य के वर्तमान राजनीतिक हालात पर ध्यान टिकाया जाए तो किसी भी राजनीतिक दल की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। सब आंतरिक और बाह्य चुनौतियों से घिरे हुए हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव परिणाम के अनुसार उत्तर प्रदेश में भाजपा तीसरे नंबर पर और कांग्रेस चौथे पायदान पर है। पर माना यही जा रहा है कि मुख्य मुकाबला बसपा, सपा, भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होगा। लेकिन मुकाबले को रोचक बनाने के लिए ऐसे क्षेत्रीय दलों की भी कमी नहीं है, जिनका आधार भले ही बहुत व्यापक न हो, लेकिन अपनी उपस्थिति मात्र से वे अन्य राजनीतिक दलों का खेल बनाने और बिगाड़ने में पूरी तरह सक्षम हैं। इनमें अजित सिंह की नेतृत्व वाली रालोद, डॉ. अयूब की पीस पार्टी, अमर सिंह की लोकमोर्चा, अपना दल और राजा बुंदेला की बुंदेलखंड कांग्रेस आदि। पर देखा जाए तो तस्वीर बेहद अस्पष्ट है। किसी भी राजनीतिक दल के पक्ष बयार बहती नहीं दिख रही है। शोर बहुत है, लेकिन उस शोर में सन्नाटा ज्यादा है। राजनीतिक दल आग उगल रहे हैं, लेकिन जनता चुप है।


चुनाव में विकास का मुद्दा गौण होने लगा है। सियासतदां जाति-मजहब की राजनीति पर उतर आए हैं। जाति और मजहब की रैलियां भी होने लगी हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आगामी विधानसभा चुनाव भी जाति और धर्म के हथियार से ही लड़ा जाएगा। मायावती की मुश्किलें अगर सबसे पहले सत्तारूढ़ बसपा की सियासी जमीन की पड़ताल करें तो वह लगातार खिसक रही है। भ्रष्टाचार ने सरकार की नींव को हिलाकर रख दिया है। मनरेगा और एनएचआरएम घोटाले में सरकार के वजनदार मंत्रियों की संलिप्तता, कानून-व्यवस्था की बदतर स्थिति, हत्या, बलात्कार और लोकायुक्त की जांच में कई मंत्रियों पर संगीन आरोपों की पुष्टि इस बात की तस्दीक करती है कि सरकार पटरी से उतर गई है। हालांकि मायावती ने उत्तर प्रदेश विभाजन का फैसला लेकर और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की मांग कर भ्रष्टाचार को नेपथ्य में डालने की पूरी कोशिश की है, लेकिन उनकी यह कवायद कामयाब होती नहीं दिख रही है। विपक्षी दलों ने हवा निकाल दी है। जिस सोशल इंजीनियरिंग के दम पर उन्होंने अपने साम्राज्य का गठन किया, उसका शिराजा भी बिखरने लगा है। जिन जातिवादी मोहरों को वह चुनावी बिसात पर आगे कर अपनी राह आसान करती रही हैं, वे खुद अपने ही समाज के कठघरे में खड़े हो गए हैं। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने माया सरकार से केंद्रीय योजनाओं के लिए आवंटित धन का हिसाब मांगकर उनकी फजीहत में इजाफा कर दिया है। इसके अलावा भाजपा नेता किरीट सोमैया ने मायावती के भाई आनंद कुमार और सरकार के रणनीतिकार सतीशचंद्र मिश्रा पर भ्रष्टाचार का संगीन आरोप लगाकर रही सही कसर पूरी कर दी है। देखने वाली बात यह होगी कि आरोपों से चौतरफा घिरी मायावती अपने विरोधियों से कैसे निपटती हैं। लेकिन मुश्किलों के दौर में सिर्फ माया ही नहीं हैं, बल्कि मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी है। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने पारंपरिक जनाधार यानी यादव और मुस्लिम मतों को सहेजना है, जो उसके लिए कठिन चुनौती बनता जा रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी, कौमी एकता दल और अपना दल उसके पारंपरिक मतों में सेंध लगाते देखे जा रहे हैं। वहीं पश्चिम में अजित सिंह और कांग्रेस की युगलबंदी एक नई चुनौती बन गई है।


कांग्रेस और सपा का संकट सपा अमर सिंह को भले ही अपने लिए खतरा न माने, लेकिन हकीकत है कि वह सर्वाधिक नुकसान सपा का ही करेंगे। वे चुन-चुनकर उन समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपना उम्मीदवार बना रहे हैं, जिन्हें सपा ने टिकट नहीं दिया है। सपा के अलावा कांग्रेस के घर में भी कम कलह नहीं है। टिकट बंटवारे को लेकर पार्टी में जबरदस्त घमासान मचा है। भले ही कांग्रेस मुस्लिम आरक्षण के बूते उत्तर प्रदेश के सियासी मैदान को फतह कर लेना चाहती हो, लेकिन भ्रष्टाचार के मसले पर उसका असली चेहरा देश के सामने आ चुका है। अगर कहीं टीम अन्ना ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मुखालफत की तो उसकी रणनीति को पलीता लगते देर नहीं लगेगी। उत्तर प्रदेश में भाजपा भी संक्रमण के दौर से गुजर रही है। वह चुनावों को लेकर कितनी गंभीर है, इसी से समझ में आ जाता है कि अभी तक वह अपना प्रत्याशी तक तय नहीं कर पाई है।


लेखक अभिजीत मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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