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चुनाव सुधार पर भी शुरू हो बहस

जागरण मेहमान कोना
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जन लोकपाल बिल पर अन्ना का आंदोलन रंग लाता दिख रहा है। टीम अन्ना ने यह संकेत भी दे दिया है कि यह मुहिम भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा देने वाले अन्य मुद्दों को भी शामिल करेगी। चुनाव सुधार भी ऐसा ही एक मसला है, जो आम जनता को आंदोलित कर रहा है। लोकतंत्र को धनिकतंत्र में तब्दील करने वाली चुनाव प्रक्रिया को हटाने के लिए तुरंत राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत है। इस गंदगी की सफाई के लिए भ्रष्ट और आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों को बढ़ावा देने वाले राजनीतिक दलों को कानूनी दायरे में लाना बेहद अहम है। उत्तर प्रदेश समेत कुछ राज्यों में चुनावी मौसम जोर पकड़ने लगा है। जिताऊ प्रत्याशी पाने के लिए पार्टियां पलक पांवड़े बिछाकर बैठ गई हंै। जिताऊ सीट पाने के लिए नेता कपड़ों की तरह धड़ाधड़ पार्टियां बदल रहे हैं। कोई भी डूबते जहाज पर बैठकर नदी नहीं पार करना चाहता। जाहिर है कि ऐसे विधायकों के लिए पार्टी, सिद्धांत और विचारधारा कोई मायने नहीं रखते। सत्ता में बने रहना उनका एकमात्र मकसद है, जिससे उनका भ्रष्ट सिंडिकेट बगैर अड़चन के काम करता रहे।


चुनाव के ऐन वक्त पहले जनप्रतिनिधियों के दल बदलने को गंभीर नहीं माना जाता, लेकिन आंकड़ों को खंगाला जाए तो पता चलेगा कि ऐसा करने वाले नेतागण ही चुनाव के बाद दल-बदल और विधायकों की खरीद-फरोख्त का हिस्सा होते हैं। इनमें से ही ज्यादातर आपराधिक और भ्रष्ट कामों में लिप्त और धन-बल-छल के सहारे चुनाव जीतकर आए राजनेता शुमार हैं। बदकिस्मती से चुनाव आयोग इस पर लगाम लगाने में असमर्थ है। उसके पास पर्याप्त संवैधानिक हथियार नहीं हैं। राजनीतिक दल और नेताओं को संविधान, नैतिकता और कानून के दायरे में बांधना नहीं सुहाएगा। मौजूदा दलबदल कानून निष्प्रभावी साबित हुआ है। होना यह चाहिए कि नई पार्टी में शामिल होने पर जनप्रतिनिधि के लिए अपने पद से इस्तीफा देना अनिवार्य किया जाए। साथ ही उस पर नई पार्टी की ओर से मंत्रिपद या लाभ का कोई और पद ग्रहण करने पर रोक लगे। इससे सरकार बनाने-गिराने के लिए हो रही खरीद-फरोख्त पर लगाम लगेगी। राजनीतिक दलों ने येन केन प्रकारेण चुनावी प्रक्रिया को बंधक बना रखा है। ये पार्टियां अपने संविधान में बदलाव कर चुनाव पूर्व दल-बदल पर रोक लगाएंगी, ऐसी उम्मीद करना बेमानी है।


आपराधिक छवि वाले दागी प्रत्याशियों को टिकट न देने के मामले में उनकी बेहयाई पहले से ही जगजाहिर है। जिन जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले हैं, उनकी फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई पर फैसला भी अरसे से लटका है। ऐसे में चुनाव सुधार का दूसरा दौर राजनीतिक दलों पर केंद्रित हो तो बेहतर नतीजे मिलेंगे। इस मुद्दे पर जनमत तैयार कर सरकार को विवश करना होगा कि वह चुनाव आयोग को ऐसी शक्तियां दे, जिससे सत्ता के लालच में चुनाव पूर्व पार्टी बदलने वालों को सबक सिखाया जाए और राजनीतिक दलों को भी लोकतांत्रिक और संवैधानिक दायरे में बांधा जा सके। दलबदल के मामले में चुनाव के छह महीने या साल भर पहले पार्टी बदलने वाले नेताओं को आगामी चुनाव में उतरने की इजाजत न मिले या किसी अधिकृत पार्टी से चुनाव लड़ने के लिए उस दल की कम से कम दो साल की सदस्यता को अनिवार्य बनाया जा सकता है। चुनाव के ठीक पहले सीट बदलकर जिताऊ पार्टी खोजने वालों को झटका लगेगा। नए उम्मीदवार को चुनाव लड़ने के लिए किसी राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय पार्टी का कम से कम पांच साल सदस्य होना जरूरी बनाया जाए। इससे आयातित और थोपे गए लोगों की उम्मीदवारी कम होगी और पार्टी के अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा। अक्सर देखा गया है कि बड़े नेताओं ने अपने बेटों और परिवारजनों को टिकट दिला दिया। जब इन राजनीतिक नौसिखियों ने चुनाव लड़ने की उम्र बस पूरी ही की थी। राजनीतिक दलों से उम्मीदवारों के चयन में अमेरिकी पद्धति ज्यादा लोकतांत्रिक और पारदर्शी प्रतीत होती है। किसी क्षेत्र से उम्मीदवार तय करने के लिए पार्टी में पहले आंतरिक चुनाव होता है। उस क्षेत्र से पार्टी का कोई भी प्रतिनिधि चुनाव लड़ने का दावा ठोक सकता है। फिर वोटों के आधार पर तय होता है कि कौन उस दल का अधिकृत उम्मीदवार होगा। यही परंपरा यहां भी लागू हो तो राजनीतिक दलों में व्याप्त तानाशाही खत्म होगी। राजनीतिक दलों की बाढ़ भी चिंताजनक है।


चुनाव आयोग को नई पार्टियों को मान्यता देने का अधिकार तो है, लेकिन किसी दल की मान्यता रद करने का नहीं। राजनीतिक दलों को मान्यता देने, उसे रद करने, उसके आंतरिक संविधान से लेकर सांगठनिक ढांचे को परिभाषित करने वाला कानून समय की मांग है। ज्यादातर राजनीतिक दल अपने मनमुताबिक संविधान बनाकर पार्टी को अधिनायकवादी व्यवस्था में तब्दील कर लेते हैं। परिवारवाद और वंशवाद पर टिके तमाम दल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। चुनाव में धन के बेतहाशा इस्तेमाल से हमारा लोकतंत्र धनिकतंत्र में तब्दील होता जा रहा है। दलों को ऐसे पूंजीपति उम्मीदवारों की तलाश होती है, जो चुनाव प्रचार में अंधाधुंध रकम खर्च कर सकें। संसदीय चुनावों में खर्च की वैधानिक सीमा 25 लाख रुपये तक हो गई है, जो देश के 95 फीसदी लोगों के बूते के बाहर है। आयोग को यह बात समझनी होगी कि धुआंधार प्रचार, उम्मीदवारों का लाव-लश्कर भी मतदाताओं को प्रभावित करता है। चुनाव में काले धन का इस्तेमाल और उपहार बांटने वाले उम्मीदवारों को अगर पकड़ भी लिया जाता है तो उनकी उम्मीदवारी चुनाव आयोग रद नहीं कर सकता। ऐसे में राजनीतिक दल और उनके नेता आचार संहिता का मखौल उड़ाते हैं।


चुनाव आयोग ने महिला एवं अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को प्रचार के लिए धन मुहैया कराने पर विचार कर रखा है, लेकिन इससे सबको राजनीतिक प्रतिनिधित्व के समान अवसर नहीं मिलते। होना तो यह चाहिए कि चुनाव आयोग का स्वयं का एक न्यायिक प्रकोष्ठ हो, जो आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों पर विचार करे और मामले की गंभीरता के हिसाब से जुर्माना लगाने से लेकर उम्मीदवारी रद करने तक की सजा तय कर सके। आपराधिक मामला भी अलग चलता रहे। एक और समस्या चुनाव के दौरान अक्सर मतदाताओं के समक्ष विकल्पहीनता की स्थिति है, क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि कोई भी उम्मीदवार उनका प्रतिनिधित्व करने के योग्य है। नेगेटिव वोटिंग यानी किसी को वोट नहीं का विकल्प भी मतदाताओं को मिलना चाहिए। कोई भी उम्मीदवार 50 फीसदी वोट हासिल न कर सके तो पहले दो या तीन प्रत्याशियों के बीच दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि राजनीतिक दलों की गतिविधियों, उनके हिसाब-किताब और चुनाव में भागीदारी तक के बारे में एक कानूनी ढांचा तैयार हो, जिससे उन्हें अनुशासित रखा जा सके और चुनाव प्रक्रिया को ज्यादा स्वच्छ और पारदर्शिता मिल सके। इससे लोकतंत्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल खुद लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाने के लिए मजबूर हों। यह चुनाव सुधार की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।


इस आलेख के लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं


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