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आसान है उम्मीदवारों को नकारना

जागरण मेहमान कोना
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Rajinder sacharअन्ना हजारे ने अपना अनशन तोड़ते समय घोषणा की थी कि उनका अगला कदम चुनाव सुधार का होगा। उन्होंने कहा कि खासतौर पर उम्मीदवारों को नकारने और जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार के लिए वह अभियान छेड़ेंगे। केंद्र सरकार खुद को जनमत के साथ प्रदर्शित करना चाहती है। यहां ऐसा करने का एक अवसर मौजूद है। निर्वाचन में नकारने या अस्वीकृत करने की लोगों की मांग को पूरा करना बहुत मुश्किल कार्य नहीं है। जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में चुनाव में खड़े होने और वोटिंग के संबंध में विस्तृत व्यवस्था दी गई है। सरकार ने 1961 में चुनाव संहिता की व्यवस्था की। इसमें मतदान की प्रक्रिया तय की गई और ऐसे प्रावधान किए गए कि निर्वाचन की गोपनीयता बनी रहे।


इलेक्ट्रानिक मतदान मशीन के प्रवेश से पहले मतदान का मतलब था मतपत्र। नियम 49(एम) में इवीएम के माध्यम से मतदान में गोपनीयता और प्रक्रिया सुनिश्चित करने के प्रावधान हैं। इसमें जिस उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करना होता है उसके नाम के सामने बटन दबाया जाता है। नियम 49(ओ) के अनुसार कोई निवार्चक अपना वोट देना नहीं चाहता तो उसे पीठासीन अधिकारी द्वारा प्रपत्र 17 पर टिप्पणी दर्ज करनी चाहिए और इस पर मतदाता के हस्ताक्षर कराने चाहिए, किंतु यह प्रक्रिया दोषपूर्ण और पुरानी है, क्योंकि इसमें मतपत्र के बजाए इवीएम के जरिये होने वाले मतदान का ध्यान नहीं रखा गया है। यह प्रक्रिया इसलिए अवैध भी है कि ऐसा करने वाले मतदाता की पहचान को उजागर कर दिया जाता है। यह गोपनीयता के साथ मतदान के मूल अधिकार का उल्लंघन है। इस असंगति को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग 2001 से लगातार केंद्र सरकार को ईवीएम व्यवस्था में उम्मीदवार के नकार के लिए स्थान बनाने को लिख रहा है।


सरकार द्वारा कार्रवाई न करने पर पीयूसीएल ने 2004 में सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दायर की थी कि अदालत केंद्र सरकार को नियम 49(ओ) में बदलाव का आदेश पारित करे। याचिका पर दो जजों की पीठ ने विचार करने के बाद इसे 2009 में बड़ी पीठ को सौंप दिया। सुप्रीम कोर्ट में अब तक इस मामले की सुनवाई नहीं हो पाई है, किंतु सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के बावजूद सरकार को इस नियम में आवश्यक बदलाव करने का अधिकार है।


मुझे लगता है कि ईवीएम में उम्मीदवारों के नकार का प्रावधान होने से राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आएगा। फिलहाल, मतदाता के साथ एक मूक पशु समान व्यवहार किया जाता है। उम्मीदवारों में से एक को भी योग्य न पाकर भी उसे किसी न किसी को चुनने को मजबूर होना पड़ता है। वर्तमान में मतदाता की उम्मीदवारों के चुनाव में कोई भूमिका नहीं है, जैसाकि ब्रिटेन और शुरुआती चरण में अमेरिका में होता है। उम्मीदवारों के नकार का अधिकार सत्ता समीकरण में बड़ा परिवर्तन लाएगा। इससे बड़ी राजनीतिक पार्टियों की अपेक्षा आम मतदाताओं को लाभ होगा। इस प्रावधान से गोपनीयता का अधिकार भी भंग नहीं होगा और मतदाता अयोग्य उम्मीदवार और उसके राजनीतिक आकाओं तक अपना आक्रोश भी पहुंचा सकेगा।


वर्तमान में, जब अवांछित उम्मीदवार के नामांकन से मतदाता चिढ़ा हुआ महसूस करता है तो वह घर पर बैठकर वोट न डालने का फैसला करता है। इस तरह उसका आक्रोश प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त नहीं होता, किंतु बदली परिस्थिति में गोपनीयता सुनिश्चित होने के बाद मतदाता आत्मसंतुष्ट राजनीतिक दलों को मजबूत संदेश दे सकेगा और उन्हें आम लोगों की बात सुनने को बाध्य कर पाएगा। बटन दबाकर मतदाता बड़े उम्मीदवार को छोटे में तब्दील कर सकता है।


अगर सरकार साफ-सुथरी राजनीति को लेकर वास्तव में चिंतित है तो वह कानून में संशोधन कर नकार के अधिकार को लागू कर सकती है। इस अधिकार को न्यायोचित ठहराने वाले सिद्धांत स्वत: स्पष्ट हैं। उम्मीदवारों के नकार के अधिकार से उस प्रहसन पर विराम लग जाएगा, जिसमें मतदाता सबसे कम स्वीकार्य उम्मीदवार को मतदान करने पर बाध्य होता है। इसके माध्यम से मतदाता राजनीतिक दलों की पसंद के भाग्य का निर्धारण कर पाएगा, बावजूद इसके कि पार्टियां मतदाताओं की पसंद तय करें। ऐसे तमाम मतदाता और गैरमतदाता जो मतदान न करके तमाम उम्मीदवारों को अस्वीकृत करते हैं, नई व्यवस्था में सार्थक मतदान से यही काम कर सकते हैं। इस अधिकार से मतदाताओं और पार्टियों में संतुलन और अंकुश कायम हो सकेगा।


ईवीएम में तमाम उम्मीदवारों के नकार का प्रावधान होने से समस्त उम्मीदवारों की सूची के अंत में ‘नकार’ या ‘अस्वीकृत’ का बटन होगा। अगर नकार को तमाम उम्मीदवारों के बीच सबसे अधिक वोट मिलते हैं तो किसी को भी विजेता घोषित नहीं किया जाएगा और नए उम्मीदवारों के साथ फिर से चुनाव कराया जाएगा। अगर नकार को सबसे अधिक वोट मिलने के कारण मतदान रद होने और फिर दोबारा चुनाव करने का प्रावधान लागू करना है तो इसके लिए विधेयक लाने की जरूरत पड़ेगी। यह राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी होगी कि उम्मीदवारों के चुनाव का फैसला पार्टी के किसी गुट का ही विशेषाधिकार नहीं है। इससे चुनाव के शुरुआती चरण में ही मतदाताओं की भागीदारी बढ़ जाएगी। गलत चुनाव का परिणाम होगा नया चुनाव। मेरे ख्याल से केंद्रीय सरकार तत्काल नियम 49(ओ) को संशोधित कर अन्ना हजारे के आंदोलन से हुए नुकसान की भरपाई कर सकती है। इससे मतदाताओं की श्रेष्ठता भी सिद्ध हो सकती है।


लेखक राजेंद्र सच्चर पूर्व न्यायाधीश हैं


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