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नकारने का भी मिले अधिकार

जागरण मेहमान कोना
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अन्ना ने लोकपाल के बाद चुनाव सुधार को अपना अगला एजेंडा बनाया है। भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए एक प्रभावी और निष्पक्ष लोकपाल के साथ-साथ चुनाव सुधार दूसरी सबसे बड़ी आवश्यकता है। अन्ना के जन आंदोलन का मकसद राजनैतिक और सरकारी क्षेत्रों से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए ठोस एवं कारगर कानून बनवाना भी है। आज राजनीतिक सत्ता का मतलब अपना, अपने दल के निजी स्वार्थो की पूर्ति तक सिमट गया है। कई केंद्रीय मंत्रियों से लेकर अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री सहित अधिकांश मंत्री, सांसद, विधायक, सभासद से लेकर ग्राम पंचायत के प्रधान और सरपंच के साथ-साथ तमाम सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके हैं।


सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की शिकायत जनता पहले अपने जनप्रतिनिधियों से करती थी, लेकिन जब से सांसद और विधायक निधि के साथ-साथ नगर निगम के सभासदों को विकास कार्यो की संस्तुति का अधिकार मिला, तब से अधिकांश जनप्रतिनिधि और सरकारी कर्मचारी मिलकर भ्रष्टाचार करने लगे और जनता की शिकायतों की अनसुनी करने लगे। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई ठोस कानून या कार्रवाई नहीं करना चाहता है। पिछले दशकों के दौरान हमने यह देखा है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़ हमारी वर्तमान चुनाव प्रणाली और दल-बदल का ट्रेंड रहा है। इसके कारण देश ने राजनीतिक अनीति और पतन का शर्मनाक तमाशा देखा है। विधायकों, सांसदों के समर्थन के साथ-साथ उनके वोटों की खरीद-बिक्री का बाजार पूरी सरगर्मी के साथ चला है।


केंद्र और राज्यों की गठबंधन सरकारें इसका शर्मनाक उदाहरण है। इसमें मुख्य लालच पैसे या मंत्री पद का रहा है। कुल मिलाकर इस गहरी चालबाजी में राजनीतिक आचार संहिता, राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता, दलीय पद्धति का औचित्य और सबसे बढ़कर तो स्वयं भारतीय लोकतंत्र को जो नुकसान हुआ, उसका हिसाब करना कठिन है। दूसरी समस्या यह है कि सत्तारूढ़ दल बड़ी कंपनियों से चुनाव के लिए जो चंदा लेते हैं, उसकी कीमत कंपनियां अपने उत्पादों का दाम बढ़ाकर वसूलती हैं, जिसकी भरपाई अंतत: जनता को ही करनी पड़ती है। इसलिए इसे खत्म करने के लिए तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए, लेकिन अब सवाल यह उठता है कि यह कार्रवाई कौन करेगा। चरम पतन की शिकार भारतीय राजनीति संकट के गंभीर दौर में है।


अधिकारिक जांच एजेसियां सभी राष्ट्रीय पार्टियों के चोटी के नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार और अन्य गंभीर अपराधों से संबंधित आरोप पत्र दाखिल कर चुकी हैं। कुछ राज्यों के वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों की आय से अधिक संपत्ति के मामले की सीबीआइ जांच कर रही है। आरोप है कि संप्रग सरकार इस जांच का डर दिखाकर इनका उपयोग अपने पक्ष में मतदान कराने में करती है। इन परिस्थितियों में दो निष्कर्ष अनिवार्य रूप से निकलते हैं। पहला, मौजूदा राजनीतिक दल केवल अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति समर्पित हैं, उन्हें सार्वजनिक हितों से कुछ लेना-देना नहीं है। दूसरा, कोई राजनीतिक दल जनता के भले के लिए तैयार किए गए नीतिगत कार्यक्रम को लागू करने के लिए खुद में सुधार लाने के बारे में गंभीर नहीं है। कोई पार्टी खुद को इस एजेंडे को अमल में लाने वाले उपयुक्त उपकरण के रूप में विकसित नहीं करना चाहती है। ऐसे में आम जनता के पास ऐसा संवैधानिक हथियार होना चाहिए ताकि वह अपने उस प्रतिनिधि को वापस बुला सके, जिसे उसने चुनकर संसद या विधानसभा में भेज तो दिया है, लेकिन राजनीतिक गुमान में वह क्षेत्र में झांकना ही भूल गया है।


इस आलेख के लेखक निरंकार सिंह हैं


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