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बिजली संकट से निपटने की राह

जागरण मेहमान कोना
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देश में कहीं बिजली की कमी तो कहीं अधिक कीमत लोगों में असंतोष का बड़ा कारण बनती जा रही है। एक तरफ जहां बिजली उत्पादन बढ़ाने की दुहाई दी जाती है, वहींदूसरी ओर बिजली के वर्तमान बड़े स्त्रोत विस्थापन, संभावित खतरों और पर्यावरणीय दुष्परिणामों के कारण विवादों में हैं। फिर चाहे वे ताप बिजलीघर हों या बड़े बांध या परमाणु संयत्र। हाल ही में देश की राजधानी में यह विवाद उस समय तेज हो गए जब बिजली की बढ़ी कीमतों के खिलाफ भाजपा और इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने तीखा विरोध किया। कई जगहों पर बिजली के बिल जला दिए गए। आनान-फानन में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कह दिया कि जो बिल नहीं दे सकते वे बिजली का कनेक्शन कटवा दें। बिजली बुनियादी जरूरत है। मुख्यमंत्री इसे किसी से कैसे छीन सकती हैं? कम से कम इतनी बिजली तो दिल्ली के सभी परिवारों को चाहिए कि लाइट व पंखे की जरूरत पूरी हो सके। यदि कुछ परिवारों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे इतनी बिजली का बिल भी भर सकें तो यह सिर्फ उनकी चिंता नहीं है। यह किसी जन-पक्षीय सरकार की भी चिंता होनी चाहिए। सभी नागरिकों की बुनियादी जरूरतें पूरी करना सरकार की जिम्मेदारी है। इसलिए हमें बिजली की उपलब्धता बढ़ाने की ऐसी राह निकालनी है जो सस्ती भी हो और जिससे पर्यावरणीय खतरों और विस्थापन को भी न्यूनतम रखा जा सके।


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पिछले दिनों पूरे उत्तर भारत में ब्लैक आउट के बाद ऐसी संभावनाओं से भविष्य में बचने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव आए। ट्रिपिंग की संभावना कम करने के लिए आधुनिक तकनीकों का बेहतर उपयोग करने के साथ किसी ग्रिड से बिजली लेने वाले विभिन्न राज्यों में बेहतर अनुशासन की जरूरत पर जोर दिया गया है। क्योंकि जब तक बिजली की मांग और आपूर्ति में असंतुलन रहेगा तब तक बिजली संकट दूर नहीं किया जा सकता है। इस असंतुलन को कम करने के कई तरीके हैं। बिजली उत्पादन व आपूर्ति तेजी से बढ़ाने की योजनाएं सरकार के पास हैं, लेकिन इनमें एक बड़ी समस्या यह है कि पर्यावरण विनाश व विस्थापन की गंभीर समस्याएं इनके साथ जुड़ी हैं। इसलिए चुनौती यही है इनसे बचते हुए कैसे बिजली की कमी को पूरा किया जाए। इसके लिए एक बड़ी जरूरत बिजली की अनावश्यक खपत से बचने की है। अत्यधिक खपत के स्थान पर वास्तविक न्यायसंगत जरूरत को ही सरकारी नीतियों में प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है। पर्यावरण की तबाही के बिना बिजली की जरूरतों को पूरा करने में कर्नाटक में प्रो. अमूल्य के.एन. रेयस्त्री और उनके साथियों ने अमूल्य कार्य किया है। उनके अध्ययनों ने बताया कि बिजली की तमाम वास्तविक जरूरतें पूरी करते हुए भी कर्नाटक में बिजली की जरूरत के अगले 15 वर्ष के जो सरकारी अनुमान हैं, उनमें 44 प्रतिशत तक की कमी की जा सकती है। गांववासियों को पर्याप्त मात्रा में बिजली उपलब्ध करवाते हुए भी यह बचत हो सकती है। प्रो. अमूल्य के इस अध्ययन से पता चलता है कि बिजली की गैर-जरूरी खपत में कमी करने की कितनी संभावना है।


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प्रो. अमूल्य और उनके साथियों ने जो वैकल्पिक योजना तैयार की है उसमें विकेंद्रित बिजली उत्पादन, बिजली के उपयोग को बेहतर करने और उत्पदान के बेहतर विकल्प खोजने पर समुचित ध्यान दिया गया है। दूसरा इसमें पर्यावरण की तबाही करने वाली तकनीकों और परियोजनाओं को त्याग दिया गया है। इस अध्ययन ने बताया कि बिजली की सभी लोगों की जरूरतों को कैसे पूरा किया जा सकता है, जिससे पर्यावरण की क्षति को न्यूनतम किया जा सके और सरकार की मौजूदा योजनाओं की अपेक्षा बजट में भी 40 प्रतिशत की कमी की जा सकती है। इस तरह की वैकल्पिक योजनाएं सभी राज्यों के संदर्भ में बननी चाहिए, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि पर्यावरण की क्षति और उत्पादन खर्च को न्यूनतम रखते हुए बिजली के संकट का समाधान कैसे किया जा सकता है। ऐसे किसी भी प्रयास में विकेंद्रित बिजली उत्पादन, विकल्पों की तलाश, अनावश्यक उपयोग को कम करने, परियोजनाओं के पक्षपातविहीन और संतुलित मूल्यांकन को बेहतर बनाने की ओर समुचित ध्यान देना होगा। विभिन्न बिजली परियोजनाओं का यदि शुरू से सावधानी और निष्पक्षता से अध्ययन किया जाए तो प्राथमिकता के आधार पर सबसे अनुकूल योजनाओं की सूची बनाई जा सकती है। बिजली के विभिन्न स्त्रोतों का सही संतुलन बनाना है तो पहले की अपेक्षा अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों पर कहीं अधिक ध्यान देना होगा। केवल व्यापारिक बिक्री स्तर की बिजली और डीजल उपलब्धि पर नहीं, अपितु ऊर्जा के अन्य तौर-तरीकों पर भी समुचित ध्यान देना चाहिए। गांवों में अनेक कार्र्यो के लिए ऊर्जा के बड़े स्त्रोत परंपरा में रहे हैं, उनकी उपेक्षा क्यों हो रही है? विभिन्न क्षेत्रों की परंपरागत ऊर्जा तकनीकों और तकनीकी कुशलता रखने वाले गांववासियों के अनुभव का भरपूर उपयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए ग्रामीण वैज्ञानिक मंगल सिंह की पेटेंट प्राप्त मंगल टर्बाइन से सिंचाई या पेयजल की जरूरत का पानी उठाने का काम बहुत कम लागत पर बिना बिजली और डीजल के किया जा सकता है।


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केवल इस उपकरण से ही राष्ट्रीय स्तर पर बिजली और ऊर्जा की लागत में करोड़ों रुपए की बचत हो सकती है। पर्वतीय क्षेत्रों में, विशेषकर हिमालय के गांवों में, सदियों से पनचक्की का उपयोग आटा पीसने के लिए होता रहा है। प्राय: लगभग सात फीट के आसपास के पानी गिरने की जगह विभिन्न छोटी नदी-नालियों के बहते पानी में निहित ऊर्जा का प्रयोग चक्की चलाने के लिए किया जाता है। इस पनचक्की को घ्राट, घट या अन्य नामों से पर्वतीय क्षेत्रों में जाना जाता है। यह परंपरागत तकनीक की उत्कृष्टता और अनुकूलता का एक सुंदर उदाहरण माना गया है। ग्रामीण वैज्ञानिक मंगल सिंह ने घ्राट के लाभ को मैदानी क्षेत्रों तक पहुंचाने के लिए भी एक सरल तकनीक सामने रखी है, जिसमें पंप सेट से सिंचाई करते समय भी इस पानी की धार को कुछ परिवर्तित तरह की पनचक्की पर गिराकर चक्की से आटा पीसा जा सकेगा। यह अतिरिक्त भूमिका निभाने के बाद पानी पहले की तरह सिंचाई के उपयोग में आता रहेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस ऊर्जा का उपयोग केवल सिंचाई के लिए हो रहा था, पंपसेट के माध्यम से अब उसी ऊर्जा से आटा भी पीसा जा सकेगा। इसके अतिरिक्त मंगल सिंह ने भैरन, पंखी रहित एक ऐसी परिवर्तित पनचक्की का सुझाव भी दिया है, जिसमें पूली लगाई जाएगी और पूली पर पट्टे चढ़ाकर घ्राट चलेगी। इस परिवर्तित रूप में मंगल टर्बाइन या मंगल व्हील से 3-6 पनचक्कियां एक साथ चलाई जा सकेंगी। जरूरत इस तरह के आविष्कारों को सरकारी योजनाओं में शामिल कर उन्हें बढ़ावा देने की है।


लेखक भारत डोगरा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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