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ऊर्जा उत्पादन की अनेक परियोजनाओं एवं लाख दावों के बावजूद हमारा देश गंभीर ऊर्जा संकट से जूझ रहा है। वैज्ञानिक भी अब यह घोषणा कर चुके हैं कि एक निश्चित समयावधि के बाद परंपरागत ऊर्जा श्चोतों का भंडार समाप्त होने वाला है। शायद यही कारण है कि इस दौर में ऊर्जा उत्पादन के नए-नए तरीके खोजे जा रहे हैं। कुल मिलाकर देश के बिजलीघरों की स्थिति दयनीय है और निकट भविष्य में इस व्यवस्था से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद रखना एक दिवास्वप्न ही है। अत: मौजूदा ऊर्जा संकट को देखते हुए हमें गैर-परंपरागत ऊर्जा श्चोतों की ओर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना होगा। गैर-परंपरागत ऊर्जा श्चोतों में सौर ऊर्जा सबसे महत्वपूर्ण है। सौर ऊर्जा के माध्यम से बिजली उत्पादन को एक नया आयाम दिया जा सकता है। यदि सौर ऊर्जा के माध्यम से गंभीरतापूर्वक बिजली उत्पादन के प्रयास किए जाएं तो शीघ्र ही हम बिजली उत्पादन में एक नया मुकाम हासिल कर सकते हैं। देश के अनेक स्थानों पर सूर्य की किरणों को तापीय एवं फोटोवोल्टिक विधि से ऊर्जा में रूपांतरित किया जा रहा है, लेकिन सरकार की ढुलमुल नीतियों तथा जनता की उदासीनता के चलते ये दोनों विधियां अब तक लोकप्रिय नहीं हो पाई हैं। आज देश के अनेक क्षेत्रों में सौर लालटेन लोकप्रिय हो रही हैं। अनेक राज्यों में तो दूरदराज के कई ग्रामीण चिकित्सा केंद्र भी सौर बिजली का प्रयोग कर रहे हैं। गैर-परंपरागत ऊर्जा श्चोतों में पवन ऊर्जा भी एक महत्वपूर्ण श्चोत है। पवन ऊर्जा उत्पादक देशों की श्रेणी में भारत का पांचवा स्थान है। यदि सरकार पवन ऊर्जा से संबंधित परियोजनाओं पर पर्याप्त ध्यान दे तो भारत इस क्षेत्र में एक क्रांतिकारी भूमिका निभा सकता है।
भारत में पवन ऊर्जा का व्यावसायिक प्रयोग अत्यंत सफल रहा है। भौगोलिक कारणों से पवन ऊर्जा से उत्पादित बिजली का प्रयोग उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक हो रहा है। पवन ऊर्जा उत्पादन से संबंधित परियोजनाएं दक्षिण भारत के सागर तटीय प्रांतों में ही मुख्य रूप से हैं क्योंकि वहां हवा का दबाव अपेक्षाकृत अनुकूल रहता है। अभी भारत में पवन ऊर्जा की तकनीकी संभावना का अनुमान 13,000 मेगावाट ही है। यदि संभावित राज्यों की ग्रिड क्षमता को सुधारा जाए तो इस तकनीकी संभावना को और अधिक बढ़ाया जा सकता है। भारत में 13 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में पवन निरीक्षण केंद्र के आंकड़ों एवं पवन के औसत घनत्व के आधार पर ऐसे स्थलों की पहचान की गई है जहां पर पवन ऊर्जा परियोजनाएं व्यवहारिक हो सकती हैं। बहरहाल अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है। बायोगैस और बायोमास ऊर्जा जैसे गैर-परंपरागत ऊर्जा श्चोतों से भी बिजली संकट से काफी हद तक छुटकारा मिल सकता है। ये श्चोत मुख्यत: ग्रामीण इलाकों में सफलतापूर्वक बिजली उपलब्ध करा सकते हैं। बायोगैस संयंत्रों की स्थापना 1981-82 में चलाए गए राष्ट्रीय बायोगैस विकास कार्यक्रम के अंतर्गत शुरू की गई थी। इस दिशा में गुजरात के मोतीपुरा गांव को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिल चुकी है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला है जलकुंभी में अपार ऊर्जा शक्ति होती है। अत: जलकुंभी के माध्यम से भी बायोगैस की ऊर्जा में वृद्वि की जा सकती है। धान की भूसी, गन्ने की खोई तथा एल्कोहल बनाने वाली आसवनियों से निकले प्रदूषित कचरे के माध्यम से भी बायोगैस उत्पन्न की जा सकती है।
वर्तमान समय में हमारे देश में हर वर्ष लगभग एक अरब पैंतीस करोड़ मैट्रिक टन गोबर एवं पशु अपशिष्ट प्राप्त किया जा रहा है, जिसके माध्यम से बायोगैस उत्पन्न कर 75 फीसद से अधिक बिजली की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। वनस्पतियों के माध्यम से उत्पन्न बायोमास ऊर्जा भी बिजली संकट का एक विकल्प हो सकती है। प:िमी बंगाल, ओडिशा, त्रिपुरा, मिजोरम तथा नागालैंड के कुछ गांवों में बायोमास ऊर्जा के माध्यम से ही बिजली उत्पादित की जा रही है।
रोहित कौशिक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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