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सतह पर राजनीति की विकृति

जागरण मेहमान कोना
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Swapan Dasguptaआपातकाल के दौरान भारत के नागरिक केवल इंदिरा गांधी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम से ही प्रताडि़त नहीं हुए। उन्हें अतिरिक्त प्रताड़ना युवा नेता संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम से भी मिली। संजय गांधी का एक मंत्र था-ज्यादा काम, बातें कम। मुझे याद है उन दिनों दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक होर्डिंग पर लिखा था-नेता सही है, भविष्य उज्जवल है। संजय के विचारों की गहराई में कुछ ‘राष्ट्रविरोधियों’ और ‘अफवाहों के सौदागरों’ ने अपनी कलम से यह भी जोड़ दिया था-बातें कम करें और समझदारी की करें।


इतिहास का एक अध्याय तब कहीं गुम हो गया जब समकालीन ‘युवा प्रेरणा’ ने कहा कि मैं पहले सोचता हूं, फिर बोलता हूं। कांग्रेस के युवराज से पूछा गया था कि उन्होंने इतने लंबे समय तक अन्ना प्रकरण पर चुप्पी क्यों साधे रखी? लोकतांत्रिक भारत के प्रत्यक्ष कांग्रेसी उत्ताराधिकारी ने अपनी गुमनामी से ध्यान हटाते हुए लोकसभा के जीरो ऑवर में ‘मेरा यह स्वप्न है’ जैसा भाषण देकर बड़ी राहत महसूस की होगी। इससे पता चलता है कि कुछ कमियों के बावजूद अन्ना हजारे के आंदोलन ने राजनीतिक दर्जे को खतरे में डाल दिया है और बाबा ब्रिगेड के हेड ब्वॉय को प्रतिक्रिया देने को बाध्य कर दिया, किंतु इससे कांग्रेस की वंशज परंपरा के लाभार्थियों के माथे पर ही बल नहीं पड़े, शरद यादव को भी लोकसभा में अपनी हाजिरजवाबी के लिए मजबूर होना पड़ा, जब उन्होंने देश से बाईस्कोप डब्बे के मोहपाश से निकलने की अपील की। न्यूज चैनलों के बारे में उनकी टिप्पणी भरपूर मनोरंजन से भी आगे निकल गई। जनता दल नेता, जो पूर्व में आंदोलनों में भाग ले चुके हैं और अब छोटे दिखने वाले समाजवादी आंदोलन के पुरोधा रह चुके हैं, इस बात पर खफा थे कि अन्ना का आंदोलन बिल्कुल अलग मुहावरे पर चल रहा है। जैसे वह सवाल उठा रहे हों कि परंपरागत छात्र राजनीति को नकारते हुए नौजवान रामलीला मैदान की ओर क्यों खिंचे चले जा रहे हैं? वे एनएसयूआइ, एबीवीपी, एसएफआइ या इसी प्रकार के अन्य छात्र संगठनों से क्यों नहीं जुड़ रहे हैं? वे विशुद्ध गैरराजनीतिक अन्ना से क्यों जुड़ाव महसूस कर रहे हैं? अन्ना आंदोलन जनलोकपाल बिल की मांग से आगे जाकर विद्यमान राजनीति और राजनेताओं के नकार पर मुहर लगाता है। इससे भारत के सांसद गुस्से में हैं। गुस्सा वाजिब है। अगर भारत की बेहतरी की चिंता करने वाले लोग गैरसरकारी संगठनों, खंडित जन आंदोलन में सुकून पाते हैं तो चुनावी राजनीति विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के बच्चों के लिए खत्म हो जाएगी और वे अपनी जाति और पंथ का लाभ नहीं उठा पाएंगे।


हर व्यवस्था को पुनर्जीवन के लिए नया खून चाहिए। अतीत में, यह आंदोलन की राजनीति से मिल जाता था। इंदिरा गांधी की सिंडिकेट के खिलाफ लड़ाई, जयप्रकाश नारायण आंदोलन, राम आंदोलन, अनेक छात्र प्रदर्शन ऐसे ही आंदोलन हैं। इसके अलावा, विचारधारा की बौद्धिक अपील से पार्टियों को जिंदा रखा जाता था। यहां तक कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी की अतिसक्रियता ने भी कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी पैदा की, जिनमें से बहुत से कांग्रेस में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। जब नि:स्वार्थी लोगों का टोटा पड़ गया तो राजनीतिक आंदोलन भी सूख गए। समाजवादी आंदोलन इसका नमूना है। इस समस्या का सबसे अधिक राहुल गांधी सामना कर रहे हैं। पाश्चात्य देशों में दक्षिणपंथी और वामपंथी, दोनों तरह के दलों ने जिस तरह ईंट-दर-ईंट जोड़कर संगठन खड़ा करने का प्रयास किया उसी तर्ज पर राहुल गांधी ने युवक कांग्रेस को गढ़ने की कवायद की, किंतु यह कवायद राजनीतिक लाभ से अधिक प्रबंधकीय प्रयास भर रह गई। राहुल का रवैया इस तथ्य से समझा जा सकता है कि कांग्रेस, गांधी वंश के दिल्ली पर नियंत्रण को दैवीय अधिकार मानती है, गांधी वंश की राष्ट्रीय परंपरा के पूरक के तौर पर प्रांतीय वंश परंपरा को आगे बढ़ा रही है।

दो-तीन अपवादों को छोड़ दें तो कांग्रेस के सभी युवा सांसद राजनेताओं के बेटे-बेटियां हैं। इनमें से लगभग सभी के पास देश और इसके भविष्य के बारे में कहने को कुछ नहीं है। उनके लिए राजनीति अधिकार का एक जरिया है। अगर कांग्रेस की बंद दुकान की छवि बन गई है तो भाजपा की छवि भी इससे बहुत अलग नहीं है। भगवा पार्टी में वंश परंपरा तो इतना बड़ा मुद्दा नहीं है, किंतु आरएसएस से बाहर का जो भी व्यक्ति इसमें प्रवेश करता है देर-सबेर उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जिस तरह कांग्रेस में वंशों के सदस्य प्रमुखता पाते हैं, उसी तरह भाजपा में आरएसएस के छुटभैये भी महत्वपूर्ण भूमिका में आ जाते हैं। इस प्रकार आरएसएस की सदस्यता विशिष्ट सदस्यता बन गई है, जो सामान्य को विशुद्ध से अलग करती है। इसे हिंदू लेनिनवाद भी कहा जा सकता है।


अन्ना आंदोलन ने प्रमुख राजनीतिक दलों से देश के युवा व मध्यम वर्ग के मोहभंग को उजागर किया है। देश की एक-तिहाई आबादी या तो मध्यम वर्गीय है या फिर इसमें पहुंचने को लालायित है।


अन्ना आंदोलन को इसलिए इतना जनसमर्थन मिला है, क्योंकि यह व्यापक धारणा बनी है कि राजनीतिक तुच्छता के कारण भारत की पूरी क्षमता का दोहन नहीं हो रहा है और भारत को कुशल और ईमानदार सरकार की जरूरत है। भारत की त्रासदी यह है कि इन दोनों पार्टियों में विकृतियां हैं, जो विशेषाधिकार प्राप्त को पुरस्कृत करती हैं और अवसरों को ठुकराती हैं। मेरे विचार में यह भी भ्रष्टाचार का एक प्रकार है।


लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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