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सुप्रीम कोर्ट ने एक हालिया फैसले में एनकाउंटर को बहुत बड़ा अपराध माना है। फैसले में यह कहा गया है कि यदि कोई पुलिस अधिकारी इसका दोषी पाया जाता है तो उसे फांसी की सजा होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पुलिस विभाग में हड़कंप है। पुलिस की स्थिति इधर कुआं उधर खाई जैसी हो गई है। यदि सुप्रीम कोर्ट की ही मानें तो अब कभी कोई पुलिस वाला शातिर अपराधी या आतंकवादी को मारेगा नहीं, बल्कि उसे जाने देगा या फिर खुद ही भाग जाएगा, क्योंकि यदि कहीं से भी यह बात सामने आ जाए कि यह एनकाउंटर था तो पुलिसवाला कभी बच नहीं पाएगा। दूसरी ओर यदि अपराधी या आतंकवादी पुलिसवाले को मार डालते हैं, तब तो किसी प्रकार की बात सामने नहीं आएगी। ऐसे में पुलिसवाला अपना बचाव का ही रास्ता अपनाएगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की तीखी प्रतिक्रिया हुई है। इस संबंध में उत्तर प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी कहते हैं कि इस प्रकार के फैसले का असर पुलिस के नैतिक बल पर पड़ेगा। पुलिस कानून से इतना अधिक डर जाएगी कि अब अपने हथियार चलाने के पहले सौ बार सोचेगी। उसे यह डर रहेगा कि यदि वह हथियार चलाते हैं तो एनकाउंटर की बात सामने आएगी और यदि नहीं चलाते तो अपनी जान मुश्किल में आ जाएगी। इसलिए वे एनकाउंटर करने के बजाय अपराधी को भाग जाने देंगे। कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि पुलिस वाले किसी भी रूप में राजनीतिज्ञों या पुलिस अधिकारियों के दबाव में न आए व्यावहारिक दृष्टि से यह असंभव काम है। सामान्य रूप से पुलिस एनकाउंटर सरकार के दबाव में ही कराए जाते हैं। यदि पुलिस ने बड़े अधिकारियों की बात न मानी तो उसके परिणाम कितने भयानक होंगे, यह पुलिसवाला ही अच्छी तरह से जानता है।
आंध्र प्रदेश पुलिस ऑफिसर्स एसोसिएशन के प्रेसीडेंट केवी चलपति राव का मानना है कि पुलिस पर चारों तरफ से अन्याय हो रहा है। वह कहते हैं कि जब किसी गैंगस्टर से मुठभेड़ हो रही हो तो इस दौरान यदि कोई पुलिसवाला मारा जाता है तो कोई मीडियाकर्मी या दूसरे सामाजिक संगठन उसकी खोज-खबर लेने नहीं आते, लेकिन अगर पुलिस के हाथों कोई मारा जाता है तो उसे नकली एनकांउटर बताने के लिए मानो होड़ लग जाती है। इस पर राजनीति की जाती है, हो-हल्ला मचता है और उस पर जांच बिठा दी जाती है। सामान्य रूप से सुप्रीम कोर्ट इस तरह का कोई फैसला देती है तो मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले सामने आ जाते हैं। पर आश्चर्य की बात यह है कि इस फैसले के आने के बाद कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही है।
मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले एक आंदोलनकारी ने कहा कि वह इससे कतई खुश नहीं है। इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट को भले ही मानवाधिकारों के संरक्षक के तौर पर लोकप्रियता हासिल कर ले, लेकिन सच तो यही है कि कानूनी रूप से यह बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है। नकली एनकाउंटर के दोषी पुलिस अधिकारी को फांसी पर चढ़ा दिया जाए यह कोई समस्या का समाधान नहीं है। यदि नकली एनकाउंटर की समस्या से हमेशा के लिए निजात पाना है तो इसके लिए दूसरे और रास्तों से समाधान की तलाश की जाए। पुलिस अधिकारी को फांसी पर चढ़ा देने से होगा ये कि भविष्य में कोई एनकाउंटर नहीं होगा। सभी अपराधी या आतंकवादी भागने के पहले पुलिस अधिकारियों को मार डालेंगे या फिर पुलिस अधिकारी स्वयं ही अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़ा होगा। इससे पुलिस का मनोबल तो टूटेगा ही साथ ही फांसी का डर सुरक्षा व्यवस्था को और अधिक कमजोर बना देगा। यह एक सच्चई है। नकली एनकाउंटर के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का बार-बार बदलते विरोधाभासी निर्णय भी एक चिंता का विषय हैं। इसे कभी पुलिस वालों की विवशता के रूप में भी देखा जाए। पुलिस की नीयत पर संदेह करने के पहले यदि नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन यानी मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट देख ली जाए तो बेहतर होगा। पुलिस एनकाउंटर के जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उसकी जांच में यह पाया गया है कि 1993 से अब तक इस तरह के 2956 मामले सामने आए हैं। इसमें से 1366 मामले नकली एनकाउंटर के बताए गए, लेकिन जब इन मामलों की गहराई से जांच की गई तब यह तथ्य सामने आया कि इनमें से केवल 27 मामले ही नकली एनकाउंटर के थे। समाजसेवी मानते हैं कि नकली एनकांउटर के मामले में धारा 21 का स्पष्ट रूप से उल्लंघन होता है। इस धारा में कहा गया है कि कानूनी प्रक्रिया में मार्गदर्शन के अलावा किसी भी व्यक्ति का जीवन या उसकी आजादी ले लेना अपराध की श्रेणी में आता है।
नकली एनकाउंटर के बढ़ते मामले को देखते हुए एनएचआरसी ने नवंबर 1996 में एक गाइडबुक का प्रकाशन किया और 2003 में यह जोड़ा कि यह मार्गदर्शिका नकली एनकाउंटर के मामले में एफआइआर और पुलिस की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली मौत की तमाम घटनाओं की जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जांच जैसे नियमों का समावेश किया गया है। इस गाइडलाइन का कोई मतलब ही नहीं है, क्योंकि संस्था के पास इतने अधिकार नहीं हैं कि वह कोई कार्रवाई कर सके। इससे पुलिस की कार्यशैली और नकली एनकाउंटर की प्रक्रिया पर किसी तरह का कोई असर नहीं होगा। सच्चाई यही है कि इस तरह की मार्गदर्शिका से न तो सरकार डरती है और न ही पुलिस, यदि ऐसा होता तो परिणाम भी जमीन पर दिखाई देते। अब समय आ गया है जब इस दिशा में हवाई किले बनाने से अच्छा है कि कुछ ऐसा किया जाए कि पुलिस वालों का मनोबल भी न टूटे और दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा भी हो। हर विभाग में और हर कहीं ईमानदान और बेईमान लोग होते हैं। बेईमान लोगों को सजा देने के प्रयास में यदि ईमानदार दंडित होने लगे तो इसका परिणाम कम से कम अच्छा तो नहीं ही होगा। इस समस्या का समाधान तो तलाशना ही होगा। देश की सुरक्षा को लेकर आज जितने भी मामले सामने आ रहे हैं उसमें पुलिस की भूमिका को हमेशा संदिध माना जाता है। पर पुलिस कितने दबाव में काम करती है इसे भी जानने की आवश्यकता है। अगर दोषी पुलिस अधिकारियों को फांसी की सजा दी जाने लगी तो आतंकवादियों और शातिर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाएंगे, क्योंकि उन्हें मालूम है कि हमें मारने वाला पुलिस अधिकारी भी बच नहीं पाएगा। संभव है वे ही उस पुलिस अधिकारी को ठिकाने लगा दें। दोनों ही मामलों में कानून की लंबी प्रक्रिया चलती है इस दौरान अन्य पुलिसकर्मियों में यह भावना घर कर जाती है कि यदि वे मुस्तैदी से अपना काम करते हैं तो उस पर आरोपों की बौछार शुरू हो सकती है।
पुलिस वाला आतंकवादियों के हाथों मारा जाता है तो कहीं कोई आंदोलन नहीं होता पर यदि पुलिस वाले के हाथों कोई मारा जाता है, तो उसे नकली एनकाउंटर का मामला बना दिया जाता है। ऐसे में कोई क्यों हथियार उठाए? आतंकवादी को भाग देने या घटनास्थल से भाग जाने में ही पुलिस वाले की भलाई है तो फिर पुलिस क्यों खतरा उठाए?
लेखक महेश परिमल एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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