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यूरोप में राजनीतिक तूफान

जागरण मेहमान कोना
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छह मई को यूरोप के छह देशों में हुए चुनाव के नतीजों का निहितार्थ तलाश रहे हैं राजीव शर्मा

 

यूरोप महाद्वीप कर्ज के बोझ तले कराह रहा है। विश्व के सबसे छोटे किंतु सबसे धनी महाद्वीप पर परिवर्तन की हवा चल रही है। इसका सबसे अधिक असर राजनीतिक परिवर्तन के रूप में देखने को मिल रहा है। आयरलैंड से इटली तक अनेक देशों में खर्च में कटौती पर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है। छह मई को फ्रांस, ग्रीस, जर्मनी, सर्बिया, इटली और अर्मेनिया में हुए मतदान में यह आक्रोश परिवर्तन के रूप में सामने आया है। फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को सरकारी खर्च में कटौती का नतीजा भुगतना पड़ा और समाजवादी नेता फ्रांसुआ ओलेंड ने उन्हें पटकनी दे दी। नए राष्ट्रपति के रूप में ओलेंड के उत्कर्ष में निहित है कि समाजवादी शासन अब फ्रांस और शेष यूरोप के वित्तीय संकट में अधिक हस्तक्षेप करेगा। ग्रीस में जनादेश ने दोनों प्रमुख पार्टियों को दंडित किया। कटौती विरोधी एलेक्सिस सिपराज के साइरिजा समूह को तगड़ा झटका लगा और उसे दूसरे स्थान पर सिमटना पड़ा।

 

वामपंथी गठबंधन को सरकार के गठन का जनादेश मिला। यह गठबंधन देश के 130 अरब यूरो के बर्बर बचाव समझौते की शर्तो को राजनीतिक पक्षाघात बता रहा है। यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति जर्मनी में पाइरेट पार्टी को राज्यों के चुनावों में तीसरी जीत हासिल हुई। छोटे उत्तरी राज्य श्क्लेसविग-होल्स्टेन में पार्टी को छह सीटें और 8.2 फीसदी वोट मिले। इन परिणामों के साथ ही पाइरेट्स पार्टी ने लगातार तीसरी जीत हासिल की और एक साल के अंदर यह हाशिये से मुख्यधारा में आ गई है। पाइरेट्स ने मार्च में सारलेंड में हुए चुनाव में चार सीटें जीती थीं और पिछले वर्ष बर्लिन के चुनाव में 15 संसदीय सीट हासिल की थी। सर्बिया में विपक्षी दल प्रोग्रेसिव पार्टी ने नजदीकी मुकाबले में बाजी मार ली। यहां नेताओं में सर्बिया के यूरोपीय संघ में होने के भविष्य के मुद्दे पर जंग छिड़ी थी। रूस समर्थित तोमिस्लाव निकोलिक की प्रोग्रेसिव पार्टी को 24 फीसदी वोट मिले जबकि राष्ट्रपति बोरिस तादिक की पार्टी डेमोक्रेट्स महज 22.09 प्रतिशत वोट ही हासिल कर पाई।

 

इटली के कॉमेडियन बेपे ग्रिलो के जमीन से जुड़े फाइव स्टार आंदोलन और वाम दलों को स्थानीय निकाय चुनावों में सबसे अधिक सीटें मिलीं। खर्च में कटौती से त्रस्त मतदाताओं ने पूर्व प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी की पार्टी और उसके सहयोगी दलों को नकार दिया। चुनाव 942 शहरों में हुए थे और इनमें सबसे अधिक फायदा ग्रिलो को हुआ, जो राजनेताओं की खिल्ली उड़ाते हैं और इटली के यूरो के दायरे से निकलने के समर्थक हैं। मारियो मोंटी के प्रधानमंत्री के रूप में चुने जाने के बाद यह इटली में पहला चुनाव था। आर्मेनिया में, राष्ट्रपति सिर्ज सरगिसाइन की वफादार पार्टी ने 131 सीटों वाले संसदीय चुनाव में अधिकांश में जीत हासिल की। यह चुनाव आर्मेनिया में चार साल पहले हुए चुनावों में सरगिसाइन के चुनाव के विरोध में भड़के दंगे के चार साल बाद हुए थे। वह आर्मेनिया की आजादी के बाद के तीसरे राष्ट्रपति थे। ऑर्गेनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी एंड कोऑपरेशन इन यूरोप ने इन चुनावों में धांधली का आरोप लगाया था।

 

यूरोप के छह देशों में हुए चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण फ्रांस के राष्ट्रपति का चुनाव था, इसलिए इस पर विस्तार से चर्चा की जरूरत है। फ्रांस में पिछले 24 साल में पहली बार समाजवादी राष्ट्रपति बना है। फ्रांसुआ ओलेंड की जीत के विश्व पर दूरगामी और व्यापक प्रभाव पड़ेंगे। इस समय विश्व यूरोप के कर्ज, अफगानिस्तान युद्ध, ईरान पर गतिरोध और वैश्विक कूटनीति के संकट से गुजर रहा है। संभवत: ओलेंड की जीत के पीछे उनके इस नायाब विचार का बड़ा हाथ रहा कि वह अमीरों पर 75 फीसदी कर लादेंगे और उन कंपनियों पर करों की दर बढ़ाएंगे जो अपने लाभ को व्यापार में निवेश करने के बजाय अंशधारकों को भारी लाभांश दे रही हैं। इसके विपरीत सरकोजी ने फ्रांस में कर की दरों को कम करने का वादा किया था, जो विश्व में सबसे अधिक हैं। यद्यपि उन्होंने बिक्री कर को बढ़ाने की बात भी की थी। ओलेंड के अनोखे प्रस्ताव के खिलाफ इंटरनेट पर टिप्पणियों की बाढ़ आ गई थी। इनमें कहा गया था कि अमीरों पर मोटा कर लगाने का नतीजा यह होगा कि वे फ्रांस से बोरिया-बिस्तरा समेटकर अमेरिका में बस जाएंगे। इस प्रकार एक झटके में अमेरिका का वित्तीय संकट खत्म हो जाएगा और फ्रांस आर्थिक दलदल में और गहरा धंस जाएगा।

 

सरकोजी की हार के फ्रांस और विश्व पर तात्कालिक और दीर्घकालीन राजनीतिक निहितार्थ होंगे। फ्रांस में राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए समाजवादियों और धुर दक्षिणपंथियों के बीच सत्ता संघर्ष छिड़ जाएगा। विश्व पर यह असर पड़ेगा कि ओलेंड अमेरिका के उतने करीब नहीं होंगे, जितने सरकोजी थे। ईरान और सीरिया के मुद्दे पर सरकोजी का वाशिंगटन को कट्टर समर्थन अब ओलेंड के समय में कम हो जाएगा। नए राष्ट्रपति सरकोजी द्वारा लिए गए विदेश नीति पर अनेक फैसलों को पलट भी सकते हैं। संभावना है कि वह अफगानिस्तान में फ्रांस की सैन्य उपस्थिति को कम कर देंगे, जबकि सरकोजी ने इसमें वृद्धि की थी और फ्रांसिसी सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस लाएंगे। इसके अलावा ओलेंड कूटनीतिक दबंगई के लिए अन्य देशों में सैनिक भेजने की नीति से भी पल्लू झाड़ सकते हैं। सरकोजी ऐसा करने में जरा भी नहीं हिचकते थे। इसका ताजा उदाहरण है गद्दाफी के खिलाफ नाटो के हवाई हमलों में फ्रांस ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।

 

ओलेंड के सामने तात्कालिक काम प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करना है। इस पद पर वह ज्यां मार्क आयरोल्त के नाम की घोषणा कर सकते हैं। समाजवादी संसदीय समूह के महत्वपूर्ण नेता होने के साथ-साथ ज्यां मार्क के जर्मनी के साथ भी अच्छे रिश्ते हैं। ओलेंड की प्राथमिकता में सबसे ऊपर जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल के साथ मिलकर काम करना होगा, जिन्होंने ओलेंड की दावेदारी को समर्थन दिया था। तो यूरोपीय चुनावों का क्या मतलब निकलता है? नतीजों से साफ हो जाता है कि धुर-वाम और धुर-दक्षिण दोनों तरह की पार्टियों को लाभ हुआ है, जिन्होंने पूरे यूरोप में व्याप्त आर्थिक संकट का दोहन किया है। यूरोप में हालिया राजनीतिक रुझान धुर-वाम और धुर-दक्षिण सशक्तिकरण के पक्ष में है। चुनावों में अतिवादी पार्टियों की पहचान, उनके लक्ष्यों और मूल्यों पर मुहर लगी है जबकि मुख्यधारा के उम्मीदवारों को उनकी गलतियों की सजा दी गई है।

 

 लेखक राजीव शर्मा वरिष्ठ स्तंभकार हैं

 

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