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पूंजीवाद का धर्मसंकट

जागरण मेहमान कोना
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Gurcharan Dasआर्थिक संकट से घिरी पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने के लिए इसमें नैतिक मूल्यों की स्थापना पर जोर दे रहे हैं गुरचरण दास


उत्तर प्रदेश में आगामी चुनाव के माहौल को देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी अस्पताल में आपातकालीन ऑपरेशन चल रहा हो। दोनों में ही दिमाग में तरह-तरह के ख्यालात आते है। विश्व आर्थिक व्यवस्था, जिसे पूंजीवाद कहा जाता है, बड़े संकट से जूझ रही है, किंतु उत्तर प्रदेश के लोगों का इस ओर कोई ध्यान नहीं है। उन्हे तो बस इससे मतलब है कि लखनऊ में उन पर कौन शासन करेगा। अमेरिका और यूरोप, दोनों की माली हालत खस्ता है। यहां तक कि भारत की अर्थव्यवस्था भी धीमी पड़ गई है। रिटेल में एफडीआइ को लेकर हुई हालिया बहस से साफ हो गया है कि हम बाजार को लेकर अभी भी शंकालु है। भारत में यह मानने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है कि बाजार से समृद्धि पैदा होती है, किंतु हममें से बहुत से अब भी यह मानते है कि पूंजीवाद एक नैतिक व्यवस्था नहीं है। हम मानते रहे कि नैतिकता धर्म पर निर्भर करती है। यह गलत है, क्योंकि मानव हित से ही सद्व्यवहार सुनिश्चित होता है। जो दुकानदार अपने ग्राहकों के साथ विनम्रता से पेश नहीं आता वह उन्हे खो देता है। जिस कंपनी के उत्पाद खराब होते है उससे ग्राहक दूर हो जाते है। जो कंपनी योग्य कर्मचारी तैनात नहीं करेगी वह अपने प्रतिस्पर्धियों के हाथों पिछड़ जाएगी। जो खरीददार बाजार मूल्य का भुगतान नहीं करेगा वह काम नहीं कर पाएगा। मुक्त बाजार नैतिक आचरण को प्रोत्साहित करता है, जिसका सरकारी संस्थान भी समर्थन करते है, इसलिए यह समझौतों का पालन करता है और आपराधिक व्यवहार को दंडित करता है।


अगर बाजार अंतर्निहित नैतिकता पर आधारित है तो उसमें इतनी धोखाधड़ी क्यों है? इसका जवाब यह है कि हर समाज में धोखेबाजों का स्वाभाविक वितरण होता है और बाजार भी इसका अपवाद नहीं है। इसीलिए हमें प्रभावी नियामकों, पुलिसकर्मियों और जजों की आवश्यकता पड़ती है। हमें अपने संस्थानों में ऐसे उपाय करने चाहिए कि जालसाज पकड़े जाएं, किंतु किसी भी निर्दोष की प्रताड़ना न हो।


कुछ लोगों का मानना है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद ने हम पर पूंजीवाद थोप दिया है। यह भी गलत है। नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रेडरिक हायेक ने बाजार को स्वत: स्फूर्त व्यवस्था बताया है और इस प्रक्रिया में प्रत्येक समाज बाजार में मुद्रा, कानून, विश्वास और नैतिकता से निर्देशित व्यवहार करता है। ये मानव प्रयास के सहज उत्पाद है। बाजार में प्रकृति की नैतिकता स्वतंत्रता के विचार से शुरू होती है। कोई भी व्यक्ति कोई भी उत्पाद खरीद या बेच सके या कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद का काम कर सके। प्रतिस्पर्धा और सहयोग भी बाजार में स्वाभाविक रूप से आने चाहिए। यहां तक कि दो किसान, जो एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से पसंद नहीं करते, भी अपने हितों के लिए आपसी सहयोग करते है।


आधुनिक उद्यमिता में टीम वर्क बहुत अहम है, क्योंकि हर कोई एक-दूसरे पर निर्भर है। लोग पूंजीवाद को लेकर इसलिए शंकालु है, क्योंकि वे बाजार के हित को निहित स्वार्थ समझ लेते है। एक स्वार्थी व्यक्ति दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करता है, किंतु आत्म-हित एक सामान्य तार्किक मानव व्यवहार है। उदाहरण के लिए बरसात के दिनों में मैं छाता लेकर घर से निकलता हूं। इसमें कुछ भी स्वार्थ नहीं है। सस्ते से सस्ते दाम पर खरीदकर महंगे से महंगे दाम में बेचना एक तार्किक आत्म-हित है। हम इसे पसंद करे या नहीं, भारत कुछ इसी प्रकार के लोकतांत्रिक पूंजीवाद की दिशा में बढ़ रहा है। हमें चुनाव में उन राजनेताओं को दंडित करना चाहिए जो लचर नीतियां बनाते है और उन्हे पुरस्कृत करना चाहिए जो बाजार जैसे उदार संस्थानों के बारे में लोगों को सजग करते है। गरीबी को जीतने का यही तरीका है।


वैश्विक आर्थिक संकट का सबसे घातक असर यह पड़ सकता है कि हम लोकतांत्रिक पूंजीवादी व्यवस्था में भरोसा खो दें। खेल के नियम बदलने के लिए नीति-निर्माताओं को धर्म का संदेश देना चाहिए, जो नैतिक विफलताओं और पूंजीवाद की नीति के सूक्ष्म अंतर पर प्रकाश डाल सके। धर्म के गुण, कर्तव्य या नियम हो सकते है, किंतु इसका प्रमुख ध्येय सही काम करना है। नैतिक कानून प्रत्येक मानव और पूरी दुनिया को संतुलन और व्यवस्था प्रदान करता है। यह अवधारणा हमें वर्तमान आर्थिक संकट से निकाल सकती है।


महाभारत में द्रौपदी प्रसंग से धर्म का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। वह उन्हे जुएं में हारने वाले अपने पति युधिष्ठिर से कहती है कि सेना खड़ी करो और अपना खोया साम्राज्य हासिल करो। इस पर युधिष्ठिर कहते है कि उन्होंने बाजी हारने के दंड स्वरूप 13 साल के बनवास का वचन दे दिया है। द्रौपदी कहती है कि अच्छा होने से क्या फायदा? क्या इस अन्यायपूर्ण संसार में अच्छा होने से बेहतर ताकतवर और धनी होना नहीं है? अच्छा क्यों हुआ जाए? इसके जवाब में युधिष्ठिर कहते है-मैंने यह काम इसलिए किया, क्योंकि धर्म के अनुसार मुझे यही करना चाहिए। युधिष्ठिर का जवाब धर्म की आवाज है। हम सब आश्वस्त हो सकते है अगर हमारी कंपनियों के अधिक सीइओ भी धर्मसंकट के समय कहे कि मैंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि मुझे यही करना चाहिए। अच्छे कर्मो का अच्छा फल मिलता है और कर्म धर्म का संतुलन स्थापित करते है। अगर लोग अपने वचन को तोड़ देते है, तो सामाजिक ढांचा और कानून का शासन ध्वस्त हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को खुशहाल और संपन्न जीवन जीने के लिए धर्म की आवश्यकता पड़ती है।


धर्म हित और स्वार्थ के बीच सूक्ष्म रेखा खींचता है। अगर द्वेष समाजवाद का पाप है तो लालच पूंजीवाद का। जैसे-जैसे पूंजीवादी राष्ट्र विकसित होते है, संपदा का ह्रास होने लगती है। बचतकर्ताओं की पीढ़ी शाहखर्च में बदल जाती है। तीखी स्पर्धा मुक्त बाजार की विशेषता है और यह विनाश कर सकती है, किंतु यह आर्थिक टॉनिक भी हो सकता है, जो मानव कल्याण की ओर ले जाता है। आज नीति निर्माताओं को मुक्त बाजार और केंद्रीय योजना के बीच से चुनाव नहीं करना है, बल्कि नियमन में सही संतुलन कायम रखना है। कोई भी उत्पादन में सरकारी स्वामित्व नहीं चाहता, जहां प्रतिस्पर्धा का अभाव गुणवत्ता को चट कर जाता है। धर्म का मतलब नैतिक परिपूर्णता से नहीं है, जो अपरिहार्य रूप से तानाशाही और एकलसत्ता की ओर ले जाता है। इससे तात्पर्य है कि अधिक चाहत व्यक्ति की प्रकृति होती है और यह हमारी इच्छाओं को भी अनुशासित करके काबू में रखता है।


लेखक गुरचरण दास प्रख्यात स्तंभकार हैं


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