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अपना रुख साफ करे कांग्रेस

जागरण मेहमान कोना
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जन आकांक्षाओं से खेल रही संप्रग सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं। अभी तक सरकार राजनीतिक दलों की लामबंदी और संसद की सर्वोच्चता का डर दिखाकर अन्ना की लड़ाई को कमजोर कर रही थी, लेकिन अब अन्ना ने भी लोकपाल की नैतिक लड़ाई को राजनीति का खोल पहनाकर सरकार को डराना शुरू कर दिया है। जंतर-मंतर पर सांकेतिक अनशन के दिन उनके बुलावे पर भाजपा, जद-यू, वामदल, बीजद, तेलगूदेशम व सपा जैसे दलों सार्वजनिक तौर पर आना और लोकपाल के महाबहस में भाग लेना सरकार की हार और अन्ना की रणनीतिक जीत को ही संदर्भित करता है। अन्ना की रणनीति से न केवल सरकार चिंतित हो उठी है, बल्कि उन आलोचकों का भी मुंह बंद हो गया जो गाहे-बगाहे टीम अन्ना पर तानाशाही और मनमर्जी करने का आरोप लगाते थे। राजनीतिक दलों को महाबहस में आमंत्रित कर अन्ना ने साबित कर दिया कि संसदीय लोकतंत्र में उनकी पूरी आस्था है और उन पर आरोप लगाने वाले गलत हैं। इससे उन लोगों के मुंह पर भी ताला लटक गया जो कहते नहीं अघाते थे कि अन्ना के आंदोलन के पीछे आरएसएस का हाथ है। अब टीम अन्ना को सभी विपक्षी दलों का समर्थन हासिल हो गया है और यह ऐलान भी कि अगर सरकार सशक्त लोकपाल बिल पारित नहीं करती है तो आगे की लड़ाई और तेज होगी। इससे सरकार के रणनीतिकारों में खलबली मचना स्वाभाविक है। अब सरकार टीम अन्ना को सांप्रदायिक करार दे रही है।


रणनीतिकारों की इस बुद्धि पर तरस आती है कि आखिर वे जनभावनाओं को क्यों नही समझ पा रहे हैं? यह पहला मौका है जब सिविल सोसायटी और राजनीतिक दल लोकपाल के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ लामबंद हुए हैं। न केवल टीम अन्ना, बल्कि विपक्षी दल भी स्थाई समिति की रिपोर्ट से नाराज हैं। सब आहत हैं कि लोकपाल को लेकर संसद में जो भावना व्यक्त की गई थी उसे सरकार दरकिनार कर रही है। स्थाई समिति की रिपोर्ट में न तो प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखा गया है और न ही निचले दर्जे के अफसर और कर्मचारियों को। साथ ही सांसदों के आचरण और जजों के भ्रष्टाचार को भी लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है। केंद्रीय कानून के मार्फत ही राज्यों में भी लोकायुक्त के गठन की बात थी जिसे समिति ने खारिज कर दिया है। ऐसे में विपक्ष और टीम अन्ना का भड़कना स्वाभाविक है। रही बात विपक्षी दलों की तो वे सरकार की चालबाजी, हठधर्मिता और वादाखिलाफी से आजिज आ चुके हैं। वे चाहकर भी महंगाई, भ्रष्टाचार और कालाधन के सवाल पर सरकार की घेराबंदी नहीं कर पा रहे हैं। एफडीआइ का मुद्दा भी हाथ लगा वह भी सरक गया।


सरकार ने उसे बर्फखाने में डाल दिया। आज विपक्ष निहत्था है। इन परिस्थितियों में उसके समक्ष लोकपाल से बेहतर मुद्दा और अन्ना से बेहतर मंच भला क्या हो सकता है? राजनीतिक दलों को साथ लेना टीम अन्ना की भी मजबूरी बन गई है। टीम अन्ना को आभास हो चला है कि राजनीतिक दलों को साथ लिए बगैर संसदीय लोकतंत्र में लोकपाल की लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता। टीम अन्ना अपनी भंग होती एकता, सदस्यों पर लगने वाले गंभीर आरोप एवं अन्य उलझनों से विचलित है। टीम अन्ना को यह भी डर है कि पहले जैसा उन्हें जनसमर्थन हासिल होगा कि नहीं। ऐसे में राजनीतिक दलों का साथ लेना उनके लिए जरुरी हो गया। अन्यथा राजनीतिक दलों से परहेज करने वाली टीम अन्ना को ऐसी क्या गरज पड़ी की राजनीतिक दलों को महाबहस के लिए आमंत्रित करना पड़ा? याद होगा आंदोलन के पहले चरण में राजनीतिक दलों के नुमाइंदों को टीम अन्ना और उनके समर्थकों ने जंतर-मंतर से खदेड़ दिया था। इस घटना को लेकर राजनीतिक दलों में गहरी नाराजगी थी। अपनी भूल सुधारने के लिए टीम अन्ना की चाहे जो भी विवशता हो, लेकिन सच यही है कि उसकी रणनीति के आगे सरकार घुटने पर आ गई है।


जंतर-मंतर पर विपक्ष द्वारा एक स्वर में अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली स्थाई समिति की रिपोर्ट को खारिज किया जाना और उसे संसद की भावना के विपरीत बताना टीम अन्ना की अपेक्षा के अनुरुप ही है। महाबहस में सभी के निशाने पर कांग्रेस ही रही। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने अपनी पार्टी का रुख साफ करते हुए कहा कि स्थाई समिति ने देश से किए गए वादे को तोड़ने का काम किया है। शासन और सरकार में जितने भी व्यक्ति हैं उन सभी को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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