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निर्यात बढ़ाने के लिए कैसी हो नीति

जागरण मेहमान कोना
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Jayantilal Bhandariइन दिनों देश की नई विदेश व्यापार नीति को अंतिम रूप दिया जा रहा है। नए परिदृश्य में निर्यातकों द्वारा नई विदेश व्यापार नीति में निर्यात बढ़ाने के लिए नए प्रोत्साहन, सुविधा, सहूलियतें और सरलता की अपेक्षाएं की जा रही हैं। पिछले वित्त वर्ष में निर्यात के लिए तय 300 अरब डॉलर के लक्ष्य के नतीजे अपेक्षा के अनुकूल नहीं हैं। आगामी वित्त वर्ष भारतीय निर्यातकों के लिए अपेक्षाकृत अधिक चुनौती भरा होगा। इसलिए वर्ष 2013-14 तक निर्यात को 500 अरब डॉलर के निर्धारित लक्ष्य तक ले जाने में भी भारी कठिनाइयां होंगी। निर्यात घटने और आयात बढ़ने के कारण विदेश व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। वस्तुत: वर्ष 2010-11 में भारत का विदेश व्यापार घाटा 132 अरब डॉलर के स्तर पर था जिसके वर्ष 2011-12 के दौरान 170 अरब डॉलर तक पहुंचने के संकेत हैं। घाटे के तेजी से बढ़ने का मुख्य कारण बढ़ते हुए आयात और घटते हुए निर्यात हैं। देश की आगे बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के साथ आयात बढ़ रही है। देश में जिस तेजी से तेल का आयात बढ़ा है उससे तेल का आयात बिल चिंताजनक संकेत दे रहा है। भारत में कुल तेल की खपत का तीन चौथाई हिस्सा आयात होता है। यह लगातार बढ़ता जा रहा है। तेल के अलावा दूसरी चीजों के आयात में भी तेजी दर्ज की गई है। भारत का निर्यात घटने के पीछे अमेरिका और यूरोपीय देशों की आर्थिक बदहाली सबसे प्रमुख कारण है।


यूरो जोन अर्थव्यवस्थाओं में खतरे से भारतीय निर्यात प्रभावित हुआ है। भारत के कुल निर्यात का लगभग 35 प्रतिशत अमेरिका और यूरोप के बाजार में पहुंचता है। इन देशों में भारतीय निर्यात के जो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं उनमें जेम्स ऐंड ज्वैलरी, लेदर, टेक्सटाइल, आइटी, फार्मा और कुछ अन्य सेवा क्षेत्र शामिल हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश के वाणिज्य मंत्रालय ने कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे निर्यात क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद बंधी है। देश की ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल्स, इलेक्ट्रॉनिक, केमिकल, इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, ग्रीन टेक्नोलॉजी, लेदर, टेक्सटाइल और दूसरे अन्य क्षेत्रों के निर्यात को बढ़ाने के लिए नई पहल की गई है। निर्यात बढ़ाने के लिए ढुलाई लागत कम करने पर भी ध्यान दिया गया है। कई देशों में नया निर्यात बाजार खोजने की कवायद है। इन सबके बावजूद निर्यात की राह में कई मुश्किलें हैं। महंगे ब्याज, मांग में कमी, उत्पादन लागत और मजदूरी में बढ़ोतरी की वजह से भारतीय निर्यात क्षेत्र को वैश्विक बाजार में कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है। देश के निर्यातक अपेक्षा कर रहे हैं कि नई विदेश व्यापार नीति में भारतीय निर्यात को वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाने की रणनीति पर विचार हो। सरकार द्वारा परंपरागत पश्चिमी बाजारों की कमजोरी को देखते हुए निर्यात के नए और वैकल्पिक बाजार खोजने की तलाश में आगे बढ़ना होगा।


आसियान देशों में निर्यात बढ़ाने के नए प्रयास करने होंगे। चीन में भी भारतीय निर्यात की नई संभावनाएं तलाशनी होंगी। माना जा रहा है कि भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझौता यानी एफटीए के लागू होने के बाद भारतीय उद्योगों के लिए असीम अवसर पैदा हुए हैं। भारत आसियान देशों में निर्यात बढ़ा सकता है। इसी तरह खाड़ी देशों में भारत की निर्यात संभावनाएं उभरकर सामने आ रही हैं। लैटिन अमेरिकी देशों के साथ व्यापारिक संभावनाओं को खंगालने की नई पहल तेजी से आगे बढ़ाई जानी चाहिए। लैटिन अमेरिका के चिली, कोलंबिया, कोस्टारिका, डोमिनिकन रिपब्लिक, पनामा, पेरू और त्रिनिदाद व टोबैगो के साथ भारत का कारोबार तेजी से बढ़ सकता है। लैटिन अमेरिकी देशों में भारतीय निर्यातकों के लिए फार्मा, आर्गेनिक केमिकल, ऑटो पा‌र्ट्स, पेट्रोलियम उत्पाद व टेक्सटाइल क्षेत्र में काफी संभावनाएं हैं। अफ्रीकी देशों में भारत के निर्यात को बढ़ावा देने के प्रयास बढ़ाने होंगे। पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, भूटान, थाईलैंड और नेपाल के साथ निर्यात बढ़ाने की नई कोशिशें जरूरी होंगी।


भारतीय निर्यातक ब्रिक्स देशों के साथ कारोबार करने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। ऐसे में मार्च 2012 के अंतिम सप्ताह में नई दिल्ली में आयोजित ब्रिक्स के चौथे शिखर सम्मेलन के दौरान स्थानीय मुद्रा में कारोबार करने के फैसले से काफी मदद मिलेगी। बढ़ती निर्यात चिंताओं के बीच देश के निर्यातकों का मानना है कि नई विदेश व्यापार नीति में उनकी मदद के लिए सरकार द्वारा कुछ जोरदार कदम उठाए जाने चाहिए। भारतीय निर्यात को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बनाए रखने के लिए निर्यातकों को कम ब्याज दर पर धन उपलब्ध कराया जाना चाहिए। वस्तुत: यह दर चीन सहित दुनिया के अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक है। इसके साथ ही सरकार के द्वारा निर्यातक इकाइयों को सस्ती और सुगम बिजली उपलब्ध करानी होगी। देश की निर्यातक इकाइयों में बुनियादी ढांचे की कमी हमेशा कष्ट देती है। भारत के इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में निवेश की कमी रही है, लेकिन एक-दो साल से नीतिगत मोर्चे पर फैसले न ले पाने की दिक्कतों से भी निवेश में कमी आई हैं। बिजली, परिवहन और ब्रॉडबैंड सहित हमारे बुनियादी विकास में जो बाधाएं सामने आ रही है उनसे निपटने के लिए हमें चीन की निर्यात नीति पर ध्यान देना चाहिए। चीन ने 1990 के दशक में ही इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में एक लाख बीस हजार करोड़ डॉलर के निवेश का लक्ष्य निर्धारित कर दिया था, जबकि भारत अब जाकर एक लाख करोड़ डॉलर खर्च करने की योजना बना रहा है।


चीन में हर साल इन्फ्रास्ट्रक्चर पर 25 फीसदी खर्च बढ़ाया जाता रहा है, लेकिन भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंसिंग क्षेत्र में भारी दिक्कतें हैं। नई विदेश व्यापार नीति को अंतिम रूप देते समय इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि वर्ष 2008 की मंदी से भी अधिक चिंताजनक 2012 की वैश्विक मंदी हो सकती है। इसके दुष्परिणामों से निर्यात तथा उद्योग-कारोबार को बचाने के लिए जिस तरह अमेरिकी और यूरोपीय बैंक सस्ती ब्याज दरों की बौछारें कर रहे हैं वैसी अपेक्षाएं भारतीय उद्योग जगत को भी है। भारत में भी निर्यात ब्याज दर घटाना होगा और निर्यातकों को करों में रियायतें देनी होंगी। मुद्रा परिवर्तनीयता पर लगने वाले सेवा कर को समाप्त करने के साथ-साथ विदेशों से मंगाई जाने वाली मशीनरी टैक्स को भी खत्म किया जाना चाहिए। ऐसे भी प्रावधान किए जाने चाहिए जिससे निर्यातकों को कई प्रकार की कठिन प्रक्रिया अपनानेसे छूट मिले। इन सबके साथ-साथ नई विदेश व्यापार नीति में मार्केट स्कीम व प्रोडक्ट स्कीम से निर्यातकों को लाभान्वित करना चाहिए। निर्यात के ऊंचे लक्ष्य को पाने के लिए नई विदेश व्यापार नीति को ऐसे प्रावधानों से सुसज्जित करना होगाा जिससे निर्यात में दुनिया के अन्य देशों से मिल रही कड़ी प्रतिस्पर्धा का मुकाबला करने के लिए भारतीय निर्यातक खड़े हो सकें और गुणवत्तापूर्ण उत्पादक के रूप में अपनी अलग पहचान बनाते हुए देश के निर्यात लक्ष्यों को हासिल कर सकें।


लेखक जयंतीलाल भंडारी आर्थिक मामलों के जानकार हैं


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