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21वीं सदी अपने बारहवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह विगत यात्रा महत्वपूर्ण है। इस कालखंड में भारत अपनी परंपरागत छवि का आवरण उतारकर नूतन वैश्विक पहचान बनाने में पूरी तरह सफल रहा है। आर्थिक उदारता, सूचना प्रौद्योगिकी में वैश्विक धाक, खेल व चिकित्सा के क्षेत्र में नए आयाम के साथ-साथ सूचना के अधिकार, मानवाधिकार, मंगल व चंद्रमा जैसे ग्रहों तक पहुंच के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष और नई तरह की विदेशी कूटनीति आदि ऐसी सुखद उपलब्धियां हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। इन सबके बावजूद भारत के विकास की तस्वीर का दूसरा आयाम थोड़ा तकलीफदेह है। पिछले कुछ वर्षो में हमने उदार अर्थव्यवस्था के नाम पर भूमंडलीकरण अपनाया, परंतु हमारा त्याग बाजारवाद के इस भोगवादी स्वरूप के सामने बौना पड़ने लगा। इस वर्ष जो घोटाले सामने आए, भ्रष्टाचार को लेकर लोकपाल आंदोलन का घमासान पूरे वर्ष गूंजता रहा। इसके अलावा आतंकवाद पर काबू न पा पाने और इसके लगातार विस्तार आदि ऐसे मुद्दे रहे जिनसे देश का मस्तक झुका भी। विगत वर्षो की अपनी प्रगति के साथ-साथ हमें इस वर्ष की चुनौतियों पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है। कहना न होगा कि नई तारीख से जुड़ा यह नव वर्ष केवल उन्हीं लोगों के लिए खुशी लेकर आएगा जिनकी देश की आजादी के बाद आमदनी में पांच सौ गुना वृद्धि हुई है।
यह नया वर्ष उन लोगों के लिए भी खुशहाली लेकर आएगा जिनके बीस फीसदी हाथों में 85 फीसदी उत्पादन के साधन हैं, 60 फीसदी ऊर्जा तथा 87 फीसदी वाहनों पर उनका कब्जा है। हो सकता है ऐसे 60 फीसदी वंचित लोगों को इस नव वर्ष से कोई सरोकार ही न हो जो अपनी बुनियादी अधिकारों के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। विचारणीय बिंदु यह है कि इस नव वर्ष के मिथ्या उल्लास में पांचसितारा होटलों में मदिरा सेवन पर जितना व्यय होगा उतना व्यय भारतीय जनसंख्या के कुपोषित बच्चों को नई जिंदगी, बुनियादी शिक्षा से वंचित करोड़ों बच्चों को शिक्षा, अंधी आंखों को रोशनी तथा अपाहिजों को अपने पैरों पर खड़ा होने का सहारा दे सकता है। संविधान और भारतीय राजनीतिज्ञों से देशवासियों को अनेक उम्मीदें बंधी थी कि देश की भौतिक प्रगति एवं विकास में यह अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। परंतु सच यही है कि देश के नीति-निर्माताओं ने देश के पटल पर उभरती नई सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक अस्मिताओं को अपने निजी स्वार्थ में प्रयोग करते हुए नए सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक संघर्ष को जन्म दिया है। आने वाले वर्ष में भौतिक विकास के साथ-साथ इन नई जातीय व धार्मिक अस्मिताओं के उभरने की बहुत बड़ी चुनौती होगी। सेवा क्षेत्र के लगातार विस्तार से भारतीय परिवारों में यह प्रश्न इस वर्ष भी चिंता का विषय रहेगा कि क्या आने वाले वर्ष में एकल परिवारों को और गति मिलेगी? क्या इस वर्ष भी सामाजिक रिश्तों में कड़वाहट और अधिक बढ़ेगी और क्या बच्चों को परिवार का वात्सल्य, संवेदनाओं का अहसास तथा मूल्य व संस्कारों की विधिवत सीख मिल पाएगी? ये कुछ ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं जो इस वर्ष भी उत्तर की तलाश में खड़े रहेंगे।
आंकड़े बताते हैं कि देश में आज 60 वर्ष से ऊपर के लोगों की संख्या लगभग 15 फीसदी है। यदि 55 वर्ष से 60 वर्ष तक के लोगों को बुजुर्गो की श्रेणी में गिन लिया जाए तो यह संख्या 25 फीसदी के आसपास पहुंच जाती है। कड़वी सच्चाई यह है कि 70 साल से अधिक उम्र के लगभग 75 फीसदी वृद्ध वृद्धाश्रमों में रहने को विवश हैं। देश में इस समय 1018 वृद्धाश्रम हैं। इनमें से 150 से अधिक ऐसे हैं जिनमें बुजुर्गो को रहने के लिए शुल्क देना पड़ता है। इसके साथ-साथ बीमार व वरिष्ठ नागरिकों के लिए मात्र 374 तथा वृद्ध महिलाओं के लिए देश में मात्र 118 वृद्धाश्रम हैं। निश्चित ही बुजुर्गो की निरंतर बढ़ रही जनसंख्या के हिसाब से वृद्धाश्रमों की यह संख्या उनके लिए बहुत कम है। जिस प्रकार दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों में वृद्ध असामाजिक तत्वों के सॉफ्ट टारगेट बन रहे हैं। उसे देखते हुए नए वर्ष में अकेले बड़े-बूढ़ों की सुरक्षा एक चुनौती होगी। भारत में लगभग 44 फीसदी श्रमशक्ति निरक्षर व अकुशल है। तकरीबन 17 फीसदी माध्यमिक शिक्षा तथा 11 फीसदी उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। भारत में एक करोड़ कामगार लोग प्रतिवर्ष बढ़ जाते हैं। इनमें कार्य व कौशल क्षमता का नितांत अभाव है जो युवाशक्ति केवल स्नातक हैं उनकी बौद्धिक क्षमता कम होने के साथ श्रम कौशल योग्यता शून्य है। भारत में केवल 16 फीसदी निर्माण इकाइयां ही अपने संस्थानों में कौशल प्रशिक्षण उपलब्ध कराती हैं।
चीन में श्रमशक्ति के अच्छे उत्पादक होने का कारण यह है कि वहां 90 फीसदी इकाइयां अपने सेवारत कर्मचारियों को श्रेष्ठ प्रशिक्षण उपलब्ध कराती हैं। अपने देश में भी कामगारों को श्रेष्ठ कौशल उपलब्ध कराकर उन्हें उत्पादनयोग्य बनाया जा सकता है। यदि अर्थशास्ति्रयों की मानें तो कोई भी देश अपने सामाजिक दायित्वों मसलन बुनियादी शिक्षा, गरीबी, पेयजल, यातायात और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी तथा ढांचागत जरूरतों की अनदेखी करके मुक्त अर्थतंत्र का हिस्सा बनने का प्रयास करता है तो उससे अच्छे परिणाम हासिल नहीं हो सकते। भारत में यह विचार पूर्णतया लागू होता है। यहां 45 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं, 70 फीसदी बच्चों में खून की कमी है, बाल मृत्युदर 1000 बच्चों पर 57 है तथा महिला जन्म उत्पादकता दर 2.5 प्रति महिला है। जहां तक देश में गरीबी रेखा का प्रश्न है तो ग्रामीण स्तर पर यह 28 फीसदी है तथा नगरों में 26 फीसदी है। अर्थव्यवस्था की रफ्तार तेज होने के बावजूद भी कुल आबादी के एक चौथाई लोग अभी भी गरीबी और वंचनाओं के अभिशाप से जूझ रहे हैं। एक ओर मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरू तथा चेन्नई जैसे महानगर सूचना प्रौद्योगिकी के स्तंभ बनकर तमाम युवाओं अपनी ओर खीच रहे हैं तो दूसरी ओर बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, उडीसा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों की विकास दर लगातार पिछड़ रही है। यही कारण है कि इन प्रदेशों में रहने वाले गरीब व वंचित तबकों को उनके बुनियादी जरूरतों के अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। इन प्रदेशों में बढ़ता नक्सलवाद, क्षेत्रवाद, उग्रवाद व आतंकवाद की घटनाएं वहां लोगों के पिछड़ेपन तथा उनमें उत्पन्न वंचना के भाव से जुड़ी अभिव्यक्तियां हैं। नए वर्ष में इन समस्याओं से जूझना एक बहुत बडी चुनौती होगी। गांव में लोग कृषि व्यवसाय को छोड़ने पर उतारू हैं।
नगरों में विधिवत स्वास्थ्य, जल, सड़क, आवास तथा यातायात के साधनो में आबादी के अनुपात में विस्तार न होने से अवैध ढांचों का निर्माण निरंतर हो रहा है। नगरीय सुशासन एवं ढांचागत सुविधाएं लगातार कमजोर पड़ रही हैं। वहां अवैध कॉलोनियों का निर्माण, गंदगी, प्रदूषण, कूड़ा-करकट का ढेर तथा आपराधिक घटनाओं में विस्तार हो रहा है। नगरों के सामने ये चुनौतियां इस वर्ष भी खड़ी रहेंगी। दक्षिण अफ्रीका में संपन्न डरबन सम्मेलन जलवायु परिवर्तन के खतरों से निबटने में भारत जैसे विकासशील देश को कोई राहत नहीं दे सका। विकास की अंधी दौड़, सुविधाभोगी जीवन तथा जिस प्रकार से पूंजी, संपत्ति व वाहनों का जमाव हो रहा है, उसी अनुपात में नगरों में स्वाइन फ्लू, एलर्जी, दमा, एड्स व डायरिया जैसे रोगों से निबटने की चुनौतियां भी सामने हैं। महिलाओं का पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने से एक नई तरह की ईष्या पैदा हुई है। वहीं महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, छेड़खानी, यौन आक्रमण व आत्महत्या जैसी घटनाएं बढ़ी हैं। आज देश में भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। कॉरपोरेट समूह, राजनेता, अपराधियों और नौकरशाही के बीच सशक्त गठबंधन को तोड़ने की चुनौती भी देश व प्रदेश की सरकारों के सामने रहेगी ।
नव वर्ष का महोत्सव निश्चित ही नए वैश्विक बाजार का उल्लास लेकर आ रहा है। इतिहास के तमाम कालखंडों बहुआयामी चुनौतियां रही हैं परंतु जहां संविधान, लोकसत्ता और नागरिक समाज के बीच समन्वय बना रहता है वहां चुनौतियां न्यूनतम प्रभाव डालती हैं। पिछले दिनों भारत में यह समन्वय डगमगाया है। संविधान में लोगों को अधिकार तो मिले, लेकिन यहां संविधानवाद विकसित नहीं हो पाया। संविधान में अधिकारों के तहत लोगों को सत्ता तो मिली, परंतु उसके दुरुपयोग से लोकनीतियां घायल हुई और लोगों के बीच वंचना का भाव बढ़ा। सही मायनो में हम भारत के लोग और संसद के बीच दूरी बढ़ी है। नागरिक समाज से जिस पहरेदारी की अपेक्षा थी उन पर भी सिविल सोसाइटी बहुत खरी नहीं उतर पा रही। इन्हीं का नतीजा है कि राजनीति भ्रष्टाचार में लिप्त होकर सुशासन से दूर होती चली गई। आज भारतीय गणराज्य के सामने नव उदारवाद, धार्मिक कट्टरता, सामाजिक न्याय, सभी को स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी तात्कालिक चुनौतियां हैं। नव वर्ष में सत्ता, राजनीति व विकास से उपजी सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां आज बडे़ वैश्विक खतरे का अहसास करा रही हैं। त्यागवादी संस्कृति, राष्ट्रहित से जुड़ी नीतियों के निर्माण तथा लोगों से संवाद बनाकर ही नया रास्ता निकल सकता है।
लेखक डॉ. विशेष गुप्ता समाज शास्त्र के प्राध्यापक हैं
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