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देश में स्वास्थ्य की तस्वीर निराशाजनक ही सामने आती है, जबकि तमाम दूसरे देश अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति सजग हैं। स्वास्थ्य के मामले में देश के सामने गंभीर चुनौतियां हैं। नई-नई जानलेवा बीमारियां नई चुनौती पेश कर रही हैं। सरकार का स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार जनस्वास्थ्य को लेकर कितनी सजग है। भारत में आज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 1.3 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है, जो काफी कम है। जबकि पूरी आबादी को अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए जीडीपी का तीन से चार फीसद खर्च करने की जरूरत है। प्रथम संप्रग सरकार का स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2-3 फीसद खर्च का वादा आज तक पूरा नहींकिया गया। सिर्फ 10 प्रतिशत भारतीयों के पास स्वास्थ्य बीमा है, जो उनकी सेहत की जरूरतों के हिसाब से पर्याप्त नहीं है। सवाल यह है कि भारत में स्वास्थ्य संबंधी स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? इसके पीछे कई वजहें हैं जैसे कि प्रति व्यक्ति डॉक्टरों की उपलब्धता का अभाव, अस्पताल में बिस्तरों की कमी, धन की कमी और व्यवस्था में व्याप्त खामियां। सेव द चिल्ड्रन की विश्व की मांओं की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट में भारत को दुनिया के 80 कम विकसित देशों में 76वां स्थान मिला है।
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इस मामले में भारत कई गरीब अफ्रीकी देशों से भी पीछे है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर 140 महिलाओं में एक पर बच्चे को जन्म देने के दौरान मरने का जोखिम रहता है। यह आंकड़ा चीन और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों की तुलना में कहीं अधिक है। चीन में हर 1500 महिलाओं में एक महिला पर प्रसव के दौरान मौत का खतरा रहता है। वहीं श्रीलंका में यह आंकड़ा 1100 पर एक और म्यांमार में 180 पर एक है। वहीं भारत में कुपोषण की समस्या को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार चिंता जताता रहा है। संयुक्त राष्ट्र की कुछ समय पूर्व जारी रिपोर्ट ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत में कुपोषण की समस्या अपने गंभीर रूप में ज्यों की त्यों बनी हुई है। हांलाकि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से यह आस जागी थी कि अस्वस्थ भारत की तस्वीर बदल जाएगी, परंतु स्थिति बदतर ही होती जा रही है। बहरहाल, देश में स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के क्षेत्र में निजी अस्पतालों की भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन महंगी स्वास्थ्य सेवाएं गरीबों की पहुंच से दूर होती जा रही है। इस मामले में ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य की स्थिति और ज्यादा चिंताजनक बनी हुई है। यही वजह है कि इलाज पर बढ़ते खर्च की वजह से प्रत्येक वर्ष करीब 4 करोड़ लोग गरीबी के दायरे में आ जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि तकरीबन 25 फीसद भारतीय सिर्फ अस्पताली खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि आर्थिक प्रगति के बल पर अगले कुछ सालों में विकसित देशों की कतार में शामिल होने को व्यग्र भारत का विकास तब तक अधूरा ही कहलाएगा जब तक यहां का हर नागरिक स्वस्थ न हो।
विश्व जनसंख्या में 16.5 प्रतिशत भागीदारी निभाने वाला भारत विश्व की बीमारियों में 20 प्रतिशत का योगदान करता है। यह ठीक है कि केंद्र और राज्य सरकारें लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं चलाती हैं, लेकिन अहम बात यह कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता का भी अभाव पाया गया है। देश में प्रति व्यक्ति के स्वास्थ्य के हिसाब से न डॉक्टर उपलब्ध हैं और न दवाएं, जबकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्र की बड़ी आबादी सरकारी अस्पतालों पर निर्भर है। ऐसे में, जरूरी यह है कि सरकारी अस्पतालों की सेवाएं इतनी बेहतर बनाई जाएं कि लोग निजी अस्पतालों के मुंह न देखें। अमेरिका, चीन और ब्राजील की तुलना में भारत में लोगों को स्वास्थ्य सेवा हासिल करने के लिए अपनी जेब से कहीं ज्यादा रकम खर्च करनी पड़ती है। भले ही मौजूदा बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना खर्च में बढ़ोतरी की गई है, लेकिन जनसंख्या रोगों की स्थिति और बढ़ती महंगाई दर की तुलना में यह राशि खास मायने नहीं रखती। वहीं दूसरी तरफ जीवनरक्षक दवाओं तथा कैंसर और हदय रोग जैसी बीमारियों से निपटना आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर है। ऐसे में सरकार को स्वास्थ्य नीति पर गंभीरता से सोचना चाहिए। रोगों से बचाव पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। साथ ही देसी चिकित्सा पद्धतियों को उपचार की मुख्यधारा में शामिल कर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा मजबूत बनाने की जरूरत है।
लेखक रवि शंकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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