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कब बदलेगा पुलिस का चेहरा

जागरण मेहमान कोना
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फर्जी मुठभेड़ विरलतम अपराध है और इस अपराध के गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। इस बात को एक बार फिर हमारे देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है। अदालत ने हाल ही में अपने एक फैसले में फर्जी मुठभेड़ों में शामिल रहे पुलिस वालों के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार करते हुए कहा यदि अपराध आम आदमी करता है तो आम दंड दिया जाना चाहिए, लेकिन जब अपराध पुलिसकर्मियों द्वारा किया जाता है तो उन्हें कठोर दंड दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे अपने कर्तव्यों के विपरीत काम कर रहे होते हैं। फर्जी मुठभेड़ों पर अदालत की यह टिप्पणी बताती है कि तमाम आदेशों और फैसलों के बाद भी भारतीय पुलिस का चेहरा बिल्कुल नहीं बदला है। यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारी सरकारें पुलिसिया बर्बरता पर अक्सर चुप्पी साधे रहती हैं। सत्ता में बैठे लोगों की दिलचस्पी इस बात में नहीं दिखाई देती कि कैसे पुलिस को संवेदनशील और जवाबदेह बनाया जाए। उल्टे कई मामलों में तो सरकार में शामिल लोग दोषी पुलिस वालों के सरपरस्त बने हुए हैं। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कसौटी यह होती है कि वह मानवाधिकारों की कितनी हिफाजत करती है। इस मामले में हमारे देश का रिकॉर्ड देखें तो वह कतई संतोषजनक नहीं है। मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले हमारे यहां रोज घटित होते हैं। पुलिस के हाथों बेगुनाह लोगों के उत्पीड़न की शिकायतें आम हैं।


राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास सबसे ज्यादा शिकायतें पुलिस की ही पहुंचती हैं, उस पुलिस बल की जिसका गठन मानवाधिकारों की हिफाजत करने के मद्देनजर हुआ। बेकसूरों को झूठे मामलों में फंसाने से लेकर हिरासत में प्रताड़ना, अत्याचार करने की घटनाएं तो जैसे पुलिस की कार्यप्रणाली का एक हिस्सा हैं। फर्जी मुठभेड़ इस सिलसिले की सबसे दर्दनाक और शर्मनाक कड़ी है। आए दिन मीडिया में पुलिस के खिलाफ ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जिनसे पता चलता है कि उसे सौंपी गई जिम्मेदारी से इतर वह क्या-क्या गुल खिला रही है। लाख कोशिशों के बाद भी पुलिस का रवैया लोकतांत्रिक नहीं हो सका है। आम जन पुलिस से अपने आप को महफूज महसूस करने की बजाय खौफ खाते हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल की वार्षिक रिपोर्ट कहती है कि साल 1993 से 2008 के बीच यानी 15 साल में पुलिस ज्यादतियों की वजह से देश में कम से कम 2560 लोगों की मौतें हुई। इनमें से 1224 लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गए। फर्जी मुठभेड़ पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी कहीं से भी अतिवादी नहीं दिखाई देती। गौरतलब है कि अक्टूबर 2006 में राजस्थान पुलिस के स्पेशल आपरेशंस ग्रुप ने दारा सिंह नाम के एक शख्स को कथित मुठभेड़ में मार गिराया था। पुलिस का कहना था कि दारा सिंह हिरासत से भागने की कोशिश कर रहा था और इसी दौरान मुठभेड़ में उसकी मौत हुई। दारा सिंह की पत्नी सुशीला देवी ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दाखिल कर इस मुठभेड़ पर सवाल उठाते हुए जांच की मांग की। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सीबीआइ ने इस पूरे मामले की जांच की और जांच के बाद सुशीला देवी के इल्जाम सही पाए गए।


सीबीआइ इस मामले में 16 मुलजिमों के खिलाफ जयपुर की अदालत में आरोपपत्र भी दाखिल कर चुकी है। 16 में से 10 मुल्जिम इस समय जेल की सलाखों के पीछे हैं और 6 मुलजिम फरार हैं। भगोड़ा मुल्जिमों में राजस्थान पुलिस के पूर्व अतिरिक्त डीजीपी एके जैन और पूर्व एसपी अर्शद अली जैसे आला अफसर भी शामिल थे। अदालत ने अपने फैसले में भगौड़ा दोषियों को समर्पण करने का आदेश दिया और उनके समर्पण न करने की स्थिति में सीबीआइ को उन्हें गिरफ्तार कर एक महीने के अंदर रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया। इस मामले की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि फर्जी मुठभेड़ के गुनहगार पुलिस वालों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। फर्जी मुठभेड़ों पर सुप्रीमकोर्ट की यह सख्त टिप्पणी कोई पहली बार नहीं है। फर्जी मुठभेड़ों पर एक तरफ सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट नजरिया है तो वहीं दूसरी ओर लापरवाह सरकारें इन फर्जी मुठभेड़ों पर तटस्थ रहती हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं। उल्टे कई मामलों में तो इसमें सरकारों की भी रजामंदी होती है।


माओवादी नेता चेरूकुरि राजकुमार उर्फ आजाद और पत्रकार हेमचंद पांडेय की आंध्र पुलिस के हाथों हुई मौत महज फर्जी मुठभेड़ नहीं, बल्कि एक नई कहानी बयां करती है। आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार सुप्रीमकोर्ट की हिदायत के बावजूद इस मामले की जांच में आनाकानी करती रही, जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने इन दोनों के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की पुष्टि की थी। सोहराबुद्दीन उसकी पत्नी कैसर बी और तुलसीराम प्रजापति को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने के मामले में गुजरात के गृहराज्य मंत्री अमितशाह का नाम आरोपी के तौर पर जुड़े होने से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि फर्जी मुठभेड़ों की साजिश महज पुलिस अफसरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सरकार में जिम्मेदार ओहदों पर बैठे लोग भी शामिल हैं। यह महज इत्तेफाक नहीं है कि दारा सिंह फर्जी मुठभेड़ मामले में एक पूर्व मंत्री राजेंद्र राठौड़ का नाम आ रहा है। इस समय यह मंत्री फरार है। फर्जी मुठभेड़ के कई मामलों में अदालत ने पुलिस वालों को दोषी करार दिया है और उनको सजा भी सुनाई है। फिर भी भारतीय पुलिस से संबंधित कुछ सवाल हैं जिनके जबाव खोजे जाना बेहद जरूरी हैं। मसलन पुलिस अनेक मामलों में गलत पहचान का मामला प्रमुखता से बतलाती रही है। इसके अलावा अक्सर ये दलील देती है कि उसने अपनी आत्मरक्षा में गोली चलाई। जाहिर है इस जानी-पहचानी कहानी में कितनी सच्चाई होती है इसे आसानी से समझा जा सकता है। जब किसी शक में कोई मुठभेड़ होती है तो सौ फीसदी यह सच मानिए कि सामने वाला निहत्था होगा। यदि वह निहत्था है तो पुलिस की यह दलील शायद ही किसी के गले उतरे कि उसने मजबूरन अपनी आत्मरक्षा में गोलियां चलाई। यही नहीं, पुलिस अपनी इस घिनौनी करतूतों के बाद सबूतों को मिटाने और उनको प्रभावित करने की भी भरसक कोशिश करती है।


गुजरात में सोहराबुद्दीन शेख की बीबी कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की हत्याएं सबूत मिटाने की मंशा से ही की गई और बाद में फर्जी मुठभेड़ का नाटक रच दिया गया। दारा सिंह मामले में भी पुलिस का कहना है कि वह हिरासत से भाग रहा था और इसी दौरान मुठभेड़ में उसकी मौत हुई। जबकि हिरासत से भागने वाले के पास कोई हथियार होगा इसका यकीन शायद ही कोई करे। कुल मिलाकर दारा सिंह फर्जी मुठभेड़ मामले में सुप्रीमकोर्ट के ताजा निर्देश से एक बार फिर मौजूदा पुलिस ढांचे में व्यापक सुधार की जरूरत रेखांकित हुई है। सरकार को पुलिस सुधार के लिए बनी सोली सोराबजी कमेटी की रिपोर्ट याद दिलाने की जरूरत है, जिसमें सोराबजी कमेटी ने भारतीय पुलिस में आधारभूत सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण सिफारिशें सुझाई थीं, लेकिन ज्यादातर सरकारें इन सिफारिशों को अपने यहां लागू करने के लिए गंभीर नहीं हैं। यदि इन पर ईमानदारी से अमल किया जाए तो पुलिस का पूरा चेहरा ही बदल सकता है।


लेखक जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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