- 1877 Posts
- 341 Comments
अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूं, अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पाता हूं..। अपने खेत-खलिहानों से बिछड़ कर महानगरों में रोटी तलाशने आए करोड़ों लोगों के लिए ठोंगों में चावल, आटा, दाल खरीदते समय बरबस ही जगजीत की गाई उपरोक्त पंक्तियां याद आ जाती होंगी। उन्हें यह पता ही नहीं चलता होगा कि कब उनके लिए उनका अनाज बोरे से घटकर आधा किलो के पॉली बैग में बंद हो गया है। खेत से बोझा ढोकर फिर खलिहानों से बाजार तक बोरे में भरकर आने के बाद उपभोक्ता तक ठोंगों में बंद होते हुए अनाज किस तरह की दूरी तय करता है, यह जानना दिलचस्प है। अपने ही खेतों की उपज महानगरों में दस गुनी कीमत पर खरीदते हुए मध्य वर्ग को कभी अहसास भी नहीं हो पाता कि सिस्टम ने किस तरह चुपके से उसका खून निचोड़ लिया है। किस तरह फटेहाली में जहां अन्नदाता अपने फसल की कीमत नहीं मिलने के कारण आत्महत्या करने को विवश हैं और वही अनाज खरीदने में निम्न-मध्य वर्ग की सारी कमाई उड़ जाया करती है। किस तरह बीच का सारा मूल्य जमाखोरों, बिचौलियों और व्यापारियों की जेब को गर्म कर जाता है। बहरहाल, बाजार का सिद्धांत है मुनाफाखोरी। उसका सब कुछ मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होता है यानी जिसकी जितनी मांग, उसे उतना महंगा कर दो। बाजार की सबसे बड़ी विकृति यही है कि वह अपने कब्जे में आए उत्पाद का दाम बढ़ाने के लिए जमाखोरी कर कृत्रिम तौर पर मांग पैदाकर माटी के मोल खरीदे गए उत्पादों को सोने के मोल बेच मुनाफाखोरी कमाता है। वहीं एक कल्याणकारी राज्य की भूमिका ही यही होती है कि वह उत्पादकों-किसानों के लिए एक न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे ताकि अन्नदाता सुरक्षित रहें और बाजार का दानव उन्हें निगल न जाए।
दुखद यह है कि किसानों के हित की रक्षा में बुरी तरह असफल सरकारों के लिए कोढ़ में खाज की तरह ही साबित हो रहा है हाल का प्रकरण, जब केवल बारदाने (जूट की बोरियां) की किल्लत के चलते मध्य प्रदेश में किसानों को अपनी उपज का मूल्य मिलना मुश्किल नजर आ रहा है। जी तोड़ मेहनत कर गेहूं का बंपर उत्पादन करने वाले प्रदेश के किसानों के लिए केंद्र द्वारा बारदाने की आपूर्ति न करना कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे आप भूख से तड़प रहे हों, खाना तैयार भी हो लेकिन थाली उपलब्ध नहीं रहने के कारण उसे परोसा नहीं जा पा रहा हो। सरकारी सूत्रों के अनुसार मध्य प्रदेश के किसानों की यह समस्या केवल अधिक उत्पादन के कारण हुई है। अगर यह सही भी है तो भी शर्मनाक है, क्योंकि मौसम से लेकर हर बात के लिए पूर्वानुमान लगाने तक के लिए भी अरबों खर्च कर विभिन्न एजेंसियों का गठन किया गया है, जो सफेद हाथी ही साबित हो रही है। सवाल केवल मध्य प्रदेश में बारदाने की कमी की इस तात्कालिक समस्या का ही नहीं है, सवाल देश के 65 प्रतिशत नागरिकों का है। किसानों की सुरक्षा का है। महाराष्ट्र के कपास उत्पादक किसानों की आत्महत्या का है। वहां के प्याज उत्पादक किसानों की मुफलिसी और उसी प्याज के महंगे होने के कारण कभी दिल्ली की चली गई सरकार का है। सवाल उन आरोपों की सफाई देने का भी है, जिसमें यह कहा जाता है कि सरकारें जान-बूझकर अनाज सड़ाती ही इसीलिए है, ताकि उसे शराब कंपनियों को बेचा जा सके।
सवाल कोर्ट द्वारा बार-बार अनाज को सड़ाने के बदले गरीबों में मुफ्त बांट देने के आदेश का भी है। सवाल कोर्ट के इस आदेश को अपनी सीमा का अतिक्रमण समझ लेने वाले प्रधानमंत्री का है सरकारों की नीयत का भी। तो क्या अब मान लिया जाए कि सारी सरकारें देश के इन वास्तविक सरोकारों के प्रति बिलकुल संवेदनहीन हो गई हैं और उम्मीद की कोई किरण नहीं बची है? सड़ते हुए अनाज की तरह सारे सरकारी सिस्टम भी सड़ चुके हैं? गरीब कहे जाने वाले प्रदेश छत्तीसगढ़ की प्रणाली वास्तव में इन सभी सवालों का जबाब देती नजर आती है। अनाज सड़ने के एक मामले में तो खुद सुप्रीम कोर्ट तक ने केंद्र से छत्तीसगढ़ के सिस्टम को अपनाने की सलाह दी है। अन्य राज्यों की तरह इस बार छत्तीसगढ़ में भी धान की बंपर पैदावार (लगभग नब्बे लाख मीट्रिक टन) का अनुमान लगाया गया था। अनुमान के अनुसार ही उत्पादन हुआ भी। उसमें से प्रदेश सरकार ने करीब 60 लाख टन धान खरीदने का लक्ष्य रखा और उसके लिए 40 रुपये प्रति (खाली) बारदाने की दर से 600 करोड़ की रकम केंद्र को अग्रिम जमाकर 15 करोड़ बारदानों की खेप हासिल की। 60 लाख टन धान खरीद 24 घंटे के भीतर उसका भुगतान कर 50 रुपये बोनस भी बाद में किसानों को प्राप्त हुआ।
लेखक पंकज झा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Hindi News
Read Comments