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विदेशी दुकानों पर घमासान

जागरण मेहमान कोना
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Shiv Kumarएक आम भारतीय या एक बीघा जमीन पर खेती करने वाले किसान को न तो आर्थिक मामलों की बारीकियां समझ में आती हैं और न ही आंकड़ों की बाजीगरी से ही उसका कोई लेना-देना है। इस बात से उसका कोई ताल्लुक नहीं है कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री आखिर अपने ही विषय अर्थशास्त्र में क्यों फेल हो रहे हैं? उसे यह भी समझ में नहीं आता कि चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के आंकड़ों में विकास दर गिरकर 6.9 फीसदी पर क्यों आ गई? दो जून की रोटी के लिए सड़कों पर या खेत में पसीना बहाते आम आदमी को सरकार का यह गणित भी समझ में नहीं आएगा कि क्यों उसने खुदरा कारोबार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे खोल दिए हैं? आज भी देश का आम आदमी योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की उस बात को नहीं समझ सका है कि गरीबों के ज्यादा खाने की वजह से महंगाई किस तरह बढ़ गई है, जबकि वह तो अपने बच्चों को दो वक्त का खाना भी ठीक से नहीं खिला पा रहा है। लोगों को योजना आयोग का सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया गया वह हलफनामा आज भी समझ में नहीं आया कि गांवों में 26 रुपये और शहरी इलाकों में 32 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर क्यों माना जाएगा? आम भारतीय भले ही अर्थशास्त्र की शब्दावली से वाकिफ नहीं हो, लेकिन उसे इतना तो समझ में आता है कि संप्रग-1 और संप्रग-2 की मनमोहन सिंह सरकार में महंगाई आसमान छू रही है।


गरीबी में दाल-रोटी खाकर गुजारा करने वाले इंसान को यह बात समझ में आती है कि अब उसके लिए दाल खाना एक महंगा शौक बन गया है। अर्थशास्त्र की गहरी समझ नहीं रखने वाले आम आदमी को भी यह बात समझ में आती है कि विदेशी कंपनियां भारत में किराने की दुकान खोलने के लिए क्यों आ रही है? लेकिन दूसरी तरफ देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि हमने यह फैसला किसी जल्दबाजी में नहीं, बल्कि बहुत सोच समझकर लिया है। हमारा पक्का विश्वास है कि यह फैसला देश के हित में है। हमारा मानना है कि रिटेल के क्षेत्र में एफडीआइ बढ़ने से आधुनिक टेक्नोलॉजी भारत में आएगी, कृषि उत्पादों की बरबादी कम होगी और हमारे किसानों को उनकी फसल के बेहतर दाम मिलेंगे। खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर मंत्रिमंडल के फैसला लेने के बाद वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा का कहना था कि आने वाले एक साल में खुदरा व्यापार में एक ब्रांड की श्रेणी में लाखों डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश भारत आएगा। वाणिज्य मंत्री का यह भी कहना है कि एक से ज्यादा ब्रांड की श्रेणी में दस करोड़ डॉलर के न्यूनतम निवेश का नियम है। हमें उम्मीद है कि इसमें भी भारी मात्रा में निवेश किया जाएगा।


सरकार यह भी तर्क दे रही है कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीति से किसानों, उपभोक्ताओं और छोटे व्यापारियों को फायदा होगा और इससे देश के मूलभूत ढांचे को बेहतर करने का अवसर मिलेगा। इतना ही नहीं, सरकार का यह भी कहना है कि इससे उत्पादन क्षेत्र और एग्रो प्रोसेसिंग क्षेत्र में करीब एक करोड़ नौकरियों के अवसर भी आएंगे और कुल निवेश के पचास फीसदी को भंडार बनाने और माल की ढुलाई में लगाना होगा। खुदरा कारोबार के क्षेत्र में मनमोहन सरकार के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतना बड़ा फैसला लेने के पहले क्या सरकार को विपक्षी दलों को भरोसे में नहीं लेना चाहिए था? देश में लोकतंत्र है और जनसंचार माध्यमों के जरिये जनता से रायशुमारी करना कोई मुश्किल काम नहीं रह गया है तो इस फैसले के पहले सरकार ने जनता से उसकी राय जानने की कोशिश क्यों नहीं की? दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में इन विदेशी दुकानों को खोलने का प्रावधान है तो क्या ऐसे में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से सरकार को बात नहीं करनी चाहिए थी? इस पूरे मामले में संसद में गतिरोध को लेकर अब सरकार विपक्ष पर दोष मढ़ने की कोशिश कर रही है, लेकिन यह सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है कि राष्ट्रीय हित से जुड़े बड़े नीतिगत मसलों पर कोई भी फैसला विपक्षी दलों के साथ राय-मशविरा करके ही करे।


विपक्ष की बात तो दूर, खुद कांग्रेस के अंदर भी इस मुद्दे पर मतभेद बरकरार है। केरल कांग्रेस के अध्यक्ष रमेश चेन्निथला और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस सांसद संजय सिंह ने भी इस फैसले का खुलकर विरोध किया है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी इस फैसले का विरोध किया है और उनका कहना है कि उनकी सरकार प्रदेश में इस निर्णय को लागू नहीं होने देंगी तथा उनकी पार्टी इसका संसद से लेकर सड़क तक विरोध करेगी। उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार और दूसरे राज्यों में भी खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश को लेकर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे लोगों ने भी सरकार के इस फैसले का विरोध किया है। बाबा रामदेव का कहना है कि प्रधानमंत्री किराना में विदेशी दुकानों की वकालत इस तरह कर रहे हैं, जैसे वह वॉलमार्ट के प्रेसीडेंट हों। सवाल विपक्षी दलों या फिर बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के विरोध का नहीं, बल्कि खुदरा क्षेत्र से जुड़े छोटे कारोबारियों और आम जनता के हित का है। सरकार में बैठे लोग यह भी तर्क दे रहे हैं कि खुदरा व्यापार के लिए कई दूसरे देशों ने भी अपने दरवाजे खोल दिए हैं। सीधी-सी बात है कि हम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों की आर्थिक नीतियों को आंख मूंदकर अपने देश में लागू नहीं कर सकते।


हमारे देश की आर्थिक नीति हमारे मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों और मानव संसाधनों पर आधारित होनी चाहिए। इसमें कोई दो मत नहीं कि 1991 में औद्योगिक सुधार की शुरुआत का कई क्षेत्रों में सकारात्मक असर भी दिखाई दिया है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देश का विकास इस तरह हो कि अमीरी और गरीबी के बीच का फासला बढ़ने के बजाय कम हो सके। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यह बात हैरान करने वाली है कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से आधुनिक टेक्नोलॉजी भारत में आएगी और किसानों को उनकी फसलों के सही दाम मिलेंगे।


अंतरिक्ष से लेकर परमाणु विज्ञान के क्षेत्र में अपनी स्वदेशी टेक्नोलॉजी का दुनिया भर में लोहा मनवाने के बाद क्या हिंदुस्तान को खुदरा कारोबार के क्षेत्र में विदेशी टेक्नोलॉजी के लिए दूसरे देशों की तरफ मुंह ताकने की जरूरत है? कृषि उत्पादों की बरबादी रोकने के लिए क्या हमें किसी वॉलमार्ट की जरूरत है? किसान भाइयों को फसल के वाजिब दाम मिले, इसके लिए क्या हम कोई व्यवस्था विकसित नहीं कर सकते और इसके लिए भी हमें विदेशी कंपनियों को भारत लाने की जरूरत पड़ेगी? आम आदमी के हितों की बात करने वाली सरकार के लिए क्या यह शर्म की बात नहीं है कि अनाज भंडारण की सही व्यवस्था नहीं होने की वजह से हजारों टन अनाज सड़ जाता है? एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि किराने की ये विदेशी दुकानें सिर्फ उन्हीं शहरों में खुलेंगी, जिनकी आबादी दस लाख या उससे ऊपर होगी और हिंदुस्तान में ऐसे शहरों की संख्या 53 हैं। क्या यह माना जाए कि दस लाख या उससे ऊपर की आबादी वाले इन शहरों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग नहीं रहते हैं? और यदि ऐसा नहीं है तो क्या वॉलमार्ट जैसी खुदरा कंपनियां दिन भर मजदूरी कर शाम को खाना पकाने के लिए पांच रुपये या दस रुपये का तेल खरीदने वाले की जरूरतों को पूरा कर पाएंगी? क्या इन शहरों में छोटे-छोटे किराना व्यापारी या रेहड़ी लगाकर अपना सामान बेचने वाले बरबाद नहीं हो जाएंगे? आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार देश में औद्योगिक निवेश का बेहतर माहौल बनाने की कोशिश करे ताकि देश में सकल घरेलू उत्पाद की दशा सुधारकर हम अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बना सकें और इसके लिए हमें किसी वॉलमार्ट या टेस्को की तरफ नहीं देखना पड़े। खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मसले पर सरकार को आम जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए संजीदगी से सोचने की जरूरत है। वैसे भी राष्ट्रीय हित से जुड़े किसी भी मसले या फैसले को सरकार को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए।


लेखक डॉ. शिव कुमार राय वरिष्ठ पत्रकार हैं


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