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बंजर होती उर्वर जमीनें

जागरण मेहमान कोना
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देश में स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाए जा रहे है। विकास के लिए सड़कें, हवाई अड्डे बन रहे हैं, महानगरों की बढ़ती संख्या के लिए बहुमंजिली इमारतों का ठिकाना भी वही उर्वर जमीन है जो कभी देश की अर्थनीति का आधार थी। विकास के लिए जमीन चाहिए ही, लेकिन नंदीग्राम, सिंगुर, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा से लेकर हजारों घटनाएं गवाह हैं कि कारखानों के लिए जमीन जुटाने की फिराक में खेतों को ही उजाड़ा जाता है। लिहाजा लोगों का गुस्सा भड़कता है। देश में लाखों हेक्टेयर जमीनें हैं, जिन पर विकास का काम किया जाना है। बेकार पड़ी जमीन को बेहतर बनाने की बजाय अच्छी जमीनों को ही बेकार किया जा रहा है। आज आधुनिकता और विकास के दौर में शस्य श्यामला उर्वर भूमि बंजर होती जा रही है तो दूसरी ओर पृथ्वी पर जनसंख्या विस्फोट हो रहा है। लोगों के रहने, उनका पेट भरने के लिए खाद्य पदार्थ उगाने, विकास से उपजे पर्यावरणीय संकट से जूझने के लिए हरियाली की जरूरत बढ़ रही है वहीं धरती की उर्वराशक्ति दिनोंदिन खत्म हो रही है। सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मानव सभ्यता के लिए यह संकट स्वयं मानव समाज द्वारा पैदा किया जा रहा है। जिस देश के अर्थतंत्र का मूल आधार कृषि हो वहां एक तिहाई भूमि का बंजर होना चिंताजनक है। देश में कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है।


भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अभी तक विस्तृत सर्वेक्षण नहीं हुआ है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का अनुमान है कि देश में सर्वाधिक बंजर जमीन मध्य प्रदेश में है जो दो करोड़ एक लाख 42 हेक्टेयर है। उसके बाद राजस्थान का नंबर आता है जहां एक करोड़ 99 लाख 34 हेक्टेयर भूमि बंजर है। महाराष्ट्र एक करोड़ 44 लाख, आंध्र प्रदेश में एक करोड़ 14 लाख 16 हजार हेक्टेयर, कर्नाटक में 91 लाख 65 हजार, उत्तर प्रदेश में 80 लाख 61 हजार, गुजरात में 98 लाख 36 हजार, उड़ीसा में 63 लाख 84 हजार तथा बिहार में 54 लाख 58 हजार हेक्टेयर जमीन बंजर हैं। पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हजार, हरियाणा में 24 लाख 78 हजार, असम में 17 लाख 30 हजार, हिमाचल प्रदेश में 19 लाख 78 हजार, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हजार, केरल में 12 लाख 79 हजार हेक्टेयर जमीन धरती पर भार बनी हुई है। पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टेयर, उत्तर-पूर्व के मणिपुर, मेघालय और नागालैंड में क्रमश: 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है।


मध्य प्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है। धरती पर जब पेड़-पौधों की संख्या कम होती है तब बरसात का पानी सीधा धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है। जमीन समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है मिट्टी काटते हुए वह बहता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और यह आगे चलकर गहरी होती हुई बीहड़ का रूप ले लेती हैं। एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वह और गहरा होता चला जाता है। इस तरह के भू-क्षरण से हर साल लगभग 4 लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। इससे सर्वाधिक प्रभावित इलाका चंबल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक नदियों के किनारे के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात है। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खत्म होने में 200 वर्ष लगेंगे तब तक ये बीहड़ ढ़ाई गुना हो चुके होंगे। बीहड़ों के बाद धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा खनन उद्योग रहा है। पिछले तीस वर्षो में खनिज उत्पादन 50 गुना बढ़ा, लेकिन यह लाखों हेक्टेयर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है। नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति हेतु आसपास की हरियाली खत्म होती है। इसके बाद खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी-गहरी खदानें बनाई जाती है, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है। वहीं खदानों से निकली धूल-रेत और अयस्क मिश्रण दूर-दूर तक की जमीनों की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं।


खदानों के गैर नियोजित अंधाधुंध उपयोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है। ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन होता है। हरितक्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है वे भी जमीन की कोख उजाड़ने के लिए जिम्मेदार रही हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली फिर उसके बाद भूमि बंजर हो रही है। यही नहीं जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं। सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं। सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आसपास जलरिसाव से भी दलदल बन रहे हैं। जमीन को नष्ट करने में समाज का लगभग हर वर्ग और तबका लगा हुआ है जबकि इसके सुधार का जिम्मा मात्र सरकारी कंधों पर है। 1985 में स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था।


आंकड़ों मुताबिक इस योजना के तहत एक करोड़ 17 लाख 15 हजार हेक्टेयर भूमि को हरा-भरा किया गया, लेकिन इन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाइट द्वारा खींचे गए चित्रों से उजागर हो चुका है। क्षारीय भूमि को हरा-भरा बनाने के लिए केंद्रीय वानिकी अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में कुछ सफल प्रयोग किए गए हैं। यहां आस्ट्रेलिया में पनपने वाली एक प्रजाति झाड़ी का प्रारूप तैयार किया गया है जिसे गुजरात व पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षारीय जमीन पर उगाया जा सकता है । साल्ट-बुश नामक इस झाड़ी को भेड-बकरियां खा भी सकती हैं। संस्थान में कुछ अन्य विदेशी पेड़ों के साथ-साथ देशी नीम, खेजड़ी, रोहिड़ा, बबूल आदि को रेतीले क्षेत्रों में उगाने के प्रयोग किए जा रहे हैं। कुछ सालों पहले बंजर भूमि विकास विभाग द्वारा बंजर भूमि विकास कार्य बल के गठन का भी प्रस्ताव था। इसके लिए कहा गया कि रेगिस्तानी, पर्वतीय, घाटियों, खानों आदि दुर्गम भूमि की गैर वनीय बंजर भूमि को स्थायी उपयोग के लायक बनाने के लिए यह कार्यबल काम करेगा, लेकिन यह साकार नहीं हो सका। प्राकृतिक और मानवजनित कारणों से आज खेती, पशुपालन और जंगल पर खतरा है। पेयजल संकट गहरा रहा है। ऐसे में केंद्र व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिए कोई कार्यवाही नहीं किया जाना एक विडंबना ही है। इस कार्य में छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन दिखाई जा रही है।


लेखक पकंज चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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