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इस आरक्षण से परहेज क्यों

जागरण मेहमान कोना
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समाज की संरचना का सत्य है आरक्षण। इसे मानने से किसी को गुरेज नहीं है। देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था की इस पर मुहर है और समाज के तमाम ठेकेदारों की अघोषित सहमति भी। फिर इसी पृष्ठभूमि पर बनाई गई प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण को लेकर बवाल क्यों है? वह भी तब जब फिल्म आम जन तक पहुंची ही नहीं है। समाज के तथाकथित ठेकेदार ही इस फिल्म को पहले देखने का आरक्षण मांग रहे हैं। अजीब संयोग है कि देश में आरक्षण की व्यवस्था है। फिल्म दिखाने के लिए आरक्षण की मांग है। फिर भी इस नाम पर बनी तीन घंटे की फिल्म पर तमाम तरह की रोक-टोक लगाई जा रही है। रिलीज से पहले ही इस पर पाबंदी की मांग ने फिल्म से जुड़े तथ्यों पर भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। वैसे, बॉम्बे हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को फिल्म नहीं दिखाने के आदेश भी दे दिए है। यानी आरक्षण को अब सीधे जनता की परीक्षा में पास होना है, लेकिन इतना तो तय है कि बवाल और पाबंदी की मांग का फायदा इस फिल्म को जरूर मिलेगा। मुमकिन यह भी है कि आरक्षण से जुड़े सुलगते सवाल एक बार फिर समाज को झकझोरेंगे, लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति के हक की तासीर है- आरक्षण को जनता की अदालत में जाने दिया जाए। बहरहाल, फिल्म की रिलीज से पहले ही समाज के तीन फांक साफ तौर पर दिख रहे हैं।


एक समाज का वह ठेकेदार, जो फिल्म को आरक्षण और दलित विरोधी मान रहा है। दूसरा धड़ा फिल्म को आरक्षण समर्थक और सवर्ण विरोधी कह रहा है। और तीसरा धड़ा समाज के इस ज्वलंत सच पर अपने आग्रह और दुराग्रह को दुरुस्त करने पर आमादा है। इस तबके को उम्मीद है कि प्रकाश झा अपनी पहली फिल्म दामुल की तरह ही इस मसले पर एक बेजोड़ सामाजिक संदेश देंगे। यह तबका प्रकाश झा से मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण और राजनीति से आगे की उम्मीद कर रहा है। इनके साथ वे लोग भी जुड़ रहे हैं, जो विवादित फिल्मों को सिनेमाघरों में देखना पसंद करते हैं। अलबत्ता फिल्म की रिलीज पर पाबंदी की मांग करने वाले नेताओं और उनके कार्यकर्ताओं के सामने एक कटु सत्य यह भी है कि फिल्म को सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिल चुका है। आखिर फिल्म रिलीज होगी या नहीं, सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप कोई फिल्म है या नहीं, फिल्म में कहां काट-छांट मुमकिन है, इन सब पर मुहर लगाने का अधिकार सेंसर बोर्ड के पास है और सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को यू सर्टिफिकेट दिया है। यू यानी यूनिवर्सल। हर कोई इस फिल्म को देख सकता है। इसके अलावा फिल्म को उस एग्जामिनेशन कमेटी से सहमति मिली है, जिसके सदस्य अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं। इस एग्जामिनेशन कमेटी में सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन के सदस्य भी शामिल थे। सिवाय एक डायलॉग में दलित शब्द के अलावा उन लोगों ने कोई आपत्ति नहीं जताई है।


फिल्म की पहली रील से तत्काल इस शब्द को हटा भी लिया गया है। तब जाकर फिल्म को पास किया गया। इस संस्था के फैसले के बावजूद फिल्म पर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने आपत्ति जताई। इसके अध्यक्ष पी एल पुनिया हैं, जिनका मानना है कि फिल्म दलित विरोधी है। इसके बाद से तो फिल्म के विरोध के नाम पर आरक्षण की राजनीति ही शुरू हो गई। देश के कई राज्यों की सरकारों ने फिल्म के प्रमोशन की अनुमति तक नहीं दी। कई राज्यों के स्वयंभू नेताओं ने तो फिल्म पर अपनी पहले से ही राय बना ली है। आश्चर्य यह है कि समाज के ये ठेकेदार उस वक्त कहां होते हैं, जब द्विअर्थी संवादों से अटी और अश्लील फिल्में बॉक्स ऑफिस तक पहुंचती हैं। इनकी नींद तब क्यों नहीं खुली, जब शीला की जवानी.. और भाग डी के बोस भाग.. जैसे गाने लोकप्रिय हुए। फिल्मों के जरिए जब समाज की सभ्यताएं दरकती हैं, तब वे दीवार की तरह मौन हो जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा कुछ छिटपुट प्रदर्शनकारी सिनेमाघरों के आगे प्रदर्शन करते हैं, न कि एक गंभीर बहस समाज में उठाते हैं। तब तो कोई संस्था फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने की मांग अदालत में नहीं करती है, लेकिन जब आरक्षण जैसे गंभीर सामाजिक मसले पर फिल्म बनती है तो उसका खुलेआम विरोध शुरू हो जाता है। क्या यह सच पर पर्दा डालने की जुर्रत तो नहीं है? भ्रम की इस परिस्थिति में हम युवाओं को यह सोचना होगा कि आखिर समाज का एक बड़ा तबका हमें स्याह सच से वंचित क्यों रखना चाहता है? इनकी पाबंदी की खुजली का सच क्या है, जो किसी भी इचगार्ड से खत्म नहीं होती है? इसमें कोई शक नहीं कि जातिगत आरक्षण पर समाज दो वर्गो में बंटा है, लेकिन किसी वर्ग की नाराजगी और खुशी के चलते अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती है। समाज का यही दस्तूर है कि हम उनकी भी सुनते हैं, जिनकी बातें हमें बुरी लगती हैं। महात्मा गांधी ने कहा था, लोकतंत्र का विकास तब तक संभव नहीं है, जब तक कि हम किसी दूसरे को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। बहरहाल, यह पहली बार नहीं हुआ है कि इस संवेदनशील मसले पर बनाई गई किसी फिल्म पर इतना हो-हल्ला मचा हो। इससे पहले भी तमिल फिल्म ओर ओरु ग्रामथैले, जिसे सेंसर बोर्ड से यू सर्टिफिकेट मिला था, पर काफी हंगामा मचा। इससे पहले भी अन्य सामाजिक मसलों को छूने वाली फिल्मों पर अंगुलियां उठी हैं, लेकिन इसकी कीमत समाज को चुकानी पड़ी है। एक बड़ा तबका इस हो-हल्ला के चक्कर में सिनेमाघरों तक नहीं जाता है।


नतीजतन वह प्राइरेटेड डीवीडी से काम चलाता है। इससे सरकार को राजस्व की हानि होती है सो अलग। ऊपर से भारतीय सिनेमा उद्योग को भी खासा नुकसान पहुंचता है। दूसरा एक तबका विवाद के चलते सिनेमाघरों तक पहुंचता है। उन्हें फिल्म में मसाले की तलाश रहती है। यह तबका फिल्म कारोबार से जुड़े लोगों को अप्रत्याशित तौर पर आर्थिक फायदा पहुंचाता है। ऐसे में फिल्म बनाने वाले लोग सोचते हैं कि चलो अच्छा हुआ, नाम न सही तो बदनाम ही सही। इस बेवजह आर्थिक फायदे से विवादास्पद मुद्दों पर फिल्म बनाने का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया है। इस चक्कर में फिल्म रिलीज के पहले हफ्ते में ही बॉक्स ऑफिस पर हिट हो जाती है, जबकि होना यह चाहिए कि दर्शकों की कसौटी पर फिल्म कसी जाए। अपनी भी यही उम्मीद है कि फिल्म आरक्षण को विवादों का बेवजह फायदा नहीं मिले, लेकिन आरक्षण के रीयल दर्शकों को सिनेमाघरों, मल्टीप्लैक्स तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हो, इसे कौन तय करेगा? लाजिमी तौर पर राज्य सरकारों को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। आखिर समाज की सच्चाई आरक्षण से परहेज क्यों?


लेखक प्रवीण प्रभाकर पत्रकार हैं


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