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अमेरिकी कर्ज का मर्ज

जागरण मेहमान कोना
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Prashantअंतरराष्ट्रीय साख बाजार में अमेरिका की सर्वश्रेष्ठता 1917 में स्थापित हुई थी। लगभग एक शताब्दी बाद पहली बार उसकी साख पर बट्टा लगा है, जिससे वैश्विक स्तर पर नए समीकरण बनने के साफ संकेत मिल रहे हैं। इसे निश्चित रूप से अमेरिकी आधिपत्य के अवसान का आरंभ भी कहा जा सकता है। अमेरिका में इस कड़वी सच्चाई का सामना करने के संकल्प का अभाव दिख रहा है। इसी शुतुरमुर्गी सोच का संकेत देते हुए बराक ओबामा ने रेटिंग संस्था पर दो ट्रिलियन डॉलर का हिसाब न करने का आरोप भी लगाया है। वे यह भूल जाते हैं कि इस रेटिंग संस्था से पहले ही चीन ने अमेरिकी साख को नीचे गिरा दिया है। यह तथ्य इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि चीन अमेरिका का सबसे बड़ा ऋणदाता है। टाइम पत्रिका ने लिखा भी है कि अगर चीन अमेरिका से अपने कर्जे को वापस लौटाने को कहे तो अमेरिका में सरकारी ‘मेल्टडाउन’ से महाप्रलय जैसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं। दरअसल, अमेरिका चीन को अपना प्रतिद्वंद्वी मानकर युद्ध सामग्री पर बेतहाशा खर्च कर रहा है और इस खर्च के लिए चीन से कर्ज भी ले रहा है।


सच्चाई का सामना न करने की अमेरिकी मानसिकता की एक मिसाल यह भी है कि आर्थिक मंदी के इस दुखद दौर को तात्कालिक मानकर इसे अनदेखा किया जा रहा है। सच्चाई यह है कि मंदी का यह ‘डबल डिप’ अस्थायी नहीं, बल्कि आधारभूत है। अमेरिका को अपनी साख की वजह से पूरी दुनिया में सस्ती दर पर कर्ज मिल जाता है। पिछले तीन दशकों से अमेरिका अपनी इस साख का मनमाना दोहन कर रहा था। यह दिलचस्प बात है कि अमेरिका के कर्ज में डूबने की इस प्रक्रिया का प्रारंभ 1981 से कट्टरपंथी और उग्र राष्ट्रवादी रीगन ने किया। उनके उत्तराधिकारी बुश पिता-पुत्र ने भी इसी परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए अपने देश को कर्ज में डुबोने से जरा भी परहेज नहीं किया। जूनियर बुश ने तो अमेरिकी अमीरों के करों में जबर्दस्त कटौती कर अमेरिकी राजस्व को भी संकुचित कर दिया। उसके बाद इराक और अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप कर जूनियर बुश ने देश की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी।


अमेरिका को संकटग्रस्त करने में वहां के संपन्न वर्ग का प्रमुख हाथ रहा है। रिपल्बिकन राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में इस वर्ग ने अपने लिए सभी कानूनों में अपनी सुविधा के लिहाज से ‘छेद’ भी छुड़वा लिए। अमेरिकी कंपनियों ने अभूतपूर्व मशीनीकरण कर रोजगार के अवसर कम कर दिए। इस तरह रोजगारहीन विकास की विडंबना सभी को नजर आने लगी। अमेरिका में बेरोजगारी की दर 9-10 प्रतिशत के बीच है, लेकिन युवकों में बेरोजगारों का प्रतिशत 24 फीसदी तक पहुंच गया है। बेरोजगारी का यह आंकड़ा अपने आप में किसी विस्फोटक अनहोनी की आशंका को छिपाए हुए है। अमेरिका में जहां भी उद्योगों में रोजगार पैदा हुए, वह केवल घरेलू क्षेत्र तक सीमित है। अमेरिका के बड़े उद्यमों की चालबाजी का एक नमूना यह भी देखिए। उन्होंने एक बार अपनी सरकार को तर्क दिया था कि कराधान के एक प्रावधान के कारण अमेरिका का लगभग 300 अरब डालर विदेशों में जमा है। अगर उसको समाप्त कर दिया जाए तो यह धन अमेरिका में वापस आकर रोजगार पैदा करेगा। अमेरिकी सरकार ने किया भी वही। धन तो वापस आया, लेकिन उससे एक भी व्यक्ति को रोजगार नहीं मिला।


अमेरिका के संपन्न वर्ग ने इस तरह के संकीर्ण स्वार्थो से अपने देश की सरकार को खोखला कर दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने भी इस संकट का सामना करने का कभी जोखिम नहीं उठाया। वहां की रिपल्बिकन पार्टी तो खुले तौर पर इस संपन्न वर्ग का समर्थन करती है। राष्ट्रपति फोर्ड, रॉकफेलर, बुश सीनियर, बुश जूनियर और डिक चेनी, डोनल्ड रम्सफेल्ड जैसे अधिकांश रिपब्लिकन नेता इन्हीं बड़ी कंपनियों के निवेशक, नियंत्रक अथवा सर्वोच्च अधिकारी रहे हैं। सरकार में रहते हैं। फिर वापस कंपनियों में चले जाते हैं और फिर वापस सरकार में लौट आते हैं। उनके लिए सरकार और व्यापार में कोई फर्क नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका की तेल और शस्त्र कंपनियां ही अमेरिका को अपने स्वार्थो के अनुसार पूरी दुनिया में सैनिक हस्तक्षेप के लिए प्रेरित करती हैं। ध्यान रखना चाहिए कि अमेरिका पर सैनिक तंत्र के दुष्प्रभाव की चेतावनी रिपब्लिकन राष्ट्रपति आइजन हावर ने दी थी। वास्तव में अमेरिका को गिराने में इस वित्तीय तंत्र की भूमिका रही है। सबसे पहले तो इस तंत्र ने उत्पादन ढांचे को पूरी तरह नष्ट किया। तर्क यह दिया कि उत्पादन का काम तो तीसरी दुनिया के पिछड़े देशों का है। अमेरिकी समाज तो अब इससे ऊपर उठकर उत्तर औद्योगिक समाज बन चुका है। यानी कि अब अमेरिका को उच्चतम प्रौद्योगिकी उत्पादन ही करना चाहिए।


पिछले तीन दशकों से अमेरिका में वित्तीय प्रबंधन का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है। अमेरिका में जो थोड़ा-बहुत उत्पादन हो भी रहा है वह इतना महंगा और घटिया है कि उसे अमेरिकी ग्राहक भी खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं। बराक ओबामा भारत आकर अपना सामान बेचने की कोशिश करते हैं। वाशिंगटन में चीनी राष्ट्रपति को भी अपना सामान बेचने की कोशिश करते हैं, लेकिन अमेरिका की कथित उच्च प्रौद्योगिकी को भी ग्राहक नहीं मिल रहे हैं। एक समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारों के उत्पादन के लिए मशहूर ड्रेट्रायट शहर आज अपने आपको मुंह चिढ़ा रहा है। अमेरिका का यह संकट धीरे-धीरे और बढ़ेगा।


अमेरिका ने इस अदृश्य आपदा को विदेशों से कर्ज लेकर छिपाने की कोशिश भी की। स्थिति दयनीय होने के बावजूद बराक ओबामा बुश द्वारा की गई कटौतियों को खत्म करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। यह बात इसलिए विचित्र लगती है, क्योंकि इस मंदी के दौर में भी अमेरिकी कंपनियों को असाधारण लाभ मिल रहा है, लेकिन वे अपने लिए हासिल की गई किसी भी छूट को वापस करने के लिए तैयार नहीं हैं, जबकि इन्हीं की वित्तीय कंपनियों ने अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख का दुरुपयोग कर पूरी दुनिया से कर्ज लेकर सट्टेबाजी तक में लगाने से संकोच नहीं किया। तब इन कंपनियों ने अमेरिकी आवास क्षेत्र में मोहक और लुभावनी तस्वीर पेश कर दुनिया से वसूला गया पैसा बेरुव्वती से डुबो दिया। दिलचस्प तथ्य यह है कि इनके खिलाफ कोई कार्रवाई तो हुई नहीं, उल्टे देश की गिरती साख को देखकर सरकार ने इन्हें बेलआउट पैकेज भी दिया। अब फिर चुनाव आ रहे हैं तो ओबामा को अपने वोट बैंक की चिंता सता रही है। ओबामा अमीरों पर टैक्स लगा नहीं सकते, लेकिन गरीबों के लिए लागू की जा रही स्वास्थ्य योजना का भार सरकार पर पड़ेगा। जाहिर है कि इससे ओबामा का वोट बैंक भले ही मजबूत हो जाए, लेकिन वित्तीय सुनामी को आने से रोकना बहुत मुश्किल होगा।


लेखक प्रशांत मिश्र दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं


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