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नाकामी की स्वीकारोक्ति

जागरण मेहमान कोना
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Bharat Jhunjhunbalaवित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने काले धन पर श्वेत पत्र जारी करके कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है। बताया है कि व्यापारियों के द्वारा पूरी बिक्री को खाते में नहीं दर्शाया जाता है। बिक्री के एक अंश को नकद बिक्री करके उस पर देय टैक्स को बचा लिया जाता है। दुकानदार इस रकम को निर्माता को नकद देता है। निर्माता द्वारा कच्चा माल नकद खरीदा जाता है। बिजली की चोरी करके उसका पेमेंट नकद किया जाता है। इस प्रकार टैक्स के दायरे से बाहर काले धन से चलने वाली समानांतर अर्थव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। मैं ऐसे उद्यमी को जानता हूं जो फैक्ट्री के उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा खाते में दिखाते हैं। शेष दो तिहाई हिस्से के उत्पादन में लगी बिजली, कच्चा माल, ठेकेदार द्वारा सप्लाई किए गए मजदूर सभी का पेमेंट नकद में किया जाता है। इसी प्रकार आयात करने वाले व्यापारी बिल कम मूल्य पर बनवाते हैं और शेष रकम नकद में अदा कर देते हैं। लंदन का एक दुकानदार जूते खरीदने न्यूयार्क जा रहा था, क्योंकि उसे आंशिक पेमेंट नकद में करना था, जिससे बिल कम मूल्य का बने और उसे इंग्लैंड में आयात कर कम देना पड़े। इससे जाहिर होता है कि यह समस्या वैश्विक है। प्रापर्टी में काले धन का प्रचलन सर्वदित है।


प्रापर्टी का रजिस्ट्रेशन चौथाई-तिहाई मूल्य पर होता है। अमेरिका में रहने वाले एक भारतीय मूल के नागरिक को दिल्ली में जमीन खरीदनी थी। उसके पास काला धन नहीं था। वह पूरी रकम का पेमेंट चेक से करना चाहते थे, परंतु प्रापर्टी ब्रोकर ने पूरा पेमेंट चेक से लेने से इन्कार कर दिया, क्योंकि उसने खरीद सस्ते मूल्य पर दिखाई थी। बिक्री की पूरी रकम खाते में दिखाने पर उसके खाते में लाभ अधिक होता, जिस पर आयकर देना पड़ता। इसी प्रकार सोने जवाहरात का कारोबार लगभग पूरा ही काले धन से होता है। वित्त मंत्री द्वारा बताए गए यह तथ्य सही हैं, परंतु प्रश्न है कि इन कुरीतियों पर सरकार नकेल क्यों नहीं कस पा रही है? व्यापारी का उद्देश्य लाभ कमाना होता है। उसका स्वभाव होता है कि वह यथासंभव टैक्स की बचत करे। व्यापारी के इस स्वभाव पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी सरकार की है। वित्त मंत्री ने श्वेत पत्र में स्वयं स्वीकार किया है कि सरकार भी इन्हें रोकने में नाकाम है। सरकार की इस नाकामी की तह में जाना जरूरी है। सच यह है कि मंत्रीगण इन गतिविधियों पर अंकुश लगाना ही नहीं चाहते हैं। मंत्रियों के इस रवैये के कारण अधिकारी सख्त कदम नहीं उठाते हैं और ये गतिविधियां फलने लगती हैं। यथा राजा तथा प्रजा। इसके तमाम उदाहरण उपलब्ध हैं।


वाजपेयी सरकार ने स्वैच्छिक घोषणा योजना लागू की थी। पूर्व में अर्जित काले धन पर आयकर अदा करके उसे सफेद बनाया जा सकता है। मेरी याद में 274 करोड़ की सर्वाधिक घोषणा आंध्र प्रदेश के किसी नेता ने की थी। बोफोर्स कांड में सत्यापित हुआ कि बड़े पैमाने पर घूस दी गई थी, परंतु उच्चतम न्यायालय ने विषय को यह कहकर समाप्त कर दिया कि घूस किसे दी गई, इसके ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। हवाला कांड में तमाम मंत्रियों के नाम उजागर हुए थे। पुन: प्रमाण के अभाव में कार्यवाही नहीं की गई। कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं द्वारा देश के कानूनों को तोड़कर खनन करने का मामला उजागर हुआ है। उत्तर प्रदेश के एक मुख्यमंत्री के विषय में बताया जाता है कि उनके आदेशों पर किसी माल पर सेल्स टैक्स बढ़ा दिया जाता था। फिर व्यापारियों द्वारा पर्याप्त मात्रा में भेंट पहुंचाने पर इसे चार-छह दिन में ही वापस ले लिया जाता था। जानकार लोग बताते हैं कि इस मुद्दे पर देश की दोनों प्रमुख पार्टियों के बीच अलिखित समझौता हो चुका है कि दूसरी पार्टी के नेताओं के भ्रष्टाचार को उजागर नहीं किया जाएगा। दुर्भाग्य है कि वित्त मंत्री ने श्वेत पत्र में काले धन को उत्पन्न करने में मंत्रियों की भूमिका पर एक शब्द भी नहीं कहा है। मूल समस्या है कि जब मंत्री स्वयं काले धन को अर्जित कर रहे हों तो काले धन पर निगरानी कौन रखेगा? वित्त मंत्री ने काले धन की समस्या के जो उपचार बताए हैं वे दिखावटी हैं, जैसे डेबिट कार्ड के प्रयोग को बढ़ाना अथवा प्रापर्टी की बिक्री पर टीडीएस काटना।


डेबिट कार्ड का उपयोग काले धन से की गई खरीद के लिए कोई नहीं करेगा। प्रापर्टी की खरीद पर टीडीएस केवल घोषित रकम पर वसूल किया जाएगा। इन उपचारों को बताने का उद्देश्य असली अपराधियों के प्रति ध्यान हटाकर छोटे आम अपराधी की ओर जनता का ध्यान ले जाना है। हाथी खेत को रौंद रहा है और वित्त मंत्री चूहे द्वारा किए गए नुकसान का बखान कर रहे हैं। जनता को देश की प्रमुख पार्टियों के इस चरित्र को समझना चाहिए और काले धन पर अंकुश लगाने की इन दिखावटी बातों से भ्रमित नहीं होना चाहिए। वित्त मंत्री ने सुझाव दिया है कि काले धन की समस्या से निपटने के लिए लोकपाल बिल को शीघ्र पारित किया जाना चाहिए। यह सुझाव सही दिशा में है, परंतु समस्या है कि दूसरे संवैधानिक पदों की तरह लोकपाल भी सरकार के प्रति नरम हो सकता है। वर्तमान में संवैधानिक पदों पर नामित लोग इस समस्या से निपटने में नाकाम ही सिद्ध हुए हैं। कारण कि इनकी नियुक्ति मंत्रियों द्वारा की जाती है। मंत्री ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त करते हैं जो उनके प्रति सख्त रुख अख्तियार न करें। जरूरत है कि लोकपाल समेत इन सभी पदों पर नियुक्ति का अधिकार मंत्रियों के हाथ से ले लिया जाये। राष्ट्रपति का चुनाव सीधे मतदाताओं द्वारा किया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति बार काउंसिल जैसे संघों के प्रमुखों द्वारा की जा सकती है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति सभी धर्मो, समुदायों के प्रमुखों द्वारा की जा सकती है। तब इन पदों पर नियुक्त व्यक्ति मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में हिचकिचाएंगे नहीं।


लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं

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