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यह सिर्फ और सिर्फ भारत में ही संभव है कि राजनीति और अर्थनीति अलग-अलग सांस ले रही हो। 20 सितंबर, 2012 के भारत बंद में 48 से ज्यादा छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां सहभागी होती हैं, लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या जनता के सवाल और सरकार के सवाल अलग-अलग हैं? फिर क्या इस व्यवस्था को जनतंत्र कहना उचित होगा? जनभावनाएं खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ के खिलाफ हैं, तमाम राजनीतिक दल सड़क पर हैं, पर केंद्र सरकार स्थिर है। उसे फर्क नहीं पड़ता और सौदागरों को जैसे सत्ता को बचाने में महारत मिल चुकी है। यह देखना विलक्षण है कि जो राजनीतिक दल सत्ता की इस जनविरोधी नीति के खिलाफ हैं, वही सरकार को गिराने के पक्ष में नहीं हैं। मुलायम सिंह यादव से लेकर एम. करुणानिधि तक का यह द्वंद्व साफ दिखता है यानी सत्ता को हिलाए बिना वे जनता के दिलों में उतर जाना चाहते हैं।
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ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या किसी जनविरोधी सरकार का पांच साल चलना जरूरी है? निरंतर भ्रष्टाचार और महंगाई के सवालों से घिरी, जनविरोधी फैसले करती सरकार आखिर क्यों चलनी चाहिए? यदि इसे चलना चाहिए तो डॉ. राममनोहर लोहिया यह बात क्यों कहा करते थे कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। किंतु आप देखिए डॉ. लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश के चेले उत्तर प्रदेश से बिहार तक सौदेबाजी में लगे हैं। मुलायम सिंह यादव सरकार को बचाएंगे, चाहे वह कुछ भी करे, क्योंकि उनके पास सांप्रदायिक ताकतों को रोकने का एक शाश्वत बहाना है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कह रहे हैं कि जो उनके राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देगा, उसके साथ हो लेंगे। आखिर हमारी राजनीति को हुआ क्या है? आखिर राजनीतिक दलों के लिए क्या देश के लोग एक तमाशा हैं कि आप सरकार को चलाने में मदद करें और सड़कों पर सरकार के खिलाफ नारे भी लगाएं।
शायद इसीलिए राजनीतिक दलों की नैतिकता और ईमानदारी पर सवाल उठते हैं, क्योंकि आज के राजनीतिक दल अपने मुद्दों के प्रति भी ईमानदार नहीं रहे। सत्ता पक्ष की नीतियों से देश लुटता रहे, लेकिन वे सांप्रदायिक तत्वों को रोकने के लिए घोटाले पर घोटाले होने देंगे। मुद्दों पर ईमानदार नहीं है विपक्ष खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ, जिससे पांच करोड़ लोगों की रोजी-रोटी जाने का संकट है, हमारी राजनीति में एक सामान्य-सा सवाल है। राजनीतिक दल कांग्रेस के इस कदम का विरोध करते हुए राजनीतिक लाभ तो उठाना चाहते हैं, किंतु वे ईमानदारी से अपने मुद्दों के साथ नहीं हैं। यह दोहरी चाल देश पर भारी पड़ रही है। सरकार की बेशर्मी देखिए कि आज के राष्ट्रपति और तबके वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी 7 फरवरी, 2011 को संसद में यह आश्वासन देते हैं कि आम सहमति और संवाद के बिना खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ नहीं लाएंगे। किंतु सरकार अपना वचन भूल जाती है और चोर दरवाजे से जब संसद भी नहीं चल रही है, खुदरा क्षेत्र एफडीआइ को देश पर थोप देती है।
क्या हमारा लोकतंत्र बेमानी हो गया है, जहां राजनीतिक दलों की सहमति, जनमत के कोई मायने नहीं हैं? क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों का विरोध सिर्फ दिखावा है। आप देखें तो राजनीति और अर्थनीति अरसे से अलग-अलग चल रही है यानी हमारी राजनीति तो देश के भीतर चल रही है, लेकिन अर्थनीति को चलाने वाले लोग कहीं और बैठकर हमें नियंत्रित कर रहे हैं। यही कारण है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में अर्थनीति पर दिखावटी मतभेदों को छोड़ दें तो आम सहमति बन चुकी है। आज कोई दल यह कहने की स्थिति में नहीं है कि वह सत्ता में आया तो खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ लागू नहीं होगा। क्योंकि सब किसी न किसी समय सत्ता सुख भोग चुके हैं और रास्ता वही अपनाया, जो नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने दिखाया था। उसके बाद आई तीसरा मोर्चा की सरकारें हो या स्वदेशी की पैरोकार भाजपा की सरकार, सबने वही किया जो मनमोहन टीम चाहती है। ऐसे में यह कहना कठिन है कि हम विदेशी राष्ट्रों के दबावों खासकर अमेरिका और कॉरपोरेट घरानों के प्रभाव से मुक्त होकर अपने फैसले ले पा रहे हैं।
अपनी कमजोर सरकारों को गंवाने की हद तक जाकर भी हमारी राजनीति अमेरिका और कॉरपोरेट्स की मिजाजपुर्सी में लगी है। क्या यह साधारण है कि कुछ महीनों तक अमेरिकी मीडिया द्वारा निकम्मे और अंडरअचीवर कहे जा रहे हमारे माननीय प्रधानमंत्री आज एफडीआइ को मंजूरी देते ही उन सबके लाडले हो गए। यह ऐसे ही है, जैसे फटा पोस्टर निकला हीरो। लेकिन पश्चिमी और अमेरिकी मीडिया जिस तरह अपने हितों के लिए सर्तक और एकजुट है, क्या हमारा मीडिया भी उतना ही राष्ट्रीय हितों के लिए सक्रिय और ईमानदार है? सरकारें बदलीं, पर नहीं बदले रास्ते हम देखें तो 1991 की नरसिंह राव की सरकार जिसके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे, ने नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की शुरुआत की। तब राज्यों ने भी इन सुधारों को उत्साहपूर्वक अपनाया, लेकिन जनता के गले ये बातें नहीं उतरीं यानी जनराजनीति का इन कदमों को समर्थन नहीं मिला। सुधारों के चैंपियन आगामी चुनावों में खेत रहे और संयुक्त मोर्चा की सरकार सत्ता में आती है। किंतु अद्भुत यह कि संयुक्त मोर्चा सरकार और उसके वित्तमंत्री पी. चिदंबरम भी वही करते हैं, जो पिछली सरकार कर रही थीं।
वे भी सत्ता से बाहर हो जाते हैं। फिर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आती है। उसने तो गजब ढाया। प्रिंट मीडिया में निवेश की अनुमति, केंद्र में पहली बार विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की और जोरशोर से यह उदारीकरण का रथ बढ़ता चला गया। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक स्व. दत्तोपंत ढेंगड़ी ने तत्कालीन भाजपाई वित्तमंत्री को अनर्थमंत्री तक कह दिया। संघ और भाजपा के द्वंद्व इस दौर में साफ नजर आए। सरकारी कंपनियां धड़ल्ले से बेची गई और मनमोहनी एजेंडा इस सरकार का भी मूलमंत्र रहा। अंतत: इंडिया शायनिंग की हवा-हवाई नारेबाजियों के बीच भाजपा की सरकार भी विदा हो गई। सरकारें बदलती गई, लेकिन हमारी अर्थनीति पर अमेरिकी और कॉरपोरेट प्रभाव कायम रहे। सरकारें बदलने का नीतियों पर असर नहीं दिखा। फिर कांग्रेस लौटती है और देश के दुर्भाग्य से उन्हीं मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदंबरम जैसों के हाथ देश की कमान आ जाती है, जो देश की अर्थनीति को किन्हीं और के इशारों पर बनाते और चलाते हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि जनता ने प्रतिरोध नहीं किया। जनता ने हर सरकार को उलटकर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की, लेकिन हमारी राजनीति पर इसका कोई असर नहीं हुआ। अपने-अपने सुर क्या यह साधारण है कि हर दल का संगठन आम आदमी की बात करता है और उसी की सरकार खास आदमी, अमेरिका और कॉरपोरेट की पैरवी कर रही होती है। आप देखें तो सोनिया गांधी गरीब समर्थक नीतियों की पैरवी करती दिखती हैं।
राहुल गांधी को कलावतियों की चिंता है, लेकिन उनकी सरकार गरीबों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बना रही है। भाजपा की सरकार केंद्र में उदारीकरण की आंधी ला देती है, जबकि उसका मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वदेशी और स्वावलंबन की बातें करता रह जाता है। मुलायम सिंह भी लोहिया, जयप्रकाश और चरण सिंह का नाम लेते नहीं अघाते, किंतु वे भी कॉरपोरेट समाजवाद के वाहक बन जाते हैं। अमेरिका के बाजार को संभालने के लिए हमारी सरकार का उत्साह चिंता में डालता है। ओबामा के प्रति यह भक्ति भी चिंता में डालती है। यह तब, जब यह सारा कुछ उस पार्टी के राज में घट रहा है, जो महात्मा गांधी का नाम लेते नहीं थकती। आज भी जो लोग इन फैसलों के खिलाफ हैं, उनकी ईमानदारी भी संदेह के दायरे में है। वे चाहे मुलायम सिंह हों या करुणानिधि या कोई और। एक साल में चार बार भारत बंद कर रही राजनीतिक पार्टियां क्या वास्तव में जनता के सवालों के प्रति ईमानदार हैं? सारी की सारी राजनीति इस समय जनविरोधी तंत्र को स्थापित करने के लिए मौन साधे खड़ी है। 2014 के चुनावों के मद्देनजर यह विपक्ष की दिखती हुई उछल-कूद हमें प्रभावित करने के लिए है, लेकिन क्या जिम्मेदारी से हमारे राजनीतिक दल यह वादा करने की स्थिति में हैं कि वे खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को मंजूरी नहीं देंगे। सही मायने में भारत के विशाल व्यापार पर विदेशियों की बुरी नजर पड़ गई है। इस बार लार्ड क्लाइव और मैकाले की रणनीतियों से नहीं, हमें अपनों से हारना है।
लेखक संजय द्विवेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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